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पुस्तक समीक्षा : यादों के पत्ते

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ओंकारेश्वर पांडेय

यादों के पत्ते तृप्ति मिश्रा के निजी अहसास की कविता है। पर इस कविता का फलक समूची मानवीयता को समेटने वाला है। जो लोग यादों के पत्तों में वसंत का दर्शन करके रह जाते हैं, वो इस युवा कवयित्री की कविता की कल्पना की उड़ान की न ऊंचाइयां समझ सकते हैं और न ही इस कविता के भाव की गहराइयों में गोता लगा सकते हैं।
 
यादों के पत्ते तरह तरह के होते हैं। कोई रंग हरा, कोई लाल सुर्ख, कोई नीला और कोई पीला। रंग कोई भी हो, इन यादों में हमारी जिंदगी के मीठे-कड़वे अहसासों का अनमोल खज़ाना भरा होता है।
 
तृप्ति की यादों के पत्ते कई रंगों के हैं। उनमें सावन सा हरा हरा लहराता प्रेम भी है – जो इतना प्यारा है कि कोई पास न होते हुए भी पास महसूस होता है... और ऐसा लगता है, कि एक सपना है वो, जो अंजान होते हुए भी, सबसे अपना है वो, खयालों में छाया है, सिर्फ वो, ऐसा लगता है, कि मेरा साया है वो। और कवयित्री का वश चले तो, उसका मन करे कि सबको बता दें, और फिर उसे लगे कि सबसे छुपा लें। हां, ऐसा ही वो राज़ है, कि जो पास न होते हुए भी पास है।
 
यकीनन, कितना प्यारा ये एहसास है कि जिसे आज तक उसने कभी देखा नहीं, फिर भी मन उसकी तरफ क्यों खिंचा चला जाता है और चाहे जितना भी वो मन बहलाए, वो चुपके से बार-बार उसके खयालों में चला आता है। ये कैसी प्यास है, न बुझने वाली, न बुझेगी, फिर भी तहे दिल से सुकूं देती, कि कोई पास न होते हुए भी पास है। सचमुच ये कितना प्यारा एहसास है।

ये तृप्ति की यादों के पन्ने हैं। ऐसे खूबसूरत अहसासों के पत्ते कोई बिना वजह ही नहीं उग आते। कि जिस जगह देखो, वो ही वो नज़र आता है। निकम्मी हो जाती है ज़िन्दगी, इतनी कि जितना दूर भागें उससे, वो उतना ही करीब आता जाता है, और हर पल साथ होने का एहसास दिलाता है। अब जिसमें प्रेम के, विरह के इस दर्द का ज़िक्र ना हो, है कोई ऐसी किताब, है तो चाहिए, कि दिन रात ना गिनें हो उसकी याद में, तृप्ति को अब वो हिसाब चाहिए।

क्योंकि जब भी वो बारिश होते हुए देखती है, तो उसे लगता है कि आसमान भी रो रहा है। ऐसा लगता है कि बादल की गड़गड़ाहट के साथ चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है कि सारी भड़ास निकाल लो, मेरे साथ तुम भी रो लो। और वो सोचती है कि बारिश की हर बूंद के फैलने से जैसे एक छोटा सा ज्वालामुखी फूटा है। और उसका मन करता है कि इस लावे के साथ ही अपने दुःख भी बहा दे वो आज। जब तेज़ बारिश की आवाज़ कानों में आती है उसके तो लगता है उसे कि वह भी रो ले, ताकि कम से कम बारिश के शोर में उसकी आवाज़ कोई नहीं सुन पाए, और उसका मन भी हल्का हो जाए।

ये तृप्ति की यादों के पन्ने हैं। असीमित, अपरिमित, अतृप्त। अप्राप्य। किंतु शक्ति और उर्जा का अप्रमेय स्रोत भी। जो उसके सूने घर में प्रतिबिंब की तरह रह रह कर उसके सामने आ जाते हैं, और वो की सकुचाती, कभी घबराती जीवन पथ पर चलती जाती है, आसपास की चम्पई महक में, खुद को ही बिसराती, कभी राधा कभी मीरा बनकर यह वो स्त्री है, जो तुमसे जुड़ी सोच के साथ आगे बढ़ती है, तुम्हारे कुछ अधूरे से सपनों को पूरा करने के लिए, अपने समस्त भावों को समेटते, अपना अस्तित्व गढ़ते, सिर्फ तुम्हारा संबल संग लिए, कलुषित विश्व से लड़ जाती है।

ये तृप्ति की यादों के पन्ने हैं। मनी प्लांट के पत्तों जैसी। तुम्हारी बेशुमार यादें समेटे। ठूंठ सी ज़िंदगी लिए, जिसपे यादों की बहार, मनीप्लांट सी आसपास लिपटी हुई। जिसने घेर लिया है उसे चारों तरफ से, जैसे मनीप्लांट के पत्तों ने उसकी ठूंठ जिंदगी को छिपा लिया हो। पर कमाल है - मनीप्लांट के पत्तों सी, ये यादें भी बढ़ती हैं, हँसती हैं मुस्काती हैं, कभी वो तृप्ति से लड़ती हैं और कभी खामोश उसके साथ पड़े यादों के जत्थे से।

कौन हैं ये तृप्ति? किसकी यादें हैं ये सब? :  मध्यप्रदेश के इंदौर जिले में जन्मी तृप्ति मिश्रा ने विज्ञान से स्नातक करके सिम्बायोसिस पुणे से एमबीए किया और कैप्टन आशीष से शादी कर खुशी-खुशी जिंदगी बसा ली। पर नियति को कुछ और मंजूर था। अब वही भूतपूर्व सेना अधिकारी की पत्नी तृप्ति अपने पति की यादों के पिटारे समेटे स्वतंत्र लेखन के साथ लघु उद्योग निगम और खादी बोर्ड के साथ जुड़कर गांव-गांव में विभिन्न विधाओं में प्रशिक्षण देकर महिलाओं को स्वावलंबी बनाने का कार्य कर रही हैं।
 
इनकी लोकगीतों पर आधारित पुस्तक श्लोक-लय भी प्रकाशित हो चुकी है, जिसमें अत्यंत पुरातन 70 भक्ति गीतों का संकलन है और सभी गीत अपनी मूल धुन में यूट्यूब चैनल में संरक्षित भी किए हैं। तृप्ति की सृजनशीलता को सम्मान भी खूब मिला है।
 
उनकी काव्य रचना यादों के झड़ते पत्ते दो अलहदा से लोगों की कहानी है, जो अलहदा रास्ते और अलहदा सोच के बावजूद एक हो गए, क्योंकि उनके हाथों की कुछ लकीरें थीं, माथे पर नसीब था, तो जान लुटा दी प्यार में, और जानशीं बन गयी। वो चाहती है कि महकते फूलों की तरह ये यादें बेशुमार हर पल साथ रहें, चढ़ा है और चढ़ा रहे, तुम्हारी यादों का खुमार। क्योंकि कहने को तो पुरानी हैं ये यादें, पर एक नूर है इनमें, सूखे होने के बावजूद भी एक हूर है इनमें, यूं तो देखने में भूरे हैं, पर इनमें खुशियों के सभी रंग पूरे हैं। जब भी ये पत्ते बिखरते हैं, न जाने कितने ख्वाब मचलने लगते हैं। लेकिन वक्त के थपेड़ों के साथ अब यादों के ये बेशकीमती पत्ते झड़ने लगे हैं।

सचमुच भावुक कर देती हैं ये यादें। सिर्फ तृप्ति की नहीं, मेरी, तुम्हारी, हम सबकी यादें भी तो कुछ ऐसी ही होती हैं। यादों का यह मखमली अहसास, पल्लव से ढुलके हुए कल्पना के ओस की बूंद की तरह, निर्मल, शीतल, निर्दोष, हमने इसे संभाल लिया है, अनमोल मोती की तरह। थैंक्यू तृप्ति।

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