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पुस्तक समीक्षा : 'जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज था'- घर-घर पढ़ा जाने वाला उपन्यास

हमें फॉलो करें पुस्तक समीक्षा : 'जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज था'- घर-घर पढ़ा जाने वाला उपन्यास
समीक्षा- सुधा ओम ढींगरा
 
ऐसा अद्भुत उपन्यास बहुत कम पढ़ने को मिलता है। हिन्दी साहित्य में तो मैंने पहला ही पढ़ा है। समसामयिक, दुर्लभ, नाजुक, गंभीर और चिंतनशील विषय का कुशलता से निर्वाह किया गया है। गजब की क़िस्सागोई। जो विषय उपन्यास में उठाया गया है, वह विषय अपने आप में बहुत-सी भ्रांतियां, पूर्वाग्रह, संशय, विरोधाभास और प्रश्न समेटे हुए है।

 
जिन्हें लेकर बुद्धिजीवी अक्सर द्वंद्व और अंधविश्वासी भ्रम में रहते हैं। जिसकी थाह सही अर्थों में कोई नहीं पा सका, मगर अपने-अपने तरीकों से उसे परिभाषित जरूर कर दिया गया है। उपन्यास धर्म की भ्रांतियों, पूर्वाग्रहों, संशय और विरोधाभासों को स्पष्ट करता हुआ कई प्रश्नों के उत्तर देता है। 5,000 साल के इतिहास को नई दृष्टि से देखा और परखा गया है।
 
डैन ब्राउन ने 'डा विंची कोड' में बाइबल की थियोरी और सलमान रश्दी ने 'स्टैनिक वर्सेज' में क़ुरआन में तथ्यों के अभाव पर रोशनी डाली है। पर पंकज सुबीर ने अपने उपन्यास 'जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज था' में सभी धर्मों के मूल तत्व जिस पर हर धर्म टिका हुआ होता है, की पड़ताल की है। मूल तत्व जिसे हर धर्म में भुला दिया गया है जिससे हर धर्म का स्वरूप ही भिन्न हो गया है। कागजों पर लिखे शब्दों के अर्थों को ही बदल दिया गया है। अफ़सोस की बात है कि भारतीय दर्शन, मीमांसा, जीवन पद्धति तक उसे भुला चुके हैं।
 
5,000 साल पहले के इतिहास, विभिन्न धर्मों पर किया गया शोध, हिन्दू धर्म की, इस्लाम की, यहूदियों की, क्रिश्चियन की, बौद्धों की, पारसियों की और जैन धर्म की तथ्यों से भरपूर ढेरों जानकारियां हैं। इतिहास को खंगालता, शोधपरक और बौद्धिक श्रम लिए उपन्यास का एक-एक पृष्ठ भीतर के ज्ञान-चक्षु खोल देता है और उपन्यास हाथ से छूटता नहीं।
 
लेखक ने निर्लिप्त होकर निष्पक्ष लिखा है। उपन्यास पढ़ते हुए महसूस होता है, जैसे किसी मलंग या सूफ़ी लेखक ने लिखा है जिसके लिए सब धर्म एक बराबर हैं। न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर...! बस, सभी धर्मों का मूल मंत्र, प्रेम, विश्वास और इंसानियत की पैरवी की है। ये हैं तो हिंसा पैदा ही नहीं होती।

 
दु:ख की बात तो यही है कि आज धर्मों में यही मूल मंत्र गायब हैं और हिंसा बलवती हो गई है। अहिंसा तो भारतीय मूल्यों में भी मिटती जा रही है, जो पूरे विश्व में हमारी पहचान है। उपन्यास में लेखक ने दुनिया के सभी प्रमुख धर्मों पर बात की है, उनके सिद्धांतों पर चर्चा की है।
 
हर धर्म के मूल तक पहुंचकर लेखक ने अपने पाठक के लिए जैसे किसी नई दुनिया के दरवाजे खोलने का काम किया है। जैसे-जैसे पाठक इस उपन्यास को पढ़ता जाता है, वैसे-वैसे उसके सामने नई-नई जानकारियों के दरीचे खुलते जाते हैं। लेखक समभाव से समदृष्टि रखते हुए हर धर्म के बारे में पड़ताल करता हुआ गुजर जाता है। हालांकि यह मेरा प्रिय विषय है और मैंने स्वयं भी इस विषय पर बहुत शोध किया हुआ है, पर इस उपन्यास ने मेरी तलाश और भटकन दूर कर दी।

 
उपन्यास के आरंभ में ही लेखक ने एक लंबी चर्चा के माध्यम बहुत सारी बातों की व्याख्या की है। इस व्याख्या में उदाहरण लिए हैं, संदर्भ लिए हैं और उनके द्वारा धर्म को फिर से परिभाषित करने का कार्य किया है। यदि आप यह कहेंगे कि यह उपन्यास धर्म को ख़ारिज करता है, तो आप ग़लत होंगे। यह उपन्यास असल में धर्म में आए हुए विचलन व भटकाव को ख़ारिज करता है। यह पहुंचने की कोशिश करता है उन बिंदुओं तक, जो दुनिया के हर धर्म में मानव के भले के लिए तय किए गए थे।

 
यह उपन्यास केवल एक उपन्यास नहीं है, यह असल में एक समीक्षा है कि हमारी यह मानव जाति 5,000 साल पहले अपने लिए क्या तय करके निकली थी और आज 5,000 साल बाद कहां है? यह उपन्यास परत-दर-परत 5,000 सालों की कहानी को स्पष्ट करता हुआ चलता है और उस कहानी के साथ फिर-फिर लौटता है आज की कहानी पर।
 
भारत-पाक विभाजन पर बहुत-सी रचनाएं सामने आई हैं, लेकिन यह अपनी तरह का एक अनोखा प्रयास है जिसमें विभाजन के मूल कारणों तक जाने की कोशिश की गई है। इतिहास के पात्रों के साथ सवाल-जवाब करते हुए उस विभाजन के सूत्र तलाशने की कोशिश लेखक ने की है। यही कोशिश इस उपन्यास को अपने समय से आगे का उपन्यास और अत्यंत विशिष्ट उपन्यास बना देती है।
 
 
जो नई सूचनाएं भारत और पाकिस्तान के विभाजन को लेकर सामने आती हैं, उन्हें पढ़कर पाठक दंग रह जाता है। यह उपन्यास उस धीमी प्रक्रिया का विस्तार से विश्लेषण करता है, जो अलगाववाद के रूप में पैदा हो रही होती है और जिसकी परिणति अंतत: भारत-पाक विभाजन के रूप में सामने आती है। इस पूरी प्रक्रिया की बात करते समय लेखक किसी को क्षमा नहीं करता है। वह इतिहास के हर उस पात्र को कठघरे में खड़ा करता है, जो भारत-पाक विभाजन से जुड़ा हुआ है।

 
'जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज था' एक रात का उपन्यास है। क़स्बे और उसके पास की बस्ती में किन्हीं कारणों से 2 संप्रदायों के मध्य दंगे शुरू हो जाते हैं। दंगे के कारणों को उपन्यास पढ़कर ही जाना जा सकता है। दंगों से पैदा हुई दहशत, असुरक्षा और ख़ौफ़ की रात का इतना स्वाभाविक और बखूबी से चित्रण किया गया है कि भय का कहर बरपाने वाली रात बेहद वास्तविक लगती है और पाठक स्वयं को दंगे में फंसा हुआ महसूस करता है।

 
उपन्यास के मुख्य पात्र रामेश्वर का चरित्र शुरू से लेकर अंत तक बहुत परिपक्व और सुलझा हुआ रहता है। लेखक ने इस पात्र का निर्वाह बेहद कुशलता से किया है, बौद्धिकता से लबालब और संवेदना से भरपूर। धर्म और संप्रदाय, राजनीति में धर्म का प्रवेश, देश का बंटवारा, कांग्रेस, मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा, आरएसएस, सांप्रदायिक दंगे और उनके पीछे की तथ्यपरक कहानियां दंगे के दौरान वह बताता है। रामेश्वर, जो कहता है, इस कहन को जिस शैली में बांधा गया है, वह अक्सर उन विदेशी उपन्यासों में देखने को मिलती है जिनमें इतिहास के तथ्यों की पुष्टि की जाती है।

 
जिला कलेक्टर वरुण कुमार और एडिशनल एसपी भारत यादव 2 ऐसे पात्र हैं, जो सरकारी तंत्र और प्रशासन के प्रति विश्वास और आदर पैदा करते हैं। दंगे में वे सिर्फ इंसानियत के धर्म को निभाते हैं और दंगाइयों को पछाड़कर पीड़ितों को बचाते हैं। युवा पात्र विकास, खुर्शीद को सही मार्गदर्शन मिलने पर उनका बेहतरीन सामने आता है। युवा पीढ़ी उचित मार्गदर्शन के अभाव में कंफ्यूज्ड है।
 
धार्मिक ग्रंथों की शिक्षाएं, व्याख्या और अर्थ ही धार्मिक नेताओं ने सुविधानुसार बदल दिए हैं जिससे युवा पीढ़ी भटक गई है, सही अर्थों में धर्म को, उसकी परिभाषा को समझती ही नहीं। सोशल मीडिया मनगढ़ंत ज्ञान बांट रहा है। ऐसे में 'जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज था' ताजी हवा के झोंके-सा महसूस होता है, जो दिल-दिमाग के सारे जाले साफ़ कर देता है।
 
 
मुख्य पात्र रामेश्वर द्वारा विकास को कही गईं कुछ बातें मन-मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ती हैं। 'सुनो बच्चों... नफ़रत करना बहुत आसान है, लेकिन प्रेम करना बहुत मुश्किल है इसलिए ये दुनिया आसान काम को ही चुनती है। मगर जीने के लिए का असली आनंद मुश्किल काम करने में ही है। मार देना बहुत आसान है, मगर बचा लेना बहुत कठिन है इसलिए ज्यादा लोग पहले वाले आसान काम को ही चुनते हैं। एक बात याद रखना भीड़ जिस भी दिशा में जा रही होती है, वह दिशा और वह रास्ता हमेशा ग़लत होता है। भीड़ कभी सही दिशा में नहीं जाती है इसलिए क्योंकि भीड़ स्वयं नहीं चलती उसे चलाया जाता है।'
 
 
'पाकिस्तान बन जाने के बाद भी जो मुसलमान यह देश छोड़कर वहां नहीं गए, वे सब हमारे भरोसे पर यहां रुक गए थे। इस भरोसे पर कि कुछ भी हुआ तो हम उनको बचाएंगे। जिस तरह यह सलीम यहां रुका हुआ है न हमारे भरोसे पर, ठीक उसी तरह। अब ये हम सबकी जिम्मेदारी है कि हम इस भरोसे को बचाकर रखें। हमारे अपने ही कुछ लोग हमें इस भरोसे को तोड़ देने के लिए उकसाते हैं, लेकिन तोड़ने वालों को कभी याद नहीं रखा जाता, जोड़ने वालों को याद रखा जाता है।'

 
एक जगह रामेश्वर भारत को बताता है, 'मुसलमानों ने अपनी कट्टरता नहीं छोड़ी और धीरे-धीरे यह हुआ कि हिन्दू, जो दुनिया के दूसरे धर्मों के मुक़ाबले में कम कट्टर धर्म था, वह भी कट्टर होता चला गया। हिन्दुओं ने धार्मिक कट्टरता का पाठ मुसलमानों से ही सीखा है। आज तो स्थिति यह है कि आज का हिन्दू तो मुसलमानों की तुलना में और अधिक कट्टर हो गया है और अब यह कट्टरता ही मुसलमानों को परेशान कर रही है।'

 
'भारत में इस्लाम कैसा होना चाहिए! यह बात केवल सूफ़ी संतों ने समझी, लेकिन उन सूफ़ी संतों का संदेश ही मुसलमान नहीं समझ पाए। मुसलमानों ने अपना आदर्श सूफ़ी संतों को न बनाकर आक्रमणकारी योद्धाओं को बनाया।'
 
उपन्यास पढ़ते हुए ऐसी बहुत-सी बातें हैं, जो जिज्ञासा बढ़ाती हैं, उत्सुकता जगाती हैं, कभी मन विचलित होता है, कभी शांत, तो कभी उद्वेलित।
 
रामेश्वर के साथ एक और पात्र है शाहनवाज। रामेश्वर उन्हें अपने बेटा मानते हैं और उसी के इर्द-गिर्द सारा उपन्यास घूमता है। बहुत कुछ आपको बता दिया, अब आप उपन्यास पढ़कर पूरी कहानी जानें। मैं इतना कहूंगी कि उपन्यास बेहद पठनीय है और यह उपन्यास घर-घर पढ़ा जाना चाहिए। लेखक ने शिल्प में कई नए प्रयोग किए हैं, जो उपन्यास को रोचक बनाते हैं। मुझे अंत बहुत प्रभावशाली लगा। बेहद सकारात्मक। दंगे के बाद जिस भारत का जन्म होता है, उसे हिन्दू और मुसलमान दोनों थामते हैं।
 
डॉक्टर जोसफ़ मर्फ़ी की पुस्तक 'दा पॉवर ऑफ़ योर सब कांशियस माइंड' पूरे विश्व में बहुत पढ़ी गई, क्योंकि इस पुस्तक में लेखक ने उस शक्ति को मनुष्य के भीतर बताया है जिसे सभी धर्मों में तलाशा जाता है। अपनी भिन्नता के कारण यह पुस्तक बहुत सराही गई है।
 
'जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पर नाज था' पंकज सुबीर का उपन्यास भी एक भिन्न संदेश देता है और एक ऐसा पैग़ाम लेकर आया है जिसे पढ़कर ही समझा जा सकता है।

 
पुस्तक- जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज था
उपन्यास- पंकज सुबीर
प्रकाशन : शिवना प्रकाशन, पीसी लैब, सम्राट कॉम्प्लेक्स बेसमेंट, सीहोर, (मप्र)। 
पिन : 466001। 
प्रकाशन वर्ष- 2019, मूल्य- 200 रुपए, पृष्ठ- 288

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