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सरल भाषा में रोचक बाल कविताओं का संकलन है किताब बारहमासी

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सुशील कुमार शर्मा

बारहमासी : रोचक बाल कविताओं का संकलन  (पुस्तक समीक्षा)
 
आज जब मैं नरेन्द्र श्रीवास्तवजी की पुस्तक बारहमासी (बच्चों की कविताएं) की समीक्षा लिखने बैठा तो बाल साहित्य के बारे में प्रख्यात गीतकार और शायर गुलजार की एक बात मेरे जेहन में गूंजने लगी कि, 'अच्‍छा बाल साहित्‍य वह है जिसका आनंद बच्‍चे से लेकर बड़े तक ले सकें। जिस प्रकार बाल कविताओं को रचने के लिए खुद को बच्चा बनना पड़ता है, ठीक उसी प्रकार बाल कविताओं के लिए भी बच्चों का मनोविज्ञान समझकर बिलकुल सीधी और सरल भाषा में रोचकता का आवरण लिए बाल कविताएं रची जानी चाहिए।'
 
नरेन्द्रजी ने बहुत ही सरल भाषा में इन कविताओं की रचना की है, जो उनकी साहित्यिक परिपक्वता को परिलक्षित करती हैं। नरेन्द्रजी ने इन कविताओं के माध्यम से बच्चों को इस विरासत का महत्व जानने व उसका आनंद लेने के लिए तथा हमारे देश की भाषाओं, इतिहास और संस्कृतियों के प्रति अपनेपन का भाव साझा करने का अप्रतिम प्रयास किया है। 
 
हम सभी को अपने बचपन में सुनीं कुछ कहानियों और कविताओं की याद आती है। वे हमारे अंतरमन में इतनी गहरे पैठी हैं कि लगता है कि वे हमारे जीवन का एक हिस्सा हैं। सद्व्यवहार के संबंध में या नैतिक संदेश या चेतावनी देने वाली लोककथा अथवा स्कूल के खेल के मैदान में सुनाई गई कोई कविता आज भी हमारे चरण का हिस्सा बनी है। हमने शायद किसी किताब में कभी पढ़े बिना इन कहानियों या कविताओं को घर पर, समुदाय और स्कूल में सुनकर सीखा होगा और इन लोककथाओं और कविताओं से लगता है कि इनसे हमारा जन्म-जन्मांतर का रिश्ता हो। 
 
दरअसल, बाल साहित्‍य का उद्देश्‍य बाल पाठकों का मनोरंजन करना ही नहीं, अपितु उन्‍हें आज के जीवन की सच्‍चाइयों से परिचित कराना है। आज के बालक कल के भारत के नागरिक हैं और वे जैसा पढ़ेंगे, उसी के अनुरूप उनका चरित्र निर्माण होगा।
 
नरेन्द्रजी ने कोशिश की है कि वे सरल भाषा में ऐसे बाल साहित्य का सृजन करें, जो बच्चों को मनोरंजन के साथ-साथ देशप्रेम और नैतिक शिक्षा का पाठ भी पढ़ाए। उनकी बाल कविताएं 'जग में नाम कमाओ', 'कहा बड़ों का मानें', 'आजादी के मतवाले' जैसी कविताएं चरित्र निर्माण और देशप्रेम की शिक्षा एवं संदेश देती हैं।
 
'मातृभूमि के लिए लड़ेंगे,
तन-मन अपना न्योछावर कर।
पीठ कभी न दिखलाएंगे,
युद्धभूमि में आगे बढ़कर।'
 
बालक जीवन की अनमोल निधि होता है। बाल मन स्वभाव से सहज, सरल, सरस, जिज्ञासु, उत्साह से भरा, कल्पना के पंख लगाकर पूरी दुनिया की सैर करने वाला तथा मौलिक रचनात्मकता से भरा होता है। बच्चों के इसी कोमल मन को चित्रित करती उनकी एक कविता 'चंदा मामा तुम प्यारे हो' की कुछ पंक्तियां 'चंदा धीरे-धीरे है चलता रुके नहीं, न है थकता।'
 
'चंदा का नीला आसमान।
खूब खेलने का मैदान।'
 
बच्चों का मन हमेशा एक खोजी अन्वेषक की तरह है, जो हर समय क्रियाशील एवं सचेत रहता है। इसलिए हिन्दी बाल कविता की पहली कोशिश यही रहनी चाहिए कि कोमल मन- मस्तिष्क वाले बच्चों को प्यारभरी लुभावनी दुनिया में ले जाएं।
 
नरेन्द्रजी की कविता 'ऐसा मौका आए' बच्चों के मन को विश्लेषित करती है।
 
'पापा बोले प्यारे बेटा,
जब भी ऐसा मौका आए।
जोखिम लेकर निर्णय करो,
मन को जो भी भाए।'
 
इन बाल कविताओं में नरेन्द्रजी ने सामाजिक सरोकारों की बात बहुत सहज तरीके से उठाई है। नरेन्द्रजी का मानना है कि भले ही हमने हजारो-हजार स्कूल, मदरसे, कॉलेज, विश्‍वविद्यालय, संग्रहालय, पुस्तकालय, अप्पूघर, पार्क, मैदान, बाग-बगीचे स्थापित कर लिए हों, इसके बावजूद एक बड़ी शर्मनाक बात है कि हमारे लाखों-करोड़ों नन्हे-नन्हे बच्चे काम करने को विवश हैं। कुछ पीठ पर अपने से बड़ा बोरा लटकाए कूड़े के ढेर में रोटी तलाश रहे हैं, कुछ होटल में कोमल-कोमल हाथों से बरतनों को चमका रहे हैं, कुछ अपनी कमीज खोलकर ट्रेन का फर्श या लोगों के जूते साफ कर रहे हैं, तो कोई दन-कालीन, माचिस, बीड़ी-सिगरेट, पटाखे, बल्ब-ट्यूब या चूड़ियां बनाने जैसे खतरनाक कामों में लगे हैं। कुछ गोबर, लीद ढूंढते रहने के बाद अंधेरे में दुबक रहे हैं। 
 
उन्होंने उस तबके की नींद की फिक्र की है जिसके जिंदा होने तक की फिक्र समाज को नहीं होती! जैसे मानसिक विक्षिप्त बच्चे, भिखारी बच्चे, एड्स रोगी बच्चे, बाल मजदूर आदि। 'छोड़कर चिंता सारी', 'देखा संग में सपना' और 'ये मैंने रुपए जोड़े' कविताएं बच्चों के सामाजिक सरोकारों को आवाज देती हैं।
 
इन कविताओं में संगीतबद्धता नहीं है, पर शब्दों में प्रेम की वही गर्माहट है, जो मां की सुरीली आवाज में होती है। वे ही शब्द हैं, जो दिनभर में मिली थकान और जिल्लत को पोंछकर प्यार की थपकी दे सकें। इन कवितों में भोलापन है। इनमें प्रेम, वात्सल्य और भविष्य की आशाएं पल्ल्वित हैं।
 
'सबसे पहले उठ जाती मम्मी,
सबको चाय पिलाती मम्मी।
खेल-खिलौने, टॉफी-बिस्कुट
खूब प्यार जताती मम्मी।'
 
एक तरफ हम अपने बच्चों से इतना सारा प्यार करते हैं, उन्हें दुनिया की हर खुशी देना चाहते हैं, उनके सामने भौतिक संसाधनों का अंबार लगा देना चाहते हैं, उनके लिए संपत्ति और धन का सारा संकेंद्रण कर देना चाहते हैं और इस कथित प्यार को देने के लिए दुनियाभर में मारकाट मचाते हैं, युद्ध लड़ते हैं, दंगे करते हैं, नैतिक-अनैतिक हर तरह का व्यवहार करते हैं, तो इन्हीं भावों से ओतप्रोत नरेन्द्रजी की बाल कविताएं 'शुभ हो, मंगलदायक हो', 'चालक लोमड़ी', 'गांधीजी' बच्चों एवं बड़ों के बीच मधुर संबंधों और संस्कारों का संदेश देती हैं।
 
आज का समाज अतिव्यस्तता से भरा हुआ है। किसी के पास अपने बच्चों तक के लिए समय नहीं है। उनकी मीठी-मीठी तोतली बोली का आनंद लेने की फुरसत किसी के पास नहीं है। नौकरीपेशा माता-पिता के बच्चे अकेलेपन के संत्रास से जूझते रहते हैं। नरेन्द्रजी ने बच्चों की कोमल भावनाओं का मधुर चित्रण करते हुए इन्हीं संत्रासों को अपनी कविताओं में आवाज दी है। उनकी कविताएं 'तितली रानी', 'एक का पहाड़ा', 'बेटा तुम इतना करना' 'नानीजी' में इन्हीं मानवीय संबंधों का चित्रण किया गया है।
 
बच्चे तरल पदार्थ की तरह हैं जिसका अपना कोई स्वरूप नहीं होता। उसे जिस रूप तथा जिस आकार में तैयार कर दें, वह वैसा ही स्वरूप धारण कर लेता है। इसी तरह बच्चे की आदत, स्वभाव, विचार तथा स्वरूप नहीं होता, उसे परिवार, समाज, परिवेश और संस्कार जिस सांचे में ढाल दे, वैसा ही बच्चों के व्यक्तित्व का स्वरूप निर्धारण हो जाता है। जब बच्चे को बड़ा होकर किसी भी कारण से तथाकथित कमतर या महत्वपूर्ण कार्य ही करना पड़ जाता है तो वह हीनभावना से ग्रसित रहता है और कुंठित हो जाता है। इन्हीं भावों को व्यक्त करतीं उनकी कविताएं 'बच्चे पढ़ते मन लगाकर', 'छोड़कर चिंता सारी' 'हे प्रभु वर दीजिए' अंतरमन को छूती हैं।
 
आज बाल साहित्य पर लेखन बहुत कम हो रहा है और जो हो भी रहा है, वह बच्चों के समयानुकूल नहीं है। इस संबंध में दिविक रमेश के एक आलेख का अंश उद्धृत करना चाहूंगा कि 'वस्तुत: आज हमारे बाल लेखकों की पहुंच ग्रामीण ओर आदिवासी बच्चों तक भी सहज-सुलभ होनी चाहिए।

भारतीय बच्चों का परिवेश केवल कम्प्यूटर, सड़कें, मॉल्ज, आधुनिक तकनीकी से संपन्न शहरी स्कूल, अंतरराष्ट्रीय परिवेश ही नहीं है (वह तो आज के साहित्यकार की निगाह में होना ही चाहिए), गांव-देहात तक फैली पाठशालाएं भी हैं, कच्चे-पक्के मकान व झोपड़ियां भी हैं, उनके माता-पिता भी हैं, उनकी गाय-भैंस-बकरियां भी हैं, प्रकृति का संसर्ग भी है। वे भी आज के ही बच्चे हैं। उनकी भी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए, जो कि दिख रही है।'
 
आज के वैश्विक दौर में बच्चों और बड़ों के बीच अंतर करना बहुत मुश्किल हो गया। कभी-कभी तो बच्चों का व्यवहार बड़ों से भी ज्यादा गंभीर लगने लगता है। ऐसी स्थिति में बाल साहित्यकार के सामने न केवल बच्चे के बचपन को बचाए रखने की चुनौती है बल्कि अपने भीतर के शिशु को भी बचाए रखने की बड़ी चुनौती है। 
 
नरेन्द्र श्रीवास्तवजी की यह पुस्तक 'बारहमासी' बच्चों और बड़ों के बीच में एक स्पष्ट लकीर खींचती है। इस बाल साहित्य के जरिए नरेन्द्र श्रीवास्तव अपने अंदर के बच्चे को बचाने में सफल हुए हैं। इस अमूल्य लेखन के लिए नरेन्द्रजी साधुवाद के पात्र हैं।
 
पुस्तक का नाम- बारहमासी
लेखक- नरेन्द्र श्रीवास्तव
प्रकाशक- पाथेय प्रकाशन, जबलपुर
मूल्य- 50 रुपए
 

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