'अकेला घर हुसैन का', 'कटौती' और 'जिबह बेला' के बाद निलय उपाध्याय का चौथा काव्य संकलन है मुंबई की लोकल। निरंतर बाजारू होते जाते समय के बीच ये कविताएं समय के पहचान की एक दिशासूचक सृजनात्मक घटना हैं।
ये कविताएं कवि के नितांत भिन्न काव्य सामर्थ्य और काव्य-संरचना के माध्यम से हमें मुंबई के उस अनुभव लोक में ले जाती हैं, जहां भीड़ बहुत है, जीवन जटिल है और बाजार ने ऐसी जगह लाकर छोड़ दिया है कि आम लोगों को रोटी के लिए जान की बाजी लगानी पड़ती है, युद्ध लड़ना पड़ता है।
लेकिन यह भी कमाल है कि कहीं से लोगों का जज्बा कम होता नहीं दिखता और शायद इसीलिए उन्होंने मुंबई की लोकल को एक गतिशील और जीवित चरित्र बना दिया है, जो एक अर्थ में सवारी है तो दूसरे अर्थों में यात्री भी। इन कविताओं से होकर गुजरने के बाद अर्थ के और भी नए-नए आयाम खुलते हैं। मुंबई की लोकल के भीतर के जीवन को भारतीय समाज, संस्कृति, राजनीति तथा अर्थव्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में देखना चुनौतीपूर्ण है।
मुंबई की यह लोकल तेजी से बदल रहे समाज की न सिर्फ साक्षी बनकर हमारे सामने आती है वरन बदलाव के बीच के समय को समझने में मदद करती है। कविता पढ़ते हुए लगता है कि हम सिर्फ 'मुंबई की लोकल' को ही नहीं, बल्कि मुंबई को देख रहे हैं और दुनिया को भी।
लेखक- निलय उपाध्याय।
लेखक परिचय- हिन्दी के चर्चित युवा कवि एवं समीक्षक, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित कविताएं व लेख-समीक्षाएं प्रकाशित। अनेक मानद सम्मानों से सम्मानित।
पुस्तक मूल्य : 325/-
पृष्ठ संख्या - 128।