Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

दबी हुई आवाजों की कहानियां- 'फुगाटी का जूता'

हमें फॉलो करें दबी हुई आवाजों की कहानियां- 'फुगाटी का जूता'
, बुधवार, 24 अक्टूबर 2018 (11:20 IST)
कहानीकार मनीष वैद्य के कहानी संग्रह 'फुगाटी का जूता' को मप्र हिंदी साहित्य सम्मलेन का वागीश्वरी सम्मान तथा शब्द छाप सम्मान प्रदान किया गया है। पढ़िए समीक्षा।
 
- गोविन्द सेन
 
आधुनिक समय का सबसे बड़ा शिकारी बाज़ार है। वह छोटे-मोटे रोजगार ही नहीं, मानवीय संवेदना को भी निगल गया है। उसने कई हुनरमंद लोगों को समय से बाहर कर दिया है। हुनरमंद खुद्दार पात्रों का समय गुजर चुका है। इन्हें भूमंडलीकरण और तथाकथित विकास के अंधड़ ने निर्ममता से किनारे कर दिया गया है। यह विघटित होते जीवन-मूल्यों का समय है। यह स्वार्थी, हिंसक, लालची, निर्मम और शोषकों का समय है। यह समय हुनर, मेहनत और खुद्दारी का कतई नहीं है। यह समय प्रेम, भाईचारे और समानता का भी नहीं है।
 
 
यह अनायास नहीं कि आजकल कहानी से कथारस की मांग लगातार बढ़ती जा रही है। शायद यह इसलिए भी हुआ कि कला के दूसरे माध्यम अत्यधिक रोचक और दिलकश होते जा रहे हैं, भले ही वे लोकहितकारी हों या नहीं। कहानी के कन्धों पर कथारस के अलावा सामाजिक सरोकारों की जिम्मेदारी भी होती है। कहानी को समय के सच को संवेदना के साथ दर्ज करना होता है। कहानी को अपने समय की पड़ताल करते हुए मानव मन की गहराई में उतरना होता है। नई पीढ़ी के प्रखर कथाकार मनीष वैद्य के दूसरे कहानी संग्रह 'फुगाटी का जूता' की कहानियां से गुजरते हुए यह लगा कि उन्होंने इन सब चुनौतियों से जूझते हुए कहानीकार के तौर पर अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज की है। 'फुगाटी का जूता' में कुल 15 कहानियां संगृहीत हैं।
 
 
संग्रह की पहली कहानी 'घड़ीसाज' एक खुद्दार हुनरमंद घड़ी के कारीगर की कहानी है। मोबाइल और लेपटॉप ने घड़ी की उपयोगिता समाप्त कर दी है। ऐसी दशा में घड़ीसाज भी कैसे जिन्दा रह सकता हैं? अपने समय को सहेजकर रखने की उसकी सारी कोशिशें बेकार हो गई हैं। एक दिन दुकान मालिक ने उसके सामान को सड़क पर फेंक दिया। वहां दुकान मालिक का चमचमाता शोरूम खुल जाता है। एक रात वह बेआबरू घड़ीसाज सदमे में चल बसा। उसके साथ ही उसका समय और उसकी घड़ियां भी चली गईं।
 
 
यह केवल एक घड़ीसाज की नहीं, बल्कि ऐसे हुनरमंद बूढ़े कमज़ोर कारीगरों के ख़त्म होने और मरने की पीड़ादायी प्रतिनिधि कथा है जो मौजूदा तरक्की को प्रश्नांकित करती है। मोबाइल घड़ीसाज को खा गए, रेडीमेड जूते मोची को खा गए और रेडीमेड कपड़े दर्जी को खा गए. कहानी 'अब्दुल मजीद की मिट्टी' में मनीष जी ने अस्सी साल के एक हुनरमंद दर्जी की टूटन को बहुत शिद्दत से उकेरा है। अब्दुल मजीद अपने समय के कुशल रफूगर रहे हैं, पर मौजूदा समय को रफू नहीं कर पाते। अब वक्त का छेद इतना बड़ा हो गया है कि रफू के लायक भी नहीं बचा है। उनकी दुकान हिन्दू इलाके में नहीं रहने दी जाती। उनके बेटे पर जिहादियों से जुड़ने का आरोप लगा पुलिस पकड़ लेती है। अंत में वे एक ऐसे अंधेरे में खो गए, जहां से उनका लौटना नामुमकिन है।
 
 
कहानी 'फुगाटी का जूता' का फलक बहुत बड़ा है। कहानी बहुअर्थी है। वैश्विक स्तर पर चल रहे शोषण के पूरे तंत्र को यहां बखूबी उजागर किया गया है। यह तंत्र कालू मोची से लेकर फुगाटी के जूते तक फैला है। कालू मोची के लड़के भी अब जूते बनाते नहीं, जूते बेचते हैं। हुनर की अब कोई कीमत नहीं। फायदा ही सब कुछ है। कालू मोची, सरूप या कथा नायक जैसे लोग समय की इस बहुत तेज रफ़्तार में कहीं बहुत पीछे छूट गए हैं। ये आज की तेज रफ़्तार में बिलकुल अवांछित और किनारे कर दिए गए लोग हैं। इनके हाथ से सब कुछ छीना जा चुका है। इनके हाथ से सब कुछ निकल चुका है और वे लाचार हैं। वे उस समय को लौटा नहीं सकते। बाज़ार घर तक आने ही वाला है। बाज़ार और घर की दूरी लगातार कम हो रही है। यह आज के दौर का डरावना सच है। कालू के हुनर की कोई कीमत नहीं, गोया उसके हाथ काट दिए गए हों। वह अब वैसा जूता नहीं बना पाएगा। उसके दाहिने हाथ को फाजिल हो गया है। अब उसके हाथ में कोई हरकत नहीं बची।
 
 
कथाकार यहां यह कहना चाहता है कि कालू को जितना निचोड़ना था, उतना उसे गन्ने की तरह निचोड़ा जा चुका है। फुगाटी के जूते का आधार उसका हुनर ही है। कालू जैसे गरीब कारीगर के हुनर और दुनिया के सबसे दौलतमंद और ताकतवर बादशाह के किस्से के जरिए एक विराट मिथक को कहानीकार ने गढ़ा है और उसे नया अर्थ दिया है, जिससे शोषण का पूरा तंत्र आभासित हो उठा है। बादशाह ने खूबसूरत इमारत की तामीर करने वाले हुनरमंद कारीगरों के हाथ इसलिए कटवा दिए थे ताकि ऐसी खूबसूरत तामीर फिर कोई और न कर सके. उस तामीर पर उसी का आधिपत्य रहे। वह इस तामीर को ब्रांड बनाकर दुनिया को मुंहमागे दामों में बेच सके। कितना वीभत्स खेल है यह। इस खेल को बहुत ही कुशलता से यहां आपने उजागर किया गया है। कारीगरों के हाथ तो आज भी काटे जा रहे हैं। बस तकनीक बदल गई है। मशीनें कई मजदूरों का काम करने लगी। फैक्ट्री का मालिक अपने फायदे के लिए मजदूरों को बाहर कर देता है। उन्हीं मजदूरों को जिन्होंने अपने खून-पसीने से फैक्ट्री की साख बनाई. सरूप जैसे लोग एक झटके में बेकार हो गए। दूसरी ओर मन्नू जैसे युवकों की मेहनत और प्रतिभा का लाभ मल्टीनेशनल कम्पनियां उठा रही हैं। देश से प्रतिभा पलायन कर रही है।
 
 
एक ज़माने में गांधी दर्शन आदर्श हुआ करता था-सादा जीवन, उच्च विचार। ईमानदारी, कम से कम में काम चलाना, अपनी ज़रूरतें कम रखना और हाथ के हुनर को महत्त्व देना। बाज़ार की तेज रफ़्तार या समय के अंधड़ ने सब उलट-पुलट कर रख दिया है। यह कृत्रिम अंधड़ पूंजीपतियों के बेतहाशा लालच और लोभ ने पैदा किया है। अब आदर्श है-ज्यादा से ज़्यादा कमाओ, ज़्यादा से ज़्यादा दिखाओ और बिना सोचे-समझे अनाप-शनाप खर्च करो। उसका फायदा उठा रही है, वह कंपनी जो कुछ भी बनाती नहीं, सिर्फ अपने ब्रांड का टैग लगा कर दस गुना मुनाफा कमाती है। यह एक चक्र बन गया है जिससे निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझता। भारत का बना जूता और भारतवंशी को ही दस गुना दाम पर बेच देना-यह तो अपना ही सर, अपना ही जूता वाली बात हुई और जूता खाने वाले को कोई अफ़सोस भी नहीं। तीन हजार का जूता तीस हजार में खरीदने का कहीं कोई रंज नहीं। इससे बड़ा हुनर क्या होगा कि जूता आपको ही पहन ले। आपका ही जूता है और आपको ही मारा जा रहा है और आप उफ़ तक न करें। सचमुच इससे बड़ा अपमान और इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है। 'फुगाटी का जूता' को मनीष जी ने बहुत कुशलता से बुना है। कथानायक, कालू मोची, सरूप, मन्नू सभी पात्र कहानी में भलीभांति गुंथे गए हैं। संवाद सार्थक और सटीक हैं। यह कहानी एक साथ आगाह भी करती है और डराती भी है।
 
 
गांव अब पहले जैसे नहीं रह गए हैं। जमीन-जायदाद के लालच ने रिश्तों-नातों का सहज प्रेम हवा हो गया है। उसके स्थान पर छल-कपट प्रतिष्ठित हो गया है। 'कागज ही कागज में बोलता है' में रामबख्श एक हारी हुई लड़ाई लड़ते हैं। उनका सगा भतीजा उनकी जमीन को हड़प लेता है। इस दौर गांव में जमीनें आदमी और उनके रिश्तों से बड़ी हो गई है। जमीन के बदले भाई-भाई में खून-खराबा हो जाता है। कहानी 'खोए हुए लोग' में दो भाइयों के परिवारों के बीच जमीन के झगड़े में पांच की जानें जाती हैं और सात अपाहिज हो जाते हैं। यह वाकया गांव के बुजुर्ग गामोठ बा की आंखों के सामने हुआ। बीच- बचाव के दौरान उनको किसी ने धक्का मारा और वे बुखार में चले गए। उसके बाद वे अपने गांव को ही भूल गए। उन्हें पक्का यकीन था कि यह उनका गांव नहीं है। वे जिद करने लगे कि मुझे मेरे गांव ले चलो। कोई भी उन्हें समझा नहीं पा रहा था कि यह उन्हीं का गांव है। वे उठ-उठकर चल देते हैं। परिजनों के लाख जतन के बाद भी अपनी ज़िद नहीं छोड़ते। अंत में रात में गांव से निकल कर ध्रुव तारे की दिशा में बढ़ते हुए अंधेरे में खो जाते हैं शायद अपने उसी गांव की तलाश में। इस कहानी में गहरी रचनात्मकता के साथ गांव के बदलाव को दर्ज किया है। गामोठ बा की मनोदशा और ग्रामीणों के बर्ताव का यहां बहुत सजीव चित्रण हुआ है।
 
webdunia
तमाम प्रगतिशीलता के बावजूद स्त्री का शोषण अभी भी रुका नहीं है। उसे हर स्तर पर दबाया जाता है। उसे अवश, लाचार और निर्बल करने की साजिश लगातार जारी है। उसके चरित्र पर लांछन लगाकर या उसे डायन घोषित कर उसे मारने और मजबूर करने के निर्मम हथकंडे बदस्तूर जारी हैं। '...कि हरदौल आते हैं 'और' सुगनी'कहानियां स्त्रियों की पीड़ा को बखूबी उकेरती हैं।'...कि हरदौल आते हैं' में कथानायक द्वारा बुंदेलखंड से ससुराल मालवा आने वाली अपनी मामी के दुःख को हरदौल की लोककथा से जोड़कर भारतीय औरत की नियति को पूरी मार्मिकता से उकेरा गया है। नानी तीन बेटियों को जन्म देने और मामा की मौत का सारा दोष निर्दोष मामी पर मढ़ती है, उसे बज्जात और कुलच्छिनी कहती है।
 
 
'सुगनी' में कड़ली डोकरी की द्रवित कर देने वाली कथा है। कड़ली डोकरी एक बहू के रूप गांव में आती है। उसका पति असमय मर जाता है। उसके पति के मरने के बाद उसे हर तरह से बर्बाद कर गांव छोड़ने पर मजबूर किया जाता है। पर अपनी जिजीविषा के बल पर वह गांव नहीं छोड़ती। पटेल छल से उसका जमीन का गट्टा हड़प लेता है। लोग उसकी देह पर राल टपकाते हैं। गांव में सब मानते थे कि डोकरी डायन है। उसके पास से सब कुछ छीन लिया जाता है। बस उसके पांवों में चांदी की कड़ियां ही बची रह जाती है। एक दिन कुंए में उसकी पांवकटी लाश मिलती है। पुलिस कुतिया से गुनाहगार की तलाश करवाती है। उसमें सूंघकर गुनाहगार तक पहुंचने की काबिलियत है। इसी कारण ग्रामीण उसे सुगनी कहते हैं। गांव का पटेल, गोपी महाराज, कंट्रोल वाला आदि सुगनी से मन ही मन डरते हैं कि सुगनी कहीं उनके गुनाह न उजागर कर दे। तीन युवक पकड़े जाते हैं, जिन्होंने पांव से कड़ियां न निकलने के कारण कड़ली डोकरी के पांव ही काट दिए थे। कहानी में पूरी तरह यह ध्वनित हो जाता है कि निर्दोष कड़ली डोकरी का हत्यारा पूरा गांव है।
 
 
'उज्जड़' कहानी बंगले में रहने वाले गुप्ता जी की कहानी है, जो बस्ती वालों से बात करना भी पसंद नहीं करते। उन्हें उन उज्जड गंवारों से चिढ़ थी। बस्ती का एक छोटे बाल वाला काला-कलूटा आदमी तो उनकी आंखों में बुरी तरह खटकता था। वह उन्हें नमस्कार भी नहीं करता था। वह उन्हें सबसे बड़ा उज्जड़ लगता था। एक दिन उनके बंगले में सोफे के नीचे एक सांप घुस जाता है। उन्होंने लाख कोशिश की, पर कोई सांप पकड़ने वाला नहीं मिला। उनकी पत्नी और बेटी बुरी तरह डरे हुए थे। जब उस उज्जड़ को पता लगता है तो वह बिना किसी झिझक और अपेक्षा के सांप को आसानी से पकड़ कर बाहर कर देता है। यह कहानी छोटी, पर बहुत सशक्त है। यहां गुप्ता जी जैसे उच्च मध्यम वर्ग की टुच्ची और पोली मानसिकता का पर्दाफाश किया गया है। इस घटना से बस्ती में रहने वाले गरीब-मेहनतकश लोगों  के उज्ज्वल चरित्र का सहसा आभास हो जाता है, जो बिना किसी स्वार्थ के उच्च वर्ग के संकट को दूर करने से गुरेज नहीं करते। कहानी की अंतिम पंक्ति-' शायद उनके भीतर का सांप भी रेंगते हुए बाहर निकल रहा है' बहुत कुछ कहती है।
 
 
'डेमोकिरेसी... डेमोकिरेसी' 'ढोल' 'खैरात' और 'मालगाड़ी पर सवार हम' कहानियां कमोबेश जनतंत्र की विसंगतियों को बेपर्दा कर ज़रूरी सवाल उठाती हैं। ये कहानियां गरीब, दलित और वंचितों की दबी हुई आवाज को दर्ज करती है। 'डेमोकिरेसी...डेमोकिरेसी' लोकतंत्र की मौजूदा हालत पर गहरा तंज कसती है। आदिवासी इलाके का जायजा लेने आए प्रधानमंत्री को आदिवासी कथानायक हरिया क्षेत्र की सही-सही स्थिति बताने के लिए भीड़ को चीरते हुए आगे बढ़ता है, पर उसे बीच में ही दबोच लिया जाता है। वह केवल 'डेमोकिरेसी... डेमोकिरेसी' चिल्लाता रह जाता है। 'ढोल' कहानी में तानाशाह के प्रति प्रतिरोध को फैंटेसी में गुंथा गया है। यह भी ध्वनित होता है कि कोई भी अधिक समय तक सर्वहारा की आवाज को दबा नहीं सकता। 'खैरात' में दलितों के संघर्ष को दर्ज किया गया है। नई पीढ़ी शोषण को सहने को तैयार नहीं है। 'मालगाड़ी पर सवार' में संतोष जैसे लोग रेलवे फाटक पर ओवरब्रिज का सपना देखते हैं, पर बीस साल बाद भी ओवरब्रिज नहीं बनता। सपना दिखाने वाला उन्हीं के बीच से उभरा नेता राधू सफलता की सीढियां चढ़ते-चढ़ते मंत्री तक बन जाता है।
 
 
'बिल्लौरी आंखों वाली लड़की' और 'हरसिंगार-सी लड़की' मानव मन के कोमल रेशों से बुनी हुई कहानियां हैं। 'बिल्लौरी आंखों वाली लड़की' में शहीद मिस्टर एक्का को तेईस साल बाद भी जिन्दा मानती है। चिट्ठियों में वह उसे जिन्दा रखती है। मिसेज एक्का मिस्टर एक्का की तरफ से खुद को ही चिट्ठी लिखती रहती है। 'हरसिंगार-सी लड़की' किशोर मन के आकर्षण की सहज कहानी है। कहानी 'आदम जात' बंटवारे के समय अपनी जान बचाकर भागने वाले किशोर की पीड़ादायक कथा है। वह अपने परिवार को तो पा लेता है, पर अपनी दोस्त शीनू को खो देता है। शीनू और उसके परिवार का दुखद अंत उसे जीवन उत्तरार्ध में भी मर्मान्तक पीड़ा से भर देता है।
 
 
मनीष जी सधे हाथों से कहानियां लिखते हैं। वे इनमें कोई झोल नहीं आने देते। कसाव अंत तक बनाए रखते हैं। किस्सागोई के प्रवाह में सामाजिक सरोकारों की डोर नहीं छोड़ते। इन दृष्टिसम्पन्न कहानियों का फलक बड़ा है। इनमें किशोर-युवा, अधेड़-बूढ़े, स्त्री-पुरुष और हिन्दू-मुस्लिम-इसाई हर तरह के विविधवर्णी पात्र पूरी सजीवता के साथ मौजूद हैं। ये पात्र आसपास के देखे-सुने पात्र लगते हैं। मनीष जी के इन पात्रों के मनोभावों को गहराई से चित्रित करते हैं।
 
 
इन कहानियों में आंचलिकता का अकूत सौन्दर्य मौजूद है। इनमें मालव माटी की चिर-परिचित गंध है। आंचलिकता की एक सबल धारा इन कहानियों में प्रवाहित हो रही है, जिससे ये कहानियां अधिक मर्मस्पर्शी, सजीव और विश्वसनीय बन गई हैं। गांव की कहानियों में मनीष जी की गहरी संलग्नता दिखाई देती है। इन कहानियों में समकालीन समय की सामाजिक, राजनीतिक और पारिवारिक विसंगतियों को बखूबी उकेरा गया है। संग्रह का आवरण आकर्षक और अर्थपूर्ण है।
 
 
कहानी संग्रह— 'फुगाटी का जूता'
लेखक-मनीष वैद्य
प्रकाशक-बोधि प्रकाशन
सी-42, सुदर्शनपुरा, इंडस्ट्रियल एरिया एक्सटेंशन
नाला रोड, 22 गोदाम, जयपुर-302006
मूल्य-120 रुपए

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

दरवाजों से हटी ये सांकलें, अब सम्बंधों के बीच पड़ी है...