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जश्न मनाती कविताएं- कैंसर के राग का

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स्वरांगी साने

बाबू मोशाय जिंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं…। आनंद फिल्म के इस संवाद पर कितनी बार तालियां बजाईं, कितनी बार खिलखिलाएं, याद नहीं। कैंसर से डरकर नहीं, लड़कर जीना… यही बता रही थी न फिल्म। फिल्म तो फिल्म होती है, सब झूठ। उसमें किरदार होते हैं, जो अभिनय करते हैं, मतलब जो नहीं है, वैसा दिखाने की कोशिश।
पर क्या हो, रंगमंच के किसी कलाकार के साथ असली जिंदगी में ही ऐसा कुछ हो जाए, क्या वह भी तब हंस सकेगा, गा सकेगा… कह सकेगा कि लड़कर जीना। सामर्थ्य शब्द को अंग्रेजी में अनूदित करो तो CAN, उसे आसान करो तो समरथ… गोया इसी आसानी से कैंसर को आसान कर लिया विभा रानी ने। मुखौटे के पीछे भी चेहरे को हंसता रखने का जैसे हुनर ही सीख लिया है उन्होंने। वे संजीदा अभिनेत्री हैं, मैथली की लेखक, नाट्य लेखक, फिल्म, थिएटर और लोक कलाकार हैं। जैसे उन्हें और कई हुनर आते हैं, वैसे ही एक हुनर आता है कैंसर से हार न मानकर उसे मात देने का।
 
वे अवितोको रूम थिएटर की प्रणेता हैं और अवितोको बुक्स से ही हालिया उनकी एक किताब आई है, ‘समरथ- CAN’, यह द्विभाषी कविता संग्रह है। इस किताब की उनकी हिन्दी कविताओं का अनुवाद निगहत गांधी, स्वप्निल दीक्षित और वत्सला श्रीवास्तव ने किया है। कविताओं में वह कविताई है जिसकी तलाश इन दिनों की कविताओं में बेहद गुम होते तत्व की तरह की जाती है। 
 
कविता बनने की प्रक्रिया में सारी बातें उनके मन में कितनी गहरी उतरी होंगी और कितनी सरलता से वे कागज पर आईं, यह वाकई बहुत उम्दा बात है। किसी बात की गांठ मन में घर कर जाना… और उसके ठीक उल्टे यदि शरीर पर कोई गांठ निकल आए तो उसे ‘सेलेब्रेटिंग कैंसर’ का नाम दे देना, उतना भी आसान नहीं। विभा ने यह किताब उन सभी को समर्पित की है ‘जिन्होंने कैंसर को कैंसर मानने से इंकार किया और जीवन को जीने का हर भरोसा और मौका दिया’। 
 
विभा को जानने वाले यह भी जानते हैं कि इसे विभा ने केवल कथनी में नहीं, करनी में उतारा है। आज यहां, कल वहां… उनके नाटकों की प्रस्तुतियां होती हैं, मुंबई की भागदौड़भरी जिंदगी, नौकरी और घर… भी वैसे ही साथ-साथ चलता है, जैसे किसी और आम महिला के। जिंदगी फिर न मिलेगी दुबारा में वे यकीन करती हुई-सी लिख रही हैं, पढ़ रही हैं। इस किताब की बिक्री से होने वाली राशि का उपयोग भी कैंसर मरीजों के इलाज के लिए किया जाने वाला है।
 
विधा सौम्या के रेखांकन और डिजाइन से सजी यह किताब आपके लिए वह काम करती है जिससे आप पन्ने पलटने को मजबूर तो होते ही हैं। विभा के प्रति गहरी आत्मीयता और विश्वास उन पन्नों में क्या लिखा है, यह पढ़ने की उत्सुकता भी जगाता है… और वही असली ताकत भी है, जो इस किताब में लिखा है। कैंसर से जूझने वाले और उनके परिवारजनों पर क्या बीतती है, उसका सामना वे कैसे करते हैं, कैंसर हो जाने की बात को स्वीकारना, उसे झूठलाना, फिर नियति मान स्वीकार लेना लेकिन वहीं न रुक कैंसर को हरा देना… यह उस जिजीविषा की कविताएं हैं। 
 
अनुक्रमणिका तो कहती हैं कि इसमें ढेर कविताएं हैं, पन्ने भी 180 के आसपास हैं, लेकिन छोटी-छोटी कविताओं में वह सरसता है कि कहीं भी बोझिल नहीं होने देती। अंडरटोन आपके भीतर यह भी चलता है कि इन कविताओं को लिखते हुए वे कितनी बोझिल हुई होंगी, कितनी थकी होंगी… लेकिन कहीं भी कोई भी कविता आपसे दया की दरकार नहीं करती, वह तो इसे भी जीवन के उत्सव की तरह मानती हैं। 
 
कुछ पंक्तियां देखिए- ‘उम्र नींबू सी पीली पड़ती-पड़ती, हो गई खट्ट चूक’ या ‘देह के वितान पर भर-भर मन’। जब ‘केमो का पोर्ट’ और ‘केमो का बेड’ है तो ‘कैंसर के घर में गृहस्थी है’, वही खुशी का घर है, किसी कविता में कैंसर, ‘कैंसू डार्लिंग, किस्सू डियर’ है। एक सत्य भी है कि ‘आंखों में बैठ जाता है सूखे कांटे-सा कैंसर’! पर अगले ही पल ‘पॉप कॉर्न सा’ हो जाता है। 
 
‘गांठ’ कविता तो कैंसर की गांठ को ‘हल्दी की गांठ’ से जोड़ गई है, ‘शगुन के पीले चावल, उठाओ गीत कोई’। अगली कविता में यह गांठ ‘मनके’ की आ जाती है और ‘आंखों की नदी/ की लहरों की ताल पर/ गाने लगती है हैया हो… हैया’। फिर किसी कविता में यह ‘छोले, राजमा, चने सी गांठ’ है। बड़ी जिंदादिल हैं ये कविताएं जो गांठों को यूं नाम-उपनाम देकर ठिठौली कर लेती है। 
 
उत्सव, उत्सव कहने से तो उत्सव होता नहीं, उसे मानना और मनाना पड़ता है। कुछ ऐसी ही हैं ये कविताएं, जो हर काली छाया में एक उम्मीद की किरण ढूंढ लेती है। यह जश्न मनाती कविताएं हैं। जैसे कि वे कहती हैं, ‘जश्न कैंसर के राग का, केमो के फाग का’।

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