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अच्छा बनने के मंत्र सिखाती पुस्तक

द डिफिकल्टी ऑफ बिइंग गुड

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यदि कोई आपसे यह पूछे कि उसे अच्छा क्यों बनना चाहिए? तो दर्जनों तर्क सुनाने के बजाय आपको चाहिए कि बजाय उसे कहें कि वह मैनेजमेंट गुरु गुरुचरण दास की नई पुस्तक 'द डिफिकल्टी ऑफ बिइंग गुड' को एक बार पढ़ लें, उसे अपने सवाल का सही और सामयिक जवाब मिल जाएगा। आज जिस तरह से इंसान पग-पग पर तरह-तरह के इम्तिहानों से गुजरता है और इस दौरान उसके सामने कई ऐसे प्रश्न खड़े हो जाते हैं जिनके उत्तर खोजने में उसकी हालत वही हो जाती है जो महाभारत में अपने सामने खड़े कौरव बंधुओं को देखकर अर्जुन की हुई थी।

अर्जुन को जो राह गीता के माध्यम से भगवान कृष्ण ने दिखाई थी, इम्तिहानों से गुजरते हुए जिंदगी को सफलतापूर्वक जीने की राह दिखाने में यह पुस्तक एक हद तक सफल है। ऐसे में बरबस शेक्सपियर का वह जुमला याद आता है कि नाम में क्या रखा है। यदि आप भीष्म न होकर भागचंद हो या युधिष्ठिर न होकर यशोवर्द्धन हो। भले ही आज हमारे बीच अर्जुन, द्रौपदी, दुर्योधन, कर्ण, अश्वत्थामा या कृष्ण न हों लेकिन आज भी जीवन के कुरूक्षेत्र में हर दिन, हर पल कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में महाभारत चलता रहता है। दरअसल हमारे जीवन की जंग और कुछ नहीं महाभारत ही तो है।

गुरुचरण दास ने आधुनिक दुनिया में रहते हुए या यूँ कहिए कि जीते हुए पुरातन महाग्रंथ महाभारत को 'द डिफिकल्टी ऑफ बिइंग गुड' में जीवंत कर दिया है याद कीजिए महाभारत के पश्चात युधिष्ठिर का पश्चाताप, क्या यह आपको लोकतंत्र की बुनियाद को लेकर राहुल गाँधी के अनुताप जैसा नहीं लगता है? अंबानी भाइयों के बीच जारी जंग क्या कौरव-पांडव की लड़ाई की याद नहीं दिलाती है और रामलिंगम राजू का सत्यम घोटाला क्या अपने पुत्रों के प्रति धृतराष्ट्र के अंधे प्रेम का पर्याय नहीं लगता? महाभारत में जितने दृष्टांत हैं, गुरुचरण दास के इस आधुनिक महाभारत - द डिफिकल्टी ऑफ बिइंग गुड में भी कई किस्से हैं। इनमें से कुछ पाठकों के लिए खुद मैनेजमेट गुरु ने प्रस्तुत किए हैं-

'महाभारत के साथ लगातार छः वर्ष के सान्निध्य के बाद मैंने यह सीखा है कि यह हमें बताता है कि हम अपने आपको लेकर कितने अनिर्णायक हैं और एक-दूसरे के प्रति कितने झूठे हैं, इंसान होने की हमें क्या कीमत चुकानी पड़ रही है और हमें दबाया और कुचला जा रहा है और अपनी दैनिक जिंदगी में हम कितने नाजायज हैं। हमारी इस हालत के कई कारणों में से एक यह भी है कि हमारी सरकार हमारे साथ किस तरह से पेश आ रही है और क्या हम अपने संस्थानों को फिर से नई शक्ल देकर एक अधिक उत्तरदायी सरकार का गठन कर सकते हैं?

मैंने इन प्रश्नों के उत्तर महाभारत में वर्णित धर्म की दुर्ग्राह्य अवधारणा में खोजे हैं और हम किस तरह से जिएँ इस बारे में मेरी खुद की खोज में यह पुस्तक एक प्रेरक बल का काम करती है। वैसे तो दुर्योधन में कई दोष थे, लेकिन उसका सबसे बड़ा दोष उसकी ईर्ष्या थी। वह पांडवों को सफल होते नहीं देख सकता था और उसकी ईर्ष्या ने ही महाभारत को जन्म दिया था।

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जब मैं शिमला में अपने बचपन से गुजर रहा था, मेरी माँ भी यही चाहती थी कि वह शिमला के फैशनेबल समाज का एक हिस्सा बने। उन्हें उन महिलाओं से खासी ईर्ष्या थी जो ग्लैमरस अमेच्यो ड्रामेटिक क्लब 'द क्लब' की सदस्य थीं। शायद उनकी यही ईर्ष्या दूध बनकर मेरे खून में रच-बस गई होगी। मैं भी समाज में अपनी हैसियत को लेकर बड़ा हुआ और अपने आपकी तुलना उन लोगों से किया करता था जो मुझसे अधिक संपन्न थे, बेशक मुझे उन नौजवानों से ईर्ष्या होती थी जो खूबसूरत हसीनाओं के लिए आकर्षण का केन्द्र थे। खासकर मुझे वे लोग रास नहीं आते थे जो स्कूल क्रिकेट टीम में जगह पा गए थे।'

'पश्चाताप और राहुल गाँधी'
जब महाभारत समाप्त होने को था, यह स्पष्ट हो गया था कि महाभारत का विषय युद्ध नहीं बल्कि शांति थी। हम कुरुक्षेत्र में घटी घटनाओं से इतने अभिभूत हो गए कि इसे युद्ध की पुस्तक का दर्जा दे दिया और यह भूल गए कि जिस युद्ध ने पांडवों को खुशी मनाने का अवसर दिया था उसी युद्ध के बाद हस्तिनापुर में कौरवों की विधवाओं ने इतने आँसू बहाए कि इसे आँसू स्नान की संज्ञा दी गई। युधिष्ठिर के पास खोखली जीत के अलावा और कुछ नहीं था।

युद्ध के समय मानवता भूलने वाले युधिष्ठिर को युद्ध के बाद मानवता याद आई और उसने पश्चाताप किया। धर्मपुत्र युधिष्ठिर उनके लिए एक अपमानजनक विशेषण बन गया था। जबकि अर्जुन एक वीर योद्धा था। पश्चातापी युधिष्ठिर को कमजोर तथा निर्णय लेने में अक्षम माना जाता था। उसका पश्चाताप आज के सामयिक समाज की कहानी कहता है। दिसंबर 2007 में जब पाकिस्तान में प्रधानमंत्री पद की प्रत्याशी बेनजीर भुट्टो की हत्या हुई, भारत में पश्चाताप की एक घटना ने मुझे हिला दिया।

सभी को दुःख था, यहाँ तक कि कुछ लोगों ने इस घटना पर दुःख व्यक्त भी किया लेकिन किसी ने पश्चाताप नहीं किया। जब मैंने अपने एक कॉलम में पाकिस्तान में पश्चाताप की कमी का जिक्र किया, राहुल गाँधी ने मुझे एक ई-मेल भेजा जिसे मैं यहाँ उद्धृत करना उचित समझता हूँ। उन्होंने लोकतंत्र को पश्चाताप से जोड़ दिया।

उन्होंने लिखा था कि पश्चाताप तब होता है जब आप साथी इंसान की पीड़ा को उस सीमा तक समझने के लायक होते हैं, जहाँ वह पीड़ा खुद आपकी बन जाती है। मानव पीड़ा को गहराई से महसूस करने के लिए आपको आंतरिक रूप से यह स्वीकार करना होगा कि सभी मानव एक समान हैं और आप उन्हें बतौर इंसान देखें न कि एक किसी खास समूह का मानें। एक बार आप इसे मान लेते हैं। लोकतंत्र ही एक प्रणाली है जिस पर आप विश्वास कर सकते हैं।'

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