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अभिवंचितों का शिक्षाधिकार

पुस्तक समीक्षा

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संजीव ठाकु
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अभिवंचितों की शिक्षा की चिंता से उपजी विजय प्रकाश और शैलेंद्र कुमार श्रीवास्तव की किताब 'अभिवंचितों का शिक्षाधिकार' जहाँ हाशिए पर पड़े दलित बच्चों को शिक्षित करने की एक कोशिश के रूप में हमारे सामने आती है, वहीं पृष्ठ दर पृष्ठ आँकड़ों के कारण सरकारी रिपोर्ट होने का अहसास भी कराती है।

इन भारी-भरकम आँकड़ों के आधार पर जो बात लेखकद्वय कहना चाहते हैं, उसे बहुत सीधे और सरल तरीके से भी कहा जा सकता था। सच तो यह है कि इतनी मशक्कत करने के बाद लेखकद्वय वही बात कह पाए हैं जो आमतौर पर लोग जानते हैं।

दलितों और कुल मिलाकर गरीबों के बच्चे स्कूल क्यों नहीं जा पाते इसकी पड़ताल करते हुए जो बातें कही गई हैं वे किसी से छुपी हुई नहीं हैं। घर के काम-काज और खेती मजदूरी में लगे रहना, कपड़ों और किताबों की कमी, खाने-पीने की समस्या, स्कूलों का उदासीन रवैया आदि ऐसे ही कारण हैं।

बच्चों को इन समस्याओं से निकालने के सरकारी प्रयास भी हुए हैं, जैसे कि शिक्षा निःशुल्क बनाई गई, कहीं-कहीं किताबों की मुफ्त व्यवस्था की गई और दोपहर के भोजन का प्रबंध किया गया। इसके बाद भी बच्चे स्कूल नहीं जाते तो इसके दो प्रमुख कारण हैं- स्कूल और स्कूल मास्टरों का रवैया और दूसरा बच्चों को उत्प्रेरित करने वाले अभिभावकों का अभाव। इन कारणों पर भी इस किताब में बात की गई है।

इसमें शिक्षा को 'सृजनवादी' बनाने की बात की गई है और यह रेखांकित किया गया है कि जिन परिवारों में पढ़े-लिखे लोग मौजूद नहीं हैं, वहां बच्चों को पढ़ाई में समस्या आती है। यह बात सही भी लगती है लेकिन इस किताब में शिक्षा को सृजनवादी और रचनात्मक बनाने की जो बात की गई है वह कोई मौलिक बात नहीं है। देश-विदेश के अनेक शिक्षाशास्त्री इस विचार को अभिव्यक्त कर चुके हैं।

इस किताब की मौलिक बात लगती है 'शबरी आश्रम' की अवधारणा और उसकी गतिविधियाँ। किताब के अनुसार 'शबरी आश्रम' वैसे तो शुष्क स्कूली शिक्षा के विरुद्ध हँसी-खेल में शिक्षा देने का काम करता है लेकिन इसका उद्देश्य स्कूली शिक्षा का विकल्प बनने का नहीं है। इसका उद्देश्य स्कूल न जाने वाले बच्चों में पढ़ाई के प्रति रुचि जगाकर उन्हें स्कूल भेजने का है।

इस तरह 'शबरी आश्रम' स्कूल से भागने वाले बच्चों और स्कूलों के बीच पुल का काम करता है। इसके बारे में कहा भी गया है -'ये आश्रम विद्यालयी शिक्षण के पूरक है, स्वयं नियमित विद्यालय नहीं है।' जिन बच्चों के माता-पिता पढ़े-लिखे नहीं हैं उनके लिए 'होम वर्क' वगैरह में मदद करने का काम भी यह संस्था करती है।

बिहार के दानापुर के निकट जमसौत पंचायत में किया गया शिक्षा का यह प्रयोग बिहार और देश के अन्य पिछड़े इलाकों में भी फैले तो बेहतर हो क्योंकि खेलों, कहानियों, गीतों, चित्रों आदि के जरिए दी जाने वाली यह शिक्षा वास्तव में बच्चों में पढ़ाई के प्रति रुचि जगा सकती है। शबरी आश्रम जैसी स्वयंसेवी संस्थाएँ बच्चों की उन कठिनाइयों को भी दूर कर सकती हैं जो उन्हें स्कूली शिक्षा के दौरान होती है।

दलित बच्चों के स्कूल न जाने का सबसे बड़ा कारण तो आर्थिक ही है। इस किताब में इस बात की तरफ भी इशारा किया गया है कि भले ही शिक्षा के लिए स्कूलों में कोई फीस नहीं लगती हो लेकिन समय-समय पर की जाने वाली चंदों की माँगें भी बच्चों को भारी पड़ती है। किताब-कापियां खरीदने में भी बच्चों के अभिभावकों को कठिनाई आती है। इन कठिनाइयों को भी दूर करने की जरूरत है।

इस किताब को पढ़ते हुए इसमें दिए गए आँकड़े जैसे भयभीत करते हैं, वैसे ही भयभीत करती है इसकी भाषा। लगता है कि इस किताब को अंग्रेजी में लिखकर हिंदी में अनूदित कर दिया गया है या अंग्रेजी में सोचकर हिंदी में लिखा गया है। सृजनात्मक शिक्षा की वकालत करने वाली किताब की भाषा को कुछ तो सृजनात्मक होना चाहिए।

पुस्तक : अभिवंचितों का शिक्षाधिकार
लेखक: विजय प्रकाश और शैलेन्द्र कुमार श्रीवास्तव
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
मूल्य : 350 रुपए

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