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अमृता-इमरोज : रिश्तों की सुनहरी धूप

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- महेंद्र तिवार
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'अमृता-इमरोज' में छिपे शब्द सागर की गहराई नापें, उससे पहले इसके परिचय का फलक निहारना जरूरी है। यह कहानी है दर्द में डूबे प्रेम के ऐसे प्रवाह की, जो सामाजिक अवरोधों से अप्रभावित है। पग-पग पर खड़ी व्यवस्था की चट्‍टानें उसे कभी विचलित नहीं कर पातीं।

यह प्रतिबिंब है एक महिला के संघर्षरूपी आईने का, जिसका हर कोण भावनाओं के अतिरेक से बना है। रिश्तों की ऐसी सहर जो रोशनी के लिए खुशियों के सूरज का इंतजार नहीं करती।

कैसे एक नारी का कोमल मन निर्मल, निश्छल और निरापद होने के बाद भी विरह वेदना सहता है, इसका बेहद मार्मिक चित्रण लेखिका उमा त्रिलोक ने अपनी रचना में किया है।

इसमें साहित्य का सरोवर हिलोरे मारता है, तो जीवन के जुगनू भी अलग-अलग रूप में टिमटिमाते हैं। उन्मुक्तता की अनुगूँज सुनाई पड़ती है, तो हर पंक्ति में पवित्रता के पुष्प महकते हैं। हालाँकि लेखिका ने पूरी कृति प्रेमी युगल की जिंदगी में झाँकते हुए उनसे मुलाकात और मेल-मिलाप के आधार पर तैयार की है, लेकिन कहीं भी ऐसा प्रतीत नहीं होता।

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लगता है मानों हम पात्रों से सीधे संवाद कर रहे हों। दूसरे अर्थों में यह लेखिका द्वारा अपनी ही दुनिया के एक शख्स के प्रति लगाव और समर्पण की अभिव्यंजना है। कैसे अमृता का जादुई व्यक्तित्व लेखिका को उनका मुरीद बनाता है। कैसे वे अमृता से मिलने के लिए बेचैन रहती हैं और किस तरह अपने 'प्रिय' से मिलना उन्हें सुकून देता है, यह काफी दिलचस्प तरीके से दर्शाया गया है।

प्रेम को सतही और मिथ्या समझने वालों को यह पुस्तक पढ़ना ही चाहिए। 27 खंडों में बँटी इस किताब में लेखिका ने शीर्षक के मुताबिक दोनों ही पात्रों को समानता दी है, लेकिन हकीकत में यह अमृता प्रीतम पर ही केंद्रित है। ऐसा नहीं है कि इमरोज का उल्लेख नहीं है, मगर उन्हें आखिरी पन्नों में ज्यादा जगह दी गई है। यहीं उनका असल तवारूफ उमा ने करवाया है।

अमृता के पहले प्यार से जुड़े सवालों का इमरोज जिस गंभीरता, खूबसूरती और नरमी से जवाब देते हैं, उससे पता चलता है कि कला के इस पुजारी का व्यक्तित्व कैसा है। उनकी बातें सुन यकीन नहीं होता कि कोई पुरुष ऐसा भी हो सकता है, जिसे अपने हमनवा की पुरानी जिंदगी को लेकर कोई गिला-शिकवा नहीं है। इमरोज का चरित्र वाकई आदर्श की अनुभूति कराता है।

एक जगह इमरोज का आजादी को लेकर कहना कि 'आजकल आजादी का मतलब केवल कपड़े का रंगीन टुकड़ा है, जो आजाद मुल्क अपनी आजादी को जाहिर करने के लिए झंडे के रूप में फहरा देते हैं या लेखिका द्वारा पेंटिंग प्रदर्शनी नहीं लगाने का कारण पूछने पर कहना -
'कला को दर्शकों की जरूरत नहीं, दर्शकों को कला की जरूरत है।' से साफ होता है कि कैनवास पर कल्पनाओं को साकार करने वाले इस चित्रकार की विचार शक्ति कैसी है।

कहीं-कहीं लेखिका अतिश्योक्ति का शिकार हो गई हैं। प्रेम में पगी कुछ पंक्तियों में यथार्थ की उपेक्षा है। ऐसा लगता है मानो वैयक्तिकता गौण हो गई हो।

पुस्तक में अमृता की अंतिम कविता दिल को छू जाती है - मैं तैनूं फिर मिलांगी कित्थे? किस तरां? पता नईं शायद तेरे तख़ईल दी चिनग बण के...

(मैं तुम्हें फिर मिलूँगी कहाँ, किस तरह, पता नहीं शायद तेरे तख़ईल की चिंगारी बन तेरे कैनवास पर उतरूँगी या तेरे कैनवास पर एक रहस्यमयी लकीर बन खामोश तुझे देखती रहूँगी या फिर सूरज की लौ बनकर तेरे रंगों में घुलूँगी या रंगों की बाँहों में बैठकर तेरे कैनवास को वलूँगी। पता नहीं, कहाँ किस तरह पर तुझे जरूर मिलूँगी)।

फिर भी 'अमृता-इमरोज' के माध्यम से उमा त्रिलोक स्त्री के मनोभाव, प्रेम की परिपूर्णता, रिश्तों की अहमियत, सामाजिक सरोकार और आत्मीयता को समझाने में सफल रही हैं। उनकी कलम में समग्रता के दर्शन होते हैं।

पुस्तक : अमृता-इमरोज
लेखिका : उमा त्रिलोक
प्रकाशक : पेंगुइन बुक्स
मूल्य : 120 रुपए

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