व्यंग्य दैनिक जीवन में होने वाले क्रियाकलापों की अभिव्यक्ति होते हैं। इस बात का अहसास व्यंग्यकार नंदकिशोर बर्वे की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक 'आया किधर वसंत' को पढ़कर सहज ही हो जाता है।
इस पुस्तक में दैनिक क्रियाकलापों का बड़े ही सरल व सरस अंदाज में चित्रण किया गया है।
24 व्यंग्यों से सजे इस संग्रह का पहला व्यंग्य इंदौरवासियों की 'खाऊ' संस्कृति को समर्पित है। इसमें दर्शाया गया है कि किस तरह उसल पोहे-जलेबी से इंदौरी भिया' के दिन की शुरुआत होती है। साबूदाने की खिचड़ी नहीं खाई, तो उपवास ही क्या किया! इसी व्यंग्य में इंदौरी बोली में प्रचलित कुछ 'विशेष' शब्दों की बानगी भी पेश की है।
व्यंग्यकार यह समझाना चाहता है कि इंदौर में प्रचलित शब्दों 'भैया' को 'भिया', 'रहा' को 'रिया' और 'खाऊंगा' को 'खाऊवाँ' कहने में कितना सुकून, आनंद और अपनापन मिलता है। वहीं इंदौर की बदहाल ट्रैफिक व्यवस्था पर भी करारा प्रहार किया गया है। व्यंग्यकार का कहना है कि इंदौर में लोग ट्रैफिक नियमों की धज्जियां उड़ाकर भी ज्यादा 'लोड' नहीं लेते। यदि ट्रैफिक नियमों के अनुसार चलें तो दुर्घटना की संभावना बढ़ जाती है। यही नहीं, कोई पीछे से आ रहा वाहन चालक डपटकर चला जाए, तो कोई आश्चर्य नहीं। व्यंग्यकार ने भारत में अनेकता में एकता का उदाहरण देते हुए बताया है कि इंदौर ही नहीं, देश के सभी शहरों में ट्रैफिक की स्थिति कमोबेश यही है।
एक अन्य व्यंग्य में लेखक ने पुरस्कार के लिए व्यक्ति के चयन की प्रक्रिया पर कड़ा प्रहार किया है। मोबाइल के प्रचलन ने हमारे निजी जीवन में झूठ बोलने के कई नए तरीके ईजाद किए हैं। व्यंग्यकार ने यहां बताना चाहा है कि यदि गांधीजी के समय मोबाइल फोन होते, तो शायद उनकी आत्मकथा पर केंद्रित पुस्तक का नाम 'सत्य' के बजाय 'असत्य के साथ हमारे प्रयोग' होती।
इसी तरह पेंशनरों की व्यथा के मार्मिक विषय को भी व्यंग्यात्मक लहजे में बखूबी उठाया गया है। वहीं 'डाकघर बनाम पुलिस थाना' व्यंग्य में कल्पना की गई है कि आम आदमी यदि थाने में डाक लेने जाए, तो किन परिस्थितियों से उसे गुजरना पड़ सकता है।
'श्रीमतीजी मांगे वीआरएस', 'रेखा से ऊपर, रेखा के नीचे', 'एक उम्मीदवार का ख्याली पुलाव', 'थर्ड मैन का दुःखड़ा' अच्छे व्यंग्य हैं। पुस्तक की भाषा में कहीं-कहीं स्थानीय शब्दों का 'टच' है। कई व्यंग्य कुछ वर्षों पूर्व की तत्कालीन स्थिति का चित्रण करते हैं, जबकि कुछ व्यंग्य वर्तमान समय का चित्रण करते हैं।
इस पुस्तक के शीर्षक व्यंग्य 'आया किधर वसंत' में वातानुकूलित संस्कृति में रहने वालों पर कटाक्ष किया गया है। व्यंग्यकार कहता है कि भौतिक वस्तुओं से घिरे लोग क्या जानें बारिश में मिट्टी की भीनी खुशबू, ठंड की मीठी ठिठुरन। यदि कोई सखी अपनी सहेली को वसंत के आने की सूचना दे, तो वह समझ बैठेगी कि 'वसंत' नाम का कोई नया सीरियल किसी टीवी चैनल पर शुरू होने वाला है!
छोटे-छोटे व्यंग्यों में आम जीवन से जुड़ी कई बड़ी बातें चुटीले अंदाज में कही गई हैं। हालाँकि कुछ व्यंग्यों में विषय छोटा, लेकिन 'डिस्क्रिप्शन' ज्यादा हो गया है। फिर भी यह पुस्तक पाठकों को निश्चित ही पसंद आएगी।