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इसी हवा में अपनी भी दो चार साँस है

समाज की तह में बैठी कविताएँ

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ज्योति चावल
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अष्टभुजा शुक्ल की कविताओं में दो तरह की कविताएँ हैं। एक तरफ वे कविताएँ हैं जहाँ गँवईपन है और दूसरी वे जहाँ वे समकालीन वैश्विक विमर्शों से जुझते हुए दिखते हैं। अपने पहले तीन संग्रहों 'पद-कुपद', 'चैत के बादल', और 'दुःस्वप्न' के बाद यह उनका चौथा संग्रह है 'इसी हवा में अपनी भी दो चार साँस है'। अष्टभुजा की कविताएँ जहाँ सीधे-सीधे गाँव से जुड़ी हुई हैं वहाँ उनमें खेती, किसान, गाय, बैल, बाँस, मक्के के दाने का जिक्र बहुत ही सहज रूप में मिलता है।

जब अष्टभुजा गाँव पर कविता लिखते हैं तब उनमें उनका पूरा व्यक्तित्व ही डूबा हुआ मिलता है। शायद अष्टभुजा हिंदी साहित्य में अकेले ऐसे कवि हैं जो यह कहने की हिम्मत रखते हैं कि 'कागज पर मैं उतना अच्छा नहीं लिख पाता / इसलिए खेत में लिख रहा था।

स्त्रियों के दुख और त्रास अष्टभुजा की कविताओं में खास जगह लेते हैं। अष्टभुजा अपनी कविता में स्त्रियों की एक पूर्ण छवि गढ़ना चाहते हैं। एक ऐसी स्त्री जो किसी पुरुष की मोहताज नहीं हो। उनकी पंक्ति है, 'हर बार / शंख के भीतर से / साबुत निकल आने की कला / दिखाती रही स्त्री / हर बार घोंघे की तरह / सामने मिला पुरुष।' संग्रह में एक बेहतरीन कविता है 'आज की रात'। कविता थोड़ी गद्यात्मक है लेकिन अपने पति के सामने एक गाँव की बेबस स्त्री का दुख तल्ख रूप में सामने आया है।

अष्टभुजा शुक्ल की कविताओं में उन कविताओं का बहुतायत है जो समकालीन विमर्श की हिस्सेदार हैं। आज के बाजारवादी समय में मानसिकता के स्तर पर गुलामी झेल रही आम जनता का दुख उनकी कविता में है। 'अपने खिलौने / हमें उधार पर बेचकर / उन्होंने खरीद लिए, हमारे खेल।' यह कविता प्रतीक में है। यहाँ हमारे खेल से मतलब है हमारी स्वाधीनता, हमारी संस्कृति, हमारा आत्मसम्मान। संग्रह में यूँ तो कई लंबी कविताएँ हैं लेकिन उनकी कविता 'भारत संचार निगम लिमिटेड' बदली हुई अर्थव्यवस्था के बाद की बदली हुई भारत की तस्वीर बहुत ही मार्मिक रूप में पेश करती है।

यह कविता 'पहल' में प्रकाशित हुई थी और अपने प्रकाशन के वक्त भी काफी चर्चित रही थी। यह इस समय की एक विडंबनात्मक कविता है। भारत संचार निगम लिमिटेड अपने कॉल की दर को कम करके यह ऑफर निकालती है कि दस पैसे में एक मिनट तक किन्हीं भी दो लोगों से बात कर सकते हैं।

विडंबना यह है कि 'अपनी-अपनी दुनिया में / बात करने के लिए / दो लोग भी ठीक से नहीं बचे हमारे पास।' यह बदली हुई भारत की तस्वीर पेश करती एक सजीव कविता है, जहाँ हमारे समाज की एक ऐसी सच्चाई है जिसे देखकर हमारा मन आहत होता है।

अष्टभुजा इस समाज की तह में जाते हैं 'अब साथ रहना उतना जरूरी नहीं / जितना कि साथ दिखाई देना जरूरी है / पहले का अनुबंध ही आज की मजबूरी है।' इस बदले हुए समाज के लिए कवि की एक नसीहत भी है। 'अब भी वक्त है कि / अकेलेपन के इस दौर / में ठीक-ठीक दो लोगों को याद कीजिए / जिनसे बातें हो सकें घंटे-आध घंटे ऐसी / कि कल के लिए भी बची रहे कोई नई बात।' अष्टभुजा के इस संग्रह में कई लंबी कविताएँ हैं लेकिन लंबी होने के बाद भी इन कविताओं के शिल्प और भाषा में पठनीयता बरकरार रहती है।

पुस्तक : इसी हवा में अपनी भी दो-चार साँस है
कवि : अष्टभुजा शुक्ल
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
मूल्य : 200 रुपए

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