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ऐतिहासिक भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा

राजकमल प्रकाशन

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पुस्तक के बारे में
भाषाओं का वर्गीकरण करना, भाषा परिवारों की स्वतंत्र पहचान करना, उनका विश्लेषण-विवेचन करना तथा हिन्दी का संस्कृत भाषा के साथ ठीक-ठीक संबंध बताना ऐतिहासिक भाषा विज्ञान का काम है। भाषाओं का तुलनात्मक विवेचन भी ऐतिहासिक भाषा विज्ञान के दायरे में आता है। इसी के कारण भाषा परिवारों को पहचानने का आधार बन पाता है। इस पुस्तक में हिन्दी भाषा मात्र की सामग्री संकलित है किन्तु इस सामग्री के लेखन में भी डॉ. रामविलास शर्मा का ध्यान भारत की समस्त भाषाओं पर रहा है।

पुस्तक के चुनिंदा अं
19वीं सदी में ही ऐतिहासिक भाषा विज्ञान की मान्यताओं और उसकी विश्लेषण पद्धति को अनेक विद्वान चुनौती देने लगे थे। इनमें बोली विज्ञान को लेकर महत्वपूर्ण कार्य हुआ। इस कार्य की विशेषता यह थी कि लिखित भाषाओं और परिनिष्ठित भाषाओं की अपेक्षा व्यवहार में आने वाली शहरों और गाँवों की बोलियों पर ध्यान केन्द्रित किया जाता था। बोलियों के अध्ययन से यह सत्य प्रत्यक्ष हो जाता था कि व्यवहार जगत में बहुसंख्यक बोलियों की प्रधानता है, अल्पसंख्यक लिखित भाषाओं की नहीं।
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संस्कृत और हिन्दी के ध्वनितंत्रों में एक भेद तालव्य 'श' को लेकर है। बाँगरू समेत हिन्दी प्रदेश की सभी बोलियों में दन्त्य सकार का व्यवहार होता है। पूर्वी समुदाय की आर्य भाषाओं में केवल बंगला अपने परिनिष्ठित रूप में तालव्य 'श' का व्यवहार करती है। और इतना करती है कि तत्सम रूपों के दन्त्य सकार को भी वह तालव्य बना देती है। क्या अधिकांश आर्य भाषा क्षेत्र में ध्वनि प्रकृति क्षेत्र संबंधी ऐसा मौलिक परिवर्तन हुआ कि कि तालव्य 'श' का लोप हो गया? या इस संभावना को स्वीकार करें कि आर्य भाषाओं के एक समुदाय में तालव्य'श' का व्यवहार होता ही न था?
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गुरु ग्रंथ साहिब में जो कबीर के पद दिए हुए हैं, उनकी भाषा में कुछ वैसी ही विशेषताएँ हैं जैसी कुतुब शतक की भाषा में है। इनके अध्ययन से हिन्दी के रूपों के विकास को समझने में सहायता मिलेगी। एक पद है -
हरि जसु सुनहिं ना हरि गुन गावहि,
बातन ही असमानु गिरावहि।
इस पद में सबसे पहले जसु, असमानहु जैसे उकारान्त रूपों पर ध्यान देना चाहिए। ऐसे रूप कबीर तथा अन्य संतों की भाषा में काफी है और पंजाब में जो हिन्दी गद्य लिखा गया था, उसमें भी मिलते हैं।
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समीक्षकीय टिप्पणी
यह पुस्तक इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करती है कि रामविलास शर्मा ने भाषा की ऐतिहासिक विकास प्रक्रिया को समझने के लिए प्रचलित मान्यताओं को अस्वीकार किया और अपनी एक अलग पद्धति विकसित की। रामविलास जी में जो भाषा की समझ थी उसे ध्यान में रखकर यदि ऐतिहासिक भाषा विज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान किए जाते तो निश्चय ही कुछ नए निष्कर्ष हासिल होते। रामविलास शर्मा ने विरोध का जोखिम उठाकर भी यह किया, जिसके प्रमाण इस पुस्तक में भी मिल सकते हैं।

पुस्तक : ऐतिहासिक भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा
लेखक : डॉ. रामविलास शर्मा
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
पृष्ठ : 312
मूल्य: 495 रुपए

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