तसलीमा नसरीन की नई पुस्तक औरत का कोई देश नहीं में उनके लिखे सैंतालीस लेख संग्रहीत हैं। औरत की अनाम पीड़ा, उसके जीवन की सुरक्षा और उसके मर्म की पड़ताल करने से सभी लेख अत्यंत विचारोत्तेजक और आंतरिक करुणा से भरे हैं। ये करुणा उन पीड़ितों-शोषितों के स्वर से स्वर मिलाती है जो या तो न्याय की गुहार कर रहे हैं या नितांत चुप हैं। तसलीमा तीखी और तेज भाषा में अपनी बात कहती हैं और उनका झंडा एकदम बुलंद है- पुरुषतंत्र के खिलाफ।
पुस्तक के पहले ही लेख में वे स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों की विश्वव्यापी दृष्टि से ऐतिहासिक पड़ताल करती हैं। यह शुद्ध राजनीतिक दृष्टि है। पश्चिम की उन्नत सभ्यता में भी सालों साल चले आंदोलन के बाद महिलाओं को वोट का अधिकार मिला। स्वाधीनता के बाद भारत में स्त्रियों को अधिकार मिले। हिंदू-कानून में नारी और पुरुष को समान अधिकार मिले पर मुलिस्म कानून में नारी अधिकार पर अब भी प्रश्न चिह्न है। तसलीमा एक डॉक्टर है अतः अपनी मान्यताओं और दलीलों को वे वैज्ञानिक चश्में से भी देखती हैं। नारी की मुक्ति का रास्ता वे धर्म से अलग, नारी अधिकारों और शिक्षा में देखती हैं। नारी देह पर लिखे साहित्य, पुरुषवादी साहित्य को वे एक सिरे से नकार देती हैं।
"सुंदरी" आलेख में वे पूंजीवाद की प्रतीक सौंदर्य प्रतियोगिता और उसके बाजादवाद पर तीखी टिप्पणियां करती हैं। एक अन्य आलेख में वे कोलकाता की शिक्षित महिलाओं का विश्लेषण करती हैं जो आजादी का मतलब नहीं समझती। अपने कई आलेखों में वे स्त्रियों पर हुए शारीरिक अत्याचार को केंद्र बनाकर टिप्पणी करती हैं। अखबारों में छपी विभिन्न खबरों को इनका आधार बताती हैं। कर्मठ और जागरूक औरतों की प्रशंसा वे अपने एक अन्य आलेख में करती हैं। महाश्वेता देवी, मेधा पाटकर और ममता बनर्जी के बहाने वे इसे स्थापित भी करती हैं। औरत पिछड़ी क्यों है, वे निर्जीव, निर्बुद्धि, निष्प्रभ, निरुपाय, निस्तेज क्यों बने रहना चाहती हैं। वे आग क्यों नहीं बनतीं, जिससे समाज का वैषम्य जलकर खाक हो जाए।
तसलीमा स्त्री स्वतंत्रता की इतनी तीव्रता से पैरवी करती हैं कि बस कल से यह पूरी दुनिया में लागू हो जाए। पुरुष के अंह को वे बार-बार कुरेदती भी हैं इसीलिए उनकी टिप्पणियों को जो सहन नहीं कर पाते या समझ नहीं पाते, वे झंडा उठाकर हल्ला करने लगते हैं। भू्रण हत्याओं पर अपने आलेख में वह कहती हैं कि भारत में क्या सिर्फ पुरुष बचे रहेंगे? उत्तर से लेकर दक्षिण तक हो रही कन्या भ्रूण हत्याओं पर वह रोष जाहिर करती हैं। अपने विभिन्न लेखों में तसलीमा पुरुषतंत्र और धर्म के संबंध, पुरुषचरित्र के विभिन्न पहलुओं, उसके दंभ के आधार, साहित्य, कविता, फिल्म, समाज, राजनीति सब में नारी की शोषित छवि आदि पर विद्रूप स्वरों में आवाज उठाती हैं।
अपने व्यक्तिगत जीवन पर भी उन्होंने लिखा है। उनके लेखों में पूरी दुनिया के विभिन्न दार्शनिकों, चिंतकों शोधकर्ताओं की पंक्तियां भी हैं जो उनकी दृष्टि को रूपायित करती हैं। तसलीमा को पढ़ते हुए आपको अपना अहंकार छोड़, लेखिका का समभावी होना पड़ेगा, तभी आप उसके अंतर के दुःख को समझ पाएंगे-जो इंतजार में हैं औरत के जागने के।
पुस्तक : औरत का कोई देश नहीं लेखिका : तसलीमा नसरीन प्रकाशक : वाणी प्रकाशन मूल्य : 350 रुपए