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कुछ अटके, कुछ भटके

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अरूंधती अमड़ेक
WDWD
इस पुस्‍तक को पढ़ते हुए लगता है कि यात्रा करने से कहीं अच्‍छा है भटकना। यहाँ लेखिका का भटकाव कहीं कहीं यात्रा बन पड़ा है, वो बात अलग है। ज़िंदगी में घुमक्‍कड़ नहीं बने तो समझिए आपने ज़िंदगी को पूरा जिया ही नहीं। अपने इस घुमक्‍कड़पन का अगर दस्‍तावेज़ीकरण नहीं किया तो समझिए आपने ज़िंदगी को पूरा पढ़ा ही नहीं।

हम पाठकों का तो पता नहीं लेकिन लेखिका इस हिसाब से इस भूल से बच निकली हैं। कहने को तो ये यात्रा संस्मरण हैं लेकिन एक लेखक के समाज से जुड़े सरोकार भी यहाँ स्‍पष्ट बिंबित होते हैं। असम के प्राकृतिक सौंदर्य से लेखिका अभिभूत है लेकिन वहाँ के आमजन की समस्‍याओं पर विचार करने को विवश है। जिसमें विशेष रूप से, वहाँ के युवाओं का भोलेपन की सीमा को लाँघ एक आतंकी बनने की ज़द्दोजहद शामिल है.

दिल्‍ली का दर्द सिर्फ़ दिल्‍ली वाले ही बयाँ कर सकते हैं सो यहाँ भी लेखिका ने बड़े ही भोलेपन के साथ व्यक्त किया है। पुस्‍तक में कहीं चरमराते सरकारी तंत्र की खिल्‍ली है तो कहीं दिल्‍ली के दिखावे को संस्‍कृति मानने वाले दिलजलों का मखौल है।

कहीं कर्नाटक और केरल के लोगों की धर्म पर अजब आस्‍था के उदाहरण हैं तो कहीं जंगलों को शहरों से बचाने की कोशिशों की कहानी है। लेखिका जहाँ गई वहाँ का बहुत कुछ सुनहरा - धुँधला लिखने की कोशिश की है । कहीं हिरोशिमा की दुखद यादें है तो रामायण और महाभारत काल के स्‍थानों का भी रोचक वर्णन है।
  बहरहाल , ये पुस्‍तक लिखकर लेखिका ने अपनी यात्रा को कृतार्थ किया है साथ ही इसे पढ़ने वालों के मन में यात्रा की ललक जगाने में भी वह कामयाब रही है।      

पुस्‍तक का एक विशिष्ट पहलू यह है कि इसमें लेखिका ने अपने हर अनुभव को अपने सहज स्‍वभावानुसार व्‍यक्त किया है। आप भटकने के दौरान कहीं कहीं मृदुला गर्ग को ज़हनी तौर पर भी क़रीब पाएँगे।

बहरहाल , ये पुस्‍तक लिखकर लेखिका ने अपनी यात्रा को कृतार्थ किया है साथ ही इसे पढ़ने वालों के मन में यात्रा की ललक जगाने में भी वह कामयाब रही है। अपने अनुभव को लिखते हुए लेखक उतना ही संतुष्ट होता है जितना उस अनुभव को जीते हुए, ‍िकन्तु पाठकों की संतुष्टि उनकी अपनी समस्‍या है। कहना ना होगा कि पुस्तक अटकाती तो नहीं है पर कहीं-कहीं भटकाती अवश्य है।

पुस्‍तक - कुछ अटके, कुछ भटके
लेखिका - मृदुला गर्ग
प्रकाशक - पेंगुइन बुक्‍स
मूल्य - 100 रुपए

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