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खत्म नहीं होती बात

सहज जीवन बोध की कविताएँ

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हमें फॉलो करें खत्म नहीं होती बात
पंकज पाराशर
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वर्तमान काव्य परिदृश्य में अधिकांश कविताएँ पढ़कर पता नहीं चलता कि कवि कौन हैं- यदि आप कवि का नाम पहले ही न पढ़ लें तो। 'चाँद का मुँह टेढ़ा है' या 'भूरी-भूरी खाक धूल' पर से यदि कवि का नाम हटा दें तो भी यह आसानी से पता चल जाता है कि यह किस कवि का कंठ स्वर है। इस हिसाब से यदि देखें तो वर्तमान हिंदी कविता में ऐसे बहुत कम कवि हैं, जिन्हें भीड़ में भी अलग उनके निजी स्वर, शैली और रागात्मकता की वैयक्तिक अभिव्यंजना से पहचाना जा सके।

नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर और केदारनाथ अग्रवाल का नाम जो आदर भाव से लेते हैं, उनमें भी इन कवियों जैसा आत्मसंघर्ष और निजी कंठ-स्वर की स्थापना की आकुलता उस रूप में नहीं दिखती, जिसका बहुधा वे दावा करते पाए जाते हैं। परंतु युवा कविता में जिन कुछेक कवियों के यहाँ ऐसी ईमानदार कोशिश दिखाई देती है, उनमें सहज ही बोधिसत्व का नाम लिया जा सकता है।

बोधिसत्व के ताजा काव्य संग्रह 'खत्म नहीं होती बात' में कवि के आत्मसंघर्ष को सहज ही लक्षित किया जा सकता है। अक्सर बड़ी-बड़ी समस्याओं और बड़ी-बड़ी बातों को कविता में साधने की कोशिश अनेक कवियों के यहाँ देखी जा सकती है। एक विद्वान ने इसी तर्ज पर अज्ञेय को बड़ी साँसों का कवि और नागार्जुन को छोटी-छोटी साँसों का कवि कहा है।

परंतु इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि आम आदमी या कहें देश के अधिकांश आदमी का जीवन छोटी-छोटी चीजों और छोटी-छोटी समस्याओं में ही खर्च हो जाता है। छोटे आदमियों के जीवन को प्रतिनिधि स्वर देते हुए बोधिसत्व कहते हैं:- 'छोटी-छोटी बातों पर, नाराज हो जाता हूँ / भूल नहीं पाता हूँ, कोई उधार / जोड़ता रहता हूँ, पाई-पाई का हिसाब / छोटा आदमी हूँ, बड़ी बातें कैसे करूँ?' छोटे आदमी की यह दुनिया जिस पर आज तरह-तरह की चीजें और ताकतें निशाना साध रही हैं, अगर महफूज है और आगे भी रहेंगी तो उन्हीं छोटी-छोटी चीजों और जिदों के सहारे जिन्हें बोधिसत्व की ये कविताएँ रेखांकित कर रही हैं।

कहना न होगा कि आम आदमी की छोटी-छोटी बातें और माँगे जिस तरह सत्ता को विचलित कर देती हैं, उस परिदृश्य में ऐसी कविताएँ सहज ही अपनी महत्ता और प्रासंगिकता का अहसास करा जाती है। स्मृति और आख्यान का उपयोग बहुत दमदार तरीके से जिन कुछ कवियों के यहाँ बेहतर प्रयोग दिखाई देता है, उनमें बोधिसत्व तो हैं ही।

स्मृतियों की रोज-रोज मिटती दुनिया से मिटता जाता है बहुत कुछ और उसके बीच नई पीढ़ी की दुनिया से बाहर पुरानी स्मृति वाले पुराने लोगों की सामूहिक स्मृतियों से भी मिट जाती है पुरानी चीजें, पुराने लोग। अधूरे को पूरा करने की व्याकुलता में एक स्त्री की व्याकुलता अक्सर हमारे समाज में महज छोटी-सी खबर या थोड़ी देर की चर्चा में विलीन हो जाती है।

अधूरी चीजों और अधूरे कामों की चर्चा करते हुए कवि बोधिसत्व बिल्कुल ओ हेनरी की कहानियों के अंत की तरह अंत में कहते हैं- 'दीयों के अधूरे काम जुगनू / पूरा करते हैं ऐसा मानते हैं सब / पर एक जला दी गई / एक स्त्री के अधूरे काम कौन करेगा पूरा / जिसका सब कुछ छूट गया अधूरा।" मुख्तसर यह कि 'खत्म नहीं होती बात' संकलन की ज्यादातर कविताओं की बात और सवालों पर चर्चा जल्दी खत्म नहीं होती।

पुस्तक : खत्म नहीं होती बात
कवि : बोधिसत्व
प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
मूल्य : 200 रुपए

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