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गुंडा धुर की तलाश में : आदिवासी समाज का सच

पुस्तक समीक्षा

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हमें फॉलो करें गुंडा धुर की तलाश में : आदिवासी समाज का सच
प्रवीण प्रभाकर
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लेखिका नंदिनी सुंदर ने आदिवासियों के बीच रहकर, उनके मार्मिक हालात को अपनी पुस्तक 'गुंडा धुर की तलाश में' (अंग्रेजी की मूल पुस्तक- सबऑल्टर्न्स एंड सोवरनीजः एन एंथ्रोपोलॉजिकल हिस्ट्री ऑफ बस्तर) में बखूबी समेटा है। हालाँकि हिंदी पाठकों को इस किताब के लिए ज्यादा इंतजार करना पड़ा। दस साल पहले ही इस किताब का पहला संस्करण अंग्रेजी में आया था लेकिन इन वर्षों में बस्तर की स्थिति बहुत बदल चुकी है, बाहरी लोगों का आदिवासियों पर प्रभुत्व भी बढ़ा है और नक्सलवादी संघर्ष भी तेज हुआ है। इसलिए इस किताब की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है।

हालाँकि यह किताब नक्सली आंदोलन पर नहीं है लेकिन इस किताब में छत्तीसगढ़ के आदिवासी-बहुल इलाकों और नक्सली समस्या से त्रस्त बस्तर की स्थिति की समीक्षा जरूर है। यह किताब नक्सल आंदोलन के खिलाफ खड़े सलवा जुडूम अभियान की सार्थकता पर भी सवाल उठाती है। पूरी किताब 1910 के विद्रोह यानी 'भूमकाल' के नायक गुंडा धुर की तलाश में है, जिससे प्रथम परिचय159 पन्ने पर होता है लेकिन किताब की प्रस्तावना में ही लेखिका ने लिखा है- 'गुंडा धुर के बारे में पूछते हुए गाँव-गाँव घूम रही थी तो मेरे सवालों के बहुत कम ही जवाब मिल पा रहे थे। ऐसा प्रतीत होता है कि आदिवासी कल्याण विभाग के अलावा किसी को भी इसकी सटीक जानकारी नहीं थी। सरकार ने स्वतंत्रता सेनानी के रूप में जो मूर्ति बनाई थी, मुझे इसमें विडंबना और आत्मसातीकरण तो नजर आया लेकिन गुंडा धुर कहीं दिखाई नहीं दिया।'

इन पंक्तियों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि आदिवासियों ने इतने दुख और विस्थापन झेले हैं कि उनकी जीवन स्मृतियाँ बिखरी हुई हैं और वे अपने नायक की छवि से ठीक-ठाक अवगत नहीं हैं। वहीं अंग्रेजी शासन काल में लिखे दस्तावेज में गुंडा धुर को विद्रोही और गुंडा बतलाया गया है और सरकारी दस्तावेज में गुंडा धुर की छवि ऐसी है कि इसे आदिवासी इससे खुद को जोड़ नहीं पा रहे हैं।

किताब उन क्षणों पर केंद्रित है, जब औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा स्थापित ढाँचों का विरोध हुआ। 1876 में राजा का विरोध,1910 में राजा समेत समस्त अंग्रेजी औपनिवेशिक व्यवस्था का प्रतिरोध और 1966 में पुस्तक में स्वतंत्र भारत की आदिवासी नीतियों के खिलाफ बगावत पर पूर्ण रूप से प्रकाश डाला गया है।

किताब नक्सलवाद पर अपनी कोई धारणा नहीं बनाती है। लेखिका लिखती भी हैं- 'बस्तर के भीतर और बाहर मेरे दो वर्ष के प्रवास के दौरान मेरी मुलाकात एक भी नक्सलवादी से नहीं हुई। इसके विपरीत, सरकारी अधिकारियों अथवा ग्रामवासियों द्वारा, मुलाकात के दौरान, कभी-कभी मुझे जरूर नक्सलवादी समझ लिया गया।'

साफ तौर पर लेखिका राज्य प्रायोजित हिंसा की ओर भी जिसमें सलवा जुड़ूम शामिल है, इशारा करती हैं, जिसके तहत आदिवासियों के मकान खाली करवाकर जलाए जाने, उनका सबकुछ लूट लेने और उनके लड़कियों के साथ बलात्कार के किस्से अब मशहूर हो चले हैं। बहरहाल, यह किताब आदिवासी समाज के इतिहास और वर्तमान दोनों को खंगालती है। इसके लिए लेखिका को राज्य अभिलेखागार, जगदलपुर रिकॉर्ड रूम, कई अखबारों आदि की सहायता लेनी पड़ी लेकिन वास्तविक चित्रण में जनश्रुतियों ने मदद पहुँचाई।

पुस्तक : गुंडा धुर की तलाश में
लेखिका : नंदिनी सुंदर
प्रकाशक : पेंगुइन बुक्स इंडिया, यात्रा बुक्स
मूल्य : 250 रुपए

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