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'छप्पन (मानसिक) भोगों से सजा थाल'

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हमें फॉलो करें 'छप्पन (मानसिक) भोगों से सजा थाल'
- विवक हिरद
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यशवंत व्यास की 'अब तक छप्पन' को शब्दों में बाँधना मुश्किल है। इसकी औपचारिक समीक्षा करना या औपचारिक पहचान करना सरल है, लेकिन इसके छप्पन व्यंग्यों का मनोविज्ञान इतना गहरा है, इतना गूढ़ है कि प्रत्येक व्यंग्य को लेकर मानव, समाज और उसकी वास्तविकताओं पर छप्पन पुस्तकें पृथक लिखी जा सकती हैं।

मात्र व्यंग्य ही नहीं, वरन व्यंग्य का हर बिंब, हर वाक्य, हर चरित्र शब्दों के पीछे झाँकें तो सीधे मस्तिष्क में जाकर कौंधता है, मर्म पर महीन मार करता है।

मैं यह दावा नहीं कर सकता कि मुझे किस व्यंग्य ने सर्वाधिक प्रभावित किया है, क्योंकि ऐसा कहना कमोबेश ऐसा ही होगा कि उदयपुर के गुलाबबाग में मुझे किस गुलाब ने सर्वाधिक प्रभावित किया है।

व्यंग्य में कोमल गुलाबों से लगे यथार्थता के तीक्ष्ण काँटे हैं, जो कड़वे सच के परिचायक हैं। आप मेरे निवेदन पर 'अब तक छप्पन' की खोह में 'रिड बिटविन लाइन्स' की तर्ज पर पर्याप्त समय देकर प्रवेश करें और यशवंतजी के कथन को बिलकुल नहीं छोड़ें जो इस गुदगुदाती लेकिन सही समय पर चिकोटी भरती खोह का प्रवेश द्वार है। मोगरे से मोगरी, मोगरी से धोबी और सहसा सपनों का रोमांचक सफर, सपनों के संदेश, संदेशों में छिपा अर्थ सभी रोचक हैं

'जड़ हे!' में ग्रामीण समाज की मूल समस्याओं से परे कम्प्यूटर का पदार्पण एक गंभीर व्यंग्य है। इसे बकरी के साथ जोड़कर विकल्पों का चयन लेखक ने पाठकों पर छोड़ा है। इसी व्यंग्य में 'कवि की आत्मा दरियागंज हो गई, मन प्राग हो गया, दिमाग आयोवा और आँखें टेम्स!' इस पंक्ति को यूँ ही छोड़ देना बेमानी होगा

आत्मा का दरियागंज होना यानी आत्मा का सदैव स्वतंत्र रहना, मन प्राग यानी मन की व्यापकता, दिमाग आयोवा यानी दिमाग की चलायमानता-सक्रियता और आँखें टेम्स यानी आँखों का सरितासम फैल जाना! 'जड़ों की तलाश' का कटाक्ष पढ़ने के बाद समझदार पाठक इसको गाहे-बगाहे बोलना शायद बंद कर दे

'हरे साँप की कविता' व्यंग्य में उदासी की खोज और वह भी जेनुइन किस्म की उदासी की खोज आगाज को रोचक बनाती हुई कौतूहल जगाती है। यह व्यंग्य साँप की पीठ पर रेंगता हुआ बढ़ता है और मध्य में जेनुइन उदासी को पाने की असफलता लेकर सरकता हुआ अंजाम पर स्तब्ध करते हुए जेनुइन उदासी की कविता पूर्ण करता है

'श्रीमती शर्मात्माजी का परकाया प्रवेश' में बच्चियों, युवतियों और प्रौढ़ाओं का कम वस्त्रों के प्रति बढ़ता रुझान उघाडु समाज की चिंताजनक परिस्थिति का परिचायक है। उन्हें 'बेशर्म' का संबोधन ''कॉम्प्लीमेंट' लगना समाज के क्षय का सुस्पष्ट संकेत है। बढ़ते तथाकथित 'महाराजों-संतों' के चंगुल में पाप धोने का प्रयास करते समाज पर भी इसमें इशारा है

'जो सहमत हैं सुनें!' में लगता है भैंसों का अक्खड़ अल्हड़ स्वरूप पढ़ने वाले हैं, लेकिन वास्तव में इनकी तुलना जहाँ की गई है उसे समझना मजेदार कार्य है। वैसे यशवंतजी का यह व्यंग्य संग्रह दीवार पर टँगी वह विशाल पेंटिंग है जो सुस्पष्ट नहीं है। इसमें अंतर्निहित विविध अर्थों को खोजना रोमांचक यात्रा है
  'श्रीमती शर्मात्माजी का परकाया प्रवेश' में बच्चियों, युवतियों और प्रौढ़ाओं का कम वस्त्रों के प्रति बढ़ता रुझान उघाडु समाज की चिंताजनक परिस्थिति का परिचायक है। उन्हें 'बेशर्म' का संबोधन ''कॉम्प्लीमेंट' लगना समाज के क्षय का सुस्पष्ट संकेत है। बढ़ते ...      


'कुछ पाने के लिए कुछ धोना पड़ता है' में उजली पोशाकों में जतन से छिपाई गई स्याह कायाओं का चित्रण है तो 'मेरी क्यों नहीं कटी' में व्यंग्यकार ने अंत में बताया है कि उसकी जेब क्यूँ नहीं कटी। जेबकतरे का गणित और नेता का रसायन शास्त्र अव्यक्त होने पर भी जेबकतरा होना सरल, नेता होना कठिन यह बताता है कि नेता बड़ा और स्टैंडर्ड जेबकतरा है। 'लेखन में ईसबगोल' यकीन मानिए खलबली सी मचाकर रेचक का कार्य करता है

'विनम्रता का मौसम' व्यंग्य 'लगे रहो मुन्नाभाई' रिलीज होने के काफी पहले लिखा गया है। मुन्नाभाई को जिस प्रकार विनम्रता से पेश किया गया है उससे कहीं ज्यादा चमत्कार इस विनम्रता में देखने को मिलते हैं

छप्पन के प्रत्येक पृथक व्यंग्य में आधारिका के साथ दृश्य सीक्वेंस का भी ध्यान रखा गया है। शायद इसीलिए कुछ पात्र सामने आकर अपना हक माँगते या पक्ष रखते नजर आते हैं। इसी ठोस पठनीयता के कारण जिज्ञासु पाठक अद्यांत एक चुंबकीय शक्ति से बँधे रहते हैं

व्यंग्य और वह भी बारीक तराशे गए वैशिष्ट्‍यपूर्ण व्यंग्यों की गणना में यह सगर्व पांक्तेय व्यंग्य-संग्रह है। अंतत: एक संवेदनशील व प्रबुद्ध पाठक के लिए यह व्यंग्य पिटारा छप्पन भोगों से सजी नितांत नूतन दुर्लभ और संस्मरणात्मक कृति है।
पुस्तक - अब तक छप्पन
लेखक - यशवंत व्यास
मूल्य - 190 रुपए
प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ,
18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया , लोदी रोड
नई दिल्ली -110003

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