महेन्द्र तिवारी
क्या आप अशांत हैं? जीवन के प्रति आपकी आस्था कम हो गई है? अपने आप से असंतुष्ट हैं? क्या तमाम कोशिशों के बावजूद आपको खुशी नहीं मिलती? यदि हाँ तो 'आधुनिक भारत के युग प्रवर्तक संत' में आपके इन सारे सवालों का जवाब मौजूद है। दिव्यात्माओं के अनमोल वचनों से गूँथी हुई यह एक ऐसी मणिमाला है जिसके हर मनके से मानव मूल्य और जीवन का अभीष्ट प्रकाशित होता है। शब्दों में ढली अध्यात्म की ऐसी तुलिका जिससे मन के कैनवास पर आने वाले कल की स्वर्णिम तस्वीर उतारी जा सकती है।लेखिका लक्ष्मी सक्सेना ने रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ, महर्षि रमण, महर्षि अरविंद और स्वामी रामानंद समेत कुल छह महापुरुषों की अमृतवाणी को अपनी रचना का आधार बनाया है। अलग-अलग ग्रंथों से उद्धृत संतों के संदेशों को पुस्तक में जस का तस प्रस्तुत किया गया है। दो सौ सोलह पृष्ठों वाली इस 'ज्ञान वाटिका' में जगह-जगह मनुष्य का जन्म का मर्म बिखरा हुआ है। कहीं दु:खों की पृष्ठभूमि में आसक्ति की व्याख्या की गई है तो कहीं संसार में रहते हुए ही सत्य का आग्रह किया गया है। किताब का हर सफा ईश्वर को सर्वोच्च सत्ता बताते हुए उसी के आश्रय की सीख देता है। रामकृष्ण परमहंस ज्ञान की तुलना में भक्ति को श्रेष्ठ बताते हुए कहते हैं - ज्ञान से अहंकार जन्म लेता है, जबकि भक्ति मन को निर्मल कर विनम्रता का संचार करती है। उनके शब्दों में आंतरिकता में सभी धर्म समान हैं, लेकिन सभी के प्रेरणास्त्रोत भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व होने से उनमें परस्पर ईष्ट को लेकर भेद हैं। स्वामी विवेकानंद के अनुसार ईश्वर का चिंतन पाप को जलाता है। मानव का जीवन तभी सँवरता है जब वह ईश्वर को केंद्र में प्रतिष्ठित कर लेता है।आज हम सोचते हैं कि अपने व्यक्तित्व को किसी न किसी रूप में बनाए रखने में ही जीवन की सार्थकता है, लेकिन एक समय ऐसा आएगा जब हम आश्चर्य करेंगे कि क्यों इसके लिए अपना अमूल्य समय नष्ट किया। स्वामी रामतीर्थ की दृष्टि में जीवन में कुछ कर गुजरने के लिए धार्मिक होना जरूरी है। कारण, धर्म अपनी अमिट छाप हमारे व्यक्तित्व पर छोड़ता है। वे कहते हैं ऐन्द्रिक सुखों के पीछे हमारी भाग-दौड़ ही दु:खों की वजह है। स्वामी रामानंद ने कहा है कि आध्यात्मिक विकास से आशय आत्मा की संपूर्ण सन्निहित शक्तियों को पूर्णरूपेण प्रकृति में अभिव्यक्त करना है, स्थूल जगत में लाना है। उनकी मानें तो यह प्रकृति से भागने का योग नहीं, प्रकृति को भी आत्मभूत करने का योग है। महर्षि रमण मन पर नियंत्रण कर लेने को ही सफलता की पहली सीढ़ी मानते हैं। उनके अनुसार यदि व्यक्ति चाहे तो सबसे बड़ी शक्ति का वह स्वयं अधिकारी हो सकता है। आवश्यकता है सही दिशा में दृढ़ता के साथ प्रयास करने की। |
किताब का हर सफा ईश्वर को सर्वोच्च सत्ता बताते हुए उसी के आश्रय की सीख देता है। रामकृष्ण परमहंस ज्ञान की तुलना में भक्ति को श्रेष्ठ बताते हुए कहते हैं - ज्ञान से अहंकार जन्म लेता है, जबकि भक्ति मन को निर्मल कर विनम्रता का संचार करती है... |
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लेखिका द्वारा उद्बोधनों को शब्दश: उतारने से पुस्तक की रोचकता का ह्यास हुआ है। अधिकांश जगह शब्दों की पुनरावृत्ति की गई है। कुछ शब्दों को तोड़-मरोड़कर लिखा गया है, जिससे उनका मूल अर्थ मालूम नहीं पड़ता।
पुस्तक में संतों के जीवन से जुड़े प्रेरक प्रसंग, उनकी शिक्षा-दीक्षा, तत्व ज्ञान की अनुभूति आदि को समायोजित किया जाता तो बेहतर होता।
कठिन शब्द चयन के कारण पुस्तक कहीं-कहीं बोझिल लगती है। वर्तनी की भी त्रुटियाँ हैं। इससे लेखिका को बचना चाहिए था। इस सबके बाद भी 'आधुनिक भारत के युग प्रवर्तक संत' आध्यात्मिक विकास को पुष्ट करती है। युवा वर्ग इससे जरूर लाभान्वित होगा।
पुस्तक : आधुनिक भारत के युग प्रवर्तक संत
प्रकाशक : लोकायत प्रकाशन,वाराणसी (उप्र)
लेखिका : लक्ष्मी सक्सेना
मू्ल्य : 150 रुपए