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टूटने के बाद : उलझनों से बुना उपन्यास

मध्यमवर्गीय टूटन को खोलता उपन्यास

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हमें फॉलो करें टूटने के बाद : उलझनों से बुना उपन्यास
ओम भारती
ND
'टूटने के बाद' संजय कुंदन का पहला उपन्यास है जिसमें लेखक ने दिल्ली महानगर की 'मार्डन लाइफ का एक पार्ट' यहाँ चुस्ती से उकेरा है। आज के माँ-बाप एवं बेटों के बीच के 'पीढ़ी के फर्क' को भी। फिर एक ही पीढ़ी के दो युवा भाइयों-अप्पू और अभय-में सोच और समझ का जो बड़ा-सा फासला है, उस पर भी लेखक की पकड़ है।

अभय आज के बाजार के दबाव में आ चुका बिकाऊ तरुण है जिसके लिए 'सेक्स इनपुट है बेहतर रिजल्ट के लिए', और जिसकी स्वच्छंदता में गर्लफ्रैंड की न्यूड फोटो लेना भी सहजता से शामिल है। अभय 'फ्यूचर' पर नजर रखता है, अप्पू लक्ष्यहीन एवं दिशाहीन है। वह उलझन में है कि आखिर दुनिया में विचारों की कोई जगह है भी या नहीं, या विचार सिर्फ विचार बने रहने के लिए होते हैं उनका जीवन से कोई लेना-देना नहीं होता है?

हिंदी उपन्यास के बड़े हिस्से की भाँति 'टूटने के बाद' भी मध्यवर्ग का आख्यान ही है। इस बीच के तबके की आबादी ही नहीं, क्षेत्रफल भी बढ़त पर है। अभय-अप्पू के कथा-क्रम के समांतर चलती है उनके माता-पिता रमेश-विमला की दुखांत परी-कथा और विमला की बहन कमला एवं अजय का त्रास-विकास।

विमला अपने वैचारिक जीवन में निर्णायक भूमिका नहीं कर पाती है और छोटी बहन के निजी दांपत्य-जीवन में अधिक रुचि रखती है। वहाँ वह कमला के पारवारिक समीकरण सुधारने चली है, यहाँ उसका अपना ही वैवाहिक जीवन उलझता जा रहा है। दोहरी जिंदगी जीती है वह। उसके पति रमेश जी छोटे से गाँव से हैं, गरीब घर से हैं। गाँव के ठाकुर साहब ने उन्हें शिक्षित बना दिया तो वे 'कैरियरिस्ट' भी होते गए। दिल्ली में वे अपना एनजीओ चलाते हैं। हाईफाई जीवनशैली है अब उनकी।

विमला पटना में सरकारी गर्ल्स कॉलेज में अध्यापिका हो गई हैं। तो पटना का दिल्ली से, और इन दोनों राजधानियों का बिहार के गाँव से अंतर भी है यहाँ, उसका तनाव भी। तनाव इस कृति के रचना-विधान में अद्योपांत बना रहता है। विमला अपने पुत्र अप्पू को लेकर ज्यादा चिंतित है। रमेश जी का आरुषि से विवाहेतर संबंध भंग हो जाता है तो वे भी टूट जाते हैं। उपन्यास का अंत टूटन के बिंदु पर हुआ है। तो इतिवृत्त आज के उन आपसी रिश्तों का भी है। जो जरूरतों पर टिके हैं।

अँगरेजी शब्दों की मिलावट अब हिंदी लेखन में जरूरत से ज्यादा हो गई है, इतनी कि उस पर आपत्ति करना पिछड़ापन हो चला है। भाषा की भूमिका उपन्यास में भी अहम होती है। उसे यथार्थ का अंकन जो करना होता है। पात्रों की जीवन-स्थिति, मनःस्थिति, वैचारिकता, निष्ठा, विश्वास, उम्मीद, सपने या भीतरी-बाहरी द्वंद्व को भी संजय कुंदन जिस विधि खोलते चलते हैं, उसी में स्वयं उनकी भाव-संवेदना एवं पक्षधरता का, उनके नजरिए का उद्घाटन भी होता चलता है। वे एक सम्मानित युवा कवि भी हैं, पर अपनी गद्य की जुबान में कविता भाषा का मिश्रण नहीं करते हैं।

पुस्तक : टूटने के बाद
लेखक : संजय कुंदन
प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
मूल्य : 100 रुपए

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