'दुक्खम सुक्खम' ममता कालिया का नया उपन्यास है। जो पाठक 'दौड़' जैसे उपन्यास से ममताजी के कथा लेखन से परिचित हुए हैं उन्हें यह लगभग चौंकाने वाला प्रतीत होगा। दरअसल, भूमंडलीकरण के इस दौर में कोई भी पारंपरिक कथा रचना चौंकाने वाली ही लगेगी। 'दुक्खम सुक्खम' इस मायने में अपनी सादगी और गरिमामय सहजता से चौंकता ही है। ठेठ पारिवारिकता और आपसदारी से उपजा यह उपन्यास भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के आखिरी दौर से प्रारंभ होकर नए जमाने तक चला है। इस लंबी अवधि की अनुगूंज उपन्यास में महसूस की जा सकती है यद्यपि ये है अनुगूंज ही, रचना का उद्देश्य नहीं।
मथुरा के एक वैश्य परिवार के इर्द-गिर्द बुना गया यह उपन्यास किसी प्रचलित विमर्श या मुहावरे में नहीं अटकता। उपन्यास में दादी, माँ और दो बहनें बड़े चरित्र के रूप में उभरती हैं लेकिन वे स्त्रीमुक्ति के विरुद्ध नहीं है।
सिद्धांतवादी अध्यापक और प्रशासक के रूप में कविमोहन किसी विशिष्ट छवि को नहीं गढ़ते लेकिन वे भारतीय गृहस्थी के लगातार घूमते पहिए की तरह पाठक के मन में रह जाते हैं। सारी मनौतियों के बावजूद दूसरी बार भी बेटी का ही जन्म होता है। यही बेटी मनीषा है जो उपन्यास के अंत में संकल्प ले रही है कि वह दादी की कहानी लिखेगी।
विद्यावती 'दादी' अपनी बहू के पहली बेटी होने पर गाना-बजाना करती है। फिर भी यही विद्यावती है जो दूसरी पोती होने पर पति को कह सकती है -'हाँ, मैं तो दहेज में लाई थी ये छोरियाँ, तुम्हारी कछू नायँ लगैं।' उपन्यास में दादी के इतर कई और पात्र-प्रसंग हैं जो न केवल कथा को गति देते हैं अपितु गतकाल का उलझा यथार्थ भी इनसे जहाँ-तहाँ उजागर हुआ है।
उपन्यास की विशेषता इन्हीं ब्यौरों में है जो अपने समय और समाज का भावप्रवण चित्र खींच पाए हैं। चित्र ऐसा कि कोई पौने तीन सौ पृष्ठ का उपन्यास लगभग एक साँस में पढ़ जाएँ। पाँचवें दशक की किच-किच गृहस्थी, अड़ियल श्वसुर, पुराने ढंग का ऐसा मकान जिसमें गुसलखाना जैसी चीज की जरूरत नहीं समझी जाती, आस-पड़ोस की औरतें और परदेस गया पति ये सब मिलकर उपन्यास की आत्मीय छवि गढ़ते हैं।
ममता जी ने इसके लिए जिस भाषा का उपयोग किया है वह मथुरा ब्रज के घरों में बोली जाने वाली पारंपरिक बोली है। कविमोहन नौकरी के लिए घर छोड़कर जा रहे हैं तो माँ का बिसूरना देखिए-'पहले मेरा किरिया कर जा लाला बाके बाद जहाँ जाना है जा। छोरियाँ तो सुखी नहीं, छोरा दिल्ली में ठोकरें खायगौ, बँसीवारे हमें उठायलो।'
वस्तुतः यह उपन्यास अपने होने की सिद्धि में बड़े दावे नहीं करता और इसकी सार्थकता यदि कोई है तो वह यह कि ठेठ भारतीय पारिवारिकता का सघन चित्र पाठक के समक्ष उपस्थित करना। इस चित्र में अपने समय की दूसरी छवियाँ या यथार्थ भी डोलता हुआ दिखाई पड़ता है तो वह अतिरिक्त सफलता मानी जानी चाहिए। पारिवारिकता का यह चित्र ऐसा है जो उदास करता है तो कभी आह्लादित! कभी खिन्न करने वाला है तो आशा का मद्धिम उजास भी छोड़ जाता है।
पुस्तक : दुक्खम सुक्खम लेखिका : ममता कालिया प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ मूल्य : 227 रुपए