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डॉ. शरद सिंह
कुछ वर्षों से उपन्यास के क्षेत्र में नए कथानकों का चयन बढ़ा है। जयवंती डिमरी का उपन्यास 'सुरजू के नाम' में भूटान का वह दुर्गम प्रदेश है, जहाँ जीवन आसान नहीं है। एक मजदूर स्त्री के लिए तो और भी नहीं। वह भी, अप्रवासी स्त्री मजदूर के लिए तो कदापि नहीं।
....'सुकूरमनी ही वह बकरा थी, जो मौका पड़ने पर हलाल की जा सकती थी। एक कूड़े का ढेर- उसमें एक मुट्ठीभर और कूड़ा फेंकने से क्या अंतर पड़ता- किसी ने 2000 रुपए की चोरी दे दी, तो किसी ने पेट में हाड़-मांस का जीव।'
उपन्यास का कथानक इतना सहज भी नहीं है, जितना कि उक्त पंक्तियों को पढ़कर प्रतीत हो सकता है। वस्तुतः इस उपन्यास में लेखिका ने एक ऐसी औरत के संघर्ष का वर्णन किया है, जो किसी नारीवाद की पैरवी न करता हुआ, सीधे दो-टूक शब्दों में मानवता को संबोधित है। यूँ तो सुकूरमनी दुनिया से जूझती एक माँ के रूप में दिखाई देती है, किंतु एक युवा एकाकी माँ आखिर एक औरत ही होती है और सहारा पाने के लिए किसी न किसी पुरुष की खोज करने लगती है। सहारा पाने की ललक उसे बार-बार छले जाने को विवश करती है।यह जानते हुए भी कि यही उसकी नियति है, वह अपने बेटे सुरजू के लिए खुली पलकों से सपने देखने में भी नहीं हिचकती।
सुकूरमनी को सभी से आशा है और सभी उसे छलते हैं चाहे वह भूटिया हो, बांग्लादेशी हो या 'अपने देस', 'बिहार' या 'इंडिया' का। छलने वालों की दृष्टि में यह मायने नहीं रखता है कि वह किस देश की है, किस जाति की है या किस धर्म की है अथवा वह एक बच्चे की माँ भी है। उनके लिए तो वह एक औरत मात्र है, जिसे वे उपयोग में ला सकते हैं और छोड़ सकते हैं।
बोडो, कुकी और संथालों के संघर्षों के बीच उसे 'हमेशा मन में एक हल्का-सा डर बना रहता। यदि कहीं से आकर अचानक कोई बोडो गोली दागे दे। ....मध्यम कद के ये लोग देखने में तो सीधे-सादे, दुनिया से बेखबर ही लगते थे, तो फिर आतंकवादी क्या इन्हीं लोगों जैसे होंगे?' इन सबके बीच अपने बेटे सुरजू के सुखद भविष्य के सपने देखती सुकूरमनी। न तो उसे इन संघर्षों से वास्ता है और न इनका सुकूरमनी से। प्रवासी मजदूर के मरने या जीने से न तो कूटनीतिज्ञों को कोई अंतर पड़ता है और न ही संघर्ष करने वालों को। लेखिका के अनुसार सुकूरमनी- 'सुकूरमनी न होकर दूर-दराज की किसी कच्ची, पथरीली, ऊबड़-खाबड़ पगडंडी के किनारे मील का पत्थर बनी महज एक पत्र-पेटी थी, जो आते-जाते मौसमों के बदलावों को सहती कभी बरसती, कभी भींगती, तो कभी धूप में तपती, बेरंग, बदरंग अपनी जगह पर टँगी थी। इस बदरंग, बेरंग लैटर-बॉक्स में कितने ही मनमौजी, दूर-परदेस में अपनी बिछुड़ी हुई बीवियों का दुःख बिसारते तो कभी उनकी यादें ताजा करते, अपनी रातें गर्माते शख्स जब तब चिट्ठियाँ डालकर चलते बने। इन कालजयी चिट्ठियों को न किसी पोस्टमैन ने अपने थैले में डाला, न किसी ने इन्हें बाँचा, न बँचवाया, न ये चिट्ठियाँ कभी बाँटी गईं, न ही किसी रद्दी की टोकरी या आग की ढेरी के सुपुर्द हुईं।'
लेखिका ने भूटान में रहकर अध्यापन कार्य किया है, इसीलिए उपन्यास में पूर्वी भूटान का परिवेश एवं लोकाचार स्वाभाविक रूप से वर्णित है। सुकूरमनी के पात्र को उसकी चारित्रिक एवं परिवेशीय विशेषताओं के साथ प्रस्तुत करने के लिए लेखिका ने, उससे मिश्रित भाषा में संवाद कराए हैं, जिनमें हिन्दी, नेपाली, बोडो, भूटानी सभी के शब्द समाहित हैं। साहित्य में इस उपन्यास की उपादेयता को नकारा नहीं जा सकता है।
* पुस्तक : सूरज के नाम
* लेखक : जयवंती डिमरी
* प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, 18, इंस्टीट्यूशनल एरिया,नई दिल्ली
* मूल्य : 65 रु.