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दूसरी परंपरा की खोज : सशक्त कृति

राजकमल प्रकाशन

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पुस्तक के बारे मे
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इस पुस्तक में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के माध्यम से भारतीय संस्कृति और साहित्य की उस लोकोन्मुखी क्रांतिकारी परंपरा को खोजने का सर्जनात्मक प्रयास है, जो कबीर के विद्रोह के साथ ही सूरदास के माधुर्य और कालिदास के लालित्य से रंगारंग है।

आठ अध्यायों की इस अष्टाध्यायी के प्रत्येक अध्याय का प्रस्थान‍ बिंदु आचार्य द्विवेदी की कोई न कोई कृति है किंतु यह पुस्तक उन कृतियों की व्याख्या मात्र है न उनके मूल्यांकन का प्रयास ह। बल्कि उनके द्वारा उस मौलिक इतिहास दृष्टि के उन्मेष को पकड़ने की कोशिश की गई है जिसके आलोक में समूची परंपरा एक नए अर्थ के साथ उद्‍भासित हो उठती है।

  नामवरजी की यह कृति द्विवेदीजी के इस कथन को पूरी तरह चरितार्थ करती है कि पंडिताई जब जीवन का अंग बन जाती है तो सहज हो जाती है और तब वह बोझ भी नहीं रहती। यह सहज रचना एक सुपरिचित आलोचक के कृति-व्यक्तित्व का अभिनव परिचय पत्र है।       
पुस्तक के ‍चुनिंदा अं
'रवींद्रनाथ की यह धारणा थी कि वैष्णव धर्म में एक ओर भगवद्‍गीता का विशुद्ध, उच्च धर्मतत्व है तो दूसरी ओर अनार्य ग्वालों में प्रचलित देव लीला की विचित्र कहानियाँ भी उसमें सम्मिलित हैं। वैष्णव धर्म का आश्रय लेकर जो लोकप्रचलित पौराणिक कथाएँ आर्य समाज में प्रतिष्ठित हुई उनमें प्रेम, सौंदर्य और यौवन की लीला है, प्रलय पिनाक के स्थान पर बाँसुरी के स्वर हैं, भूतप्रेत के स्थान पर वहाँ गोपियों का विलास है, वहाँ वृंदावन का चिर वसंत और स्वर्गलोक का चिर ऐश्वर्य है।'
('दूसरी परंपरा की खोज' से)
***
'जान पड़ता है कि भीष्म में कर्तव्य-अकर्तव्य के निर्णय में कहीं कोई कमजोरी थी। वह उचित अवसर पर उचित निर्णय नहीं ले पाते थे। यद्यपि वह जानते बहुत थे तथापि कुछ निर्णय नहीं ले पाते थे। उन्हें अवतार न मानना ठीक हुआ। आजकल भी ऐसे विद्वान मिल जाएँगे, जो जानते बहुत कम हैं, करते कुछ भी नहीं। करने वाला इतिहास निर्माता होता है, सिर्फ सोचते रहने वाले इतिहास के भयंकर रथचक्र के नीचे पिस जाता है। इतिहास का रथ वह हाँकता है, जो सोचता है और सोचे हुए को करता है।
('ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत' से)
***

समीक्षकीय टिप्पण
आलोचना कितनी सर्जनात्मक हो सकती है, 'दूसरी परंपरा की खोज' की प्रच्छन्न भाषा शैली जैसे उसका एक प्रीतिकर उदाहरण है। नामवरजी की यह कृति द्विवेदीजी के इस कथन को पूरी तरह चरितार्थ करती है कि पंडिताई जब जीवन का अंग बन जाती है तो सहज हो जाती है और तब वह बोझ भी नहीं रहती। यह सहज रचना एक सुपरिचित आलोचक के कृति-व्यक्तित्व का अभिनव परिचय पत्र है।

दूसरी परंपरा की खोज : आलोचना
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
पृष्ठ : 144
मूल्य : 195 रुपए
लेखक : डॉ. नामवर सिंह

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