दो दशक, एक सफर-एक पड़ाव। कहने को तो यह माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पूर्व विद्यार्थियों के संस्मरणों का एक बेहतरीन संकलन है, लेकिन कुछ पन्ने पलटते ही अंदाजा हो जाता है कि यह दरअसल पत्रकारिता की रोमांचक दुनिया का एक ऐसा सफर है, जहाँ हर पड़ाव दिलचस्प है और हर मोड़ महत्वपूर्ण है।
पत्रकारिता के विगत 15-20 सालों का कालखंड अपने समस्त सूक्ष्म और भव्य बदलावों के साथ जीवंत हो उठा है। खट्टी-मीठी यादों से रचे-पगे निजी अनुभव कब पत्रकारिता के विराट परिदृश्य का प्रतीक बन जाते हैं, पता भी नहीं चलता।
1990 में मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में स्थापित यह विश्वविद्यालय देश भर में मीडिया की शिक्षा का एक प्रतिष्ठित केंद्र बनकर उभरा है। इन दो दशकों में विश्वविद्यालय से निकले असंख्य प्रतिभावान विद्यार्थी पत्रकारिता की हर विधा को समृद्ध कर रहे हैं। राष्ट्रीय से लेकर क्षेत्रीय पत्रकारिता और प्रिंट की परंपरागत दुनिया से लेकर वेब जर्नलिज्म के आधुनिक अध्याय तक,यहाँ के विद्यार्थियों ने अपनी असरदार उपस्थिति दर्ज कराई है।
देश के कोने-कोने में उच्च और जिम्मेदार पदों पर बैठे इन साथियों से अचानक 15-17 सालों बाद संपर्क और समन्वय स्थापित करना आसान नहीं था। वह भी इन डेढ़ दशकों के संघर्षपूर्ण अंतराल की पुरानी यादों को टटोलने और उसे कागज पर उतारने के आग्रह के लिए। लेकिन इस दस्तावेज में सबने खुलकर अपने सफर की यादों को ताजा किया है। वेदव्रत गिरि और आशुतोष केवलिया जब विश्वविद्यालय में गुजरे अपने एक साल तथा दोस्त और दोस्ती की बात छेड़ते हैं तो माहौल भूली-बिसरी यादों से जैसे महक उठता है।
इसलिए इन दिलचस्प संस्मरणों को पढ़ना जैसे स्मृतियों की कला दीर्घा से गुजरने जैसा है, जहाँ हर चित्र अलग और विशिष्टता लिए भी है और जिसमें समरूपता का अदृश्य कोमल तंतु भी है।
दस्तावेज का आरंभ विश्वविद्यालय के संस्थापक महानिदेशक राधेश्याम शर्मा द्वारा 1958 में लिए गए दादा माखनलाल चतुर्वेदी के दुर्लभ साक्षात्कार से होता है। यह संकलन का सबसे उल्लेखनीय पक्ष है, क्योंकि पत्रकारिता की यह विद्यापीठ उसी भारतीय आत्मा के नाम पर स्थापित है। दादा के जन्मदिवस पर सामने आया यह दस्तावेज पुरानी पीढ़ी के उन जैसे पत्रकारों को एक तरह से नई पीढ़ी की अनूठी श्रद्धांजलि भी है।
इस दस्तावेज में अपनी कलम से हाथ बँटाने वाले सभी पत्रकार मीडिया की अलग-अलग विधाओं और देश के हर कोने में काम कर रहे हैं, इसलिए यह संकलन समकालीन मीडिया का समग्र दस्तावेज बन गया है। इनमें शासकीय उपक्रम, अखबार, चैनल, रेडियो, वेब पोर्टल, जनसंपर्क, विज्ञापन एजेंसी और न्यूज एजेंसी कोई विधा अछूती नहीं रही है।
इसलिए व्यक्तिगत अनुभवों का दायरा विस्तार पाते ही पत्रकारिता के समस्त समीकरण अपने-आप में समेटता चलता है। पहला आलेख शिवकेष मिश्र का है, जो इंडिया टुडे में कॉपी एडीटर हैं। फिल्म और साहित्य में गहरी पैठ और उससे गहरी अध्ययनवृत्ति नई पीढ़ी के पत्रकारों को हतप्रभ करने वाली है। सतीश एलिया पढ़े-लिखे पत्रकार होने के फायदे गिनाते हैं। रक्षा मंत्रालय की पत्रकारिता के संपादक संजीव कुमार शर्मा लिखते हैं कि मिशन का 'म' मुनाफे के 'म' में बदल गया है और पत्रकारिता के छह ककार उलटे सवाल कर रहे हैं कि न्यूज कहाँ है?
इस सवाल से यकीनन हर संवेदनशील पत्रकार रोज जूझता है। कई और वाजिब चिंताएँ, जिनमें संपादक नाम की संस्था का क्षरण, व्यवसायीकरण, विचारों पर हावी तकनीक आदि उभरकर दस्तावेज के कोलाज को पूरा करते हैं। चिल्लर-चकल्लस वाले अनुज खरे चुटीली शैली में मीडिया में जूतारू परंपरा पर पीएचडी का मौलिक प्रस्ताव रखते हैं।
दस्तावेज दो हिस्सों में है। पहला स्मृतियों से रोशन है, तो दूसरा मँझे हुए नामी पत्रकारों की अनुभवी टिप्पणियों से सज्जित। इस हिस्से में मीडिया के कई समकालीन दिग्गज एक मंच पर पत्रकारिता की समस्त चिंताओं, प्रश्नों और भविष्य पर चर्चा करते नजर आते हैं। जयदीप कर्णिक, अभिलाष खांडेकर, रवींद्र शाह, प्रकाश हिंदुस्तानी और मुकेश कुमार जैसे प्रतिष्ठित पत्रकारों ने मीडिया के विविध आयामों की हर कोण से पड़ताल की है और अपने समय की कटु सच्चाइयों को स्वीकार करने में गुरेज नहीं किया है।
प्रभु जोशी का हिंदी की हालत पर लंबा, चिंतनपरक और सधा हुआ आलेख संकलन का सबसे गहरा बिंदु है, जिसमें भाषाई धरातल पर मीडिया की खाल खींची गई है। राकेश दीवान जैसे सामाजिक कार्यकर्ता की निगाह से मीडिया को देखना भी दिलचस्प है।
यह लेखकीय समागम इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि पूर्व छात्रों का सम्मेलन और संगठन तो लगभग सभी प्रमुख शिक्षण संस्थानों में एक परंपरा रही है, लेकिन अतीत और वर्तमान के अनुभवों को पुस्तक के रूप में प्रस्तुत करने का यह संभवतः पहला प्रयास है। इसके लिए विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला, विशेष रूप से साधुवाद के पात्र हैं।
इसलिए कि यह दस्तावेज सिर्फ विश्वविद्यालय के पूर्व विद्यार्थियों के लिए नहीं, बल्कि सभी नवागत पत्रकारों के लिए एक पाठ्यक्रम की तरह बन गया है, जिसमें यथार्थ की कठोर भूमि से उपजा व्यवहारिक ज्ञान झिलमिलाता है। यह तरीका पत्रकारिता की बेबूझ दुनिया को समझने और परखने का एक बेहतरीन विकल्प है। पुस्तक में खलती है प्रूफ की वे त्रुटियाँ, जो अर्थ का अनर्थ कर रही है।
सीमित समय सीमा में प्रकाशित होने के बावजूद इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। विशेषकर तब जब पत्रकारिता भाषा की शुद्धता के आग्रह और सवालों से जूझ रही है। ढाई सौ पेज का यह प्रकाशन यूँ तो विश्वविद्यालय का है, लेकिन आधुनिक समय की आकर्षक पैकेजिंग की कसौटियों पर भी यह पूरी तरह खरा उतरता है और आकार-प्रकार व प्रस्तुतिकरण के किसी कोण से यह सरकारी अनुष्ठान तो कतई नहीं लगता। प्रोफेशनल ढंग से इसे तैयार किया गया है। प्रकाशन के इस साहसपूर्ण अभिनव प्रयोग का श्रेय विश्वविद्यालय प्रबंधन को जाता है।
पुस्तक : दो दशक, एक सफर-एक पड़ाव प्रधान संपादक : प्रो. बृजकिशोर कुठियाला संपादक : विजय मनोहर तिवारी मूल्य : दो सौ रुपए प्रकाशक : माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल