पौराणिक पात्रों पर लिखना हमेशा ही खतरनाक रहा है। एक ओर उसकी विश्वसनीयता तो दूसरी ओर उन पात्रों की जनमानस में बैठी छवि.... दोनों के बीच संतुलन साधना बहुत मुश्किल काम है। खासतौर पर यह मुश्किल तब और गहरी हो जाती है, जब दुर्योधन जैसे किसी पौराणिक खलपात्र पर उपन्यास लिखा जाए और उस उपन्यास में अपने लेखकीय कर्म के साथ उस पात्र के साथ भी न्याय किया जाए।
एक तो ऐसे पात्रों को लेकर लोक-मानस में एक तरह का पूर्वाग्रह होता है, इसलिए उसे अलग ढंग से चित्रित कर पाने के अपने खतरे होते हैं। दूसरे, उस पात्र को उसके पूरे परिवेश और परिस्थितियों के बीच इतने विश्वसनीय तरीके से स्थापित किए जाने की चुनौती को निभाना जिसमें न तो लोक मानस को ठेस लगे और न ही लेखकीय कर्म के साथ अन्याय हो। इस मुश्किल संतुलन को साधने की कोशिश हाल ही में प्रकाशित अपने उपन्यास 'कौरवराज दुर्योधन' में प्रहलाद तिवारी ने की है।
महाभारत के अपेक्षाकृत जटिल पात्र दुर्योधन के चरित्र चित्रण में लेखक ने अतिरिक्त सावधानी बरती और अपने नायक के रूप में उसके साथ यथोचित न्याय किया। 400 पृष्ठ के इस उपन्यास की शुरुआत दुर्योधन के बचपन से होती है और अंत उसकी मृत्यु पर...। इस उपन्यास में दुर्योधन की शंकाएँ, उसके प्रश्न और जिज्ञासा को लेखक ने सहानुभूति से चित्रित किया है।
अब तक महाभारत के माध्यम से दुर्योधन खलनायक के रूप में चित्रित हुआ है, लेकिन इस प्रयास में लेखक ने उसके पूर्वाग्रहों, दुराग्रहों के साथ ही उसके प्रश्नों को तटस्थता से रखा है। एक तरह से लेखक ने खुद को दुर्योधनीय पूर्वाग्रहों से दूर रखने की एक जटिल जिम्मेदारी को बखूबी निभाया है।
इस उपन्यास के बहाने प्रहलादजी ने महाभारत काल को जीवंत तो किया है, उस दौर के प्रश्नों, समाज और जीवन दर्शन को भी उकेरने का प्रयास किया है। इसमें लेखक ने दुर्योधन को उसके पूरे परिवेश और उसके मनोविज्ञान के साथ चित्रित किया है।
पुस्तक : कौरवराज दुर्योधन लेखक : प्रहलाद तिवारी प्रकाशक : शांति पुस्तक मंदिर, ७१,ब्लॉक-के, लाल क्वॉर्टर,कृष्णा नगर, दिल्ली कीमत : 500 रुपए।