डॉ. साधना देवेश साहित्य जगत की नवोदित दस्तक है। उनकी लेखनी की रोशनी से प्रकृति का पत्ता-पत्ता व जर्रा-जर्रा जी उठा है। ग्राम्य सभ्यता से विशेष लगाव की स्पष्ट झलक इनकी कविताओं में परिलक्षित होती है।एक निबंधकार की गंभीरता व कवि की सरलता दोनों ही मानों इनकी कविताओं के विषय के मुताबिक ढल गई है। बचपन के के दिनों से लेकर जवानी के चिंतन की गंभीरता सभी को उन्होंने बखूबी शब्दों में उकेरा है। 'नन्हीं फ़ुर्सतें' और 'बचपन' में उनकी मासूमियत बखूबी झलकती है तो 'तादात्म्य' में गंभीरता। हँसी के गाँवों का ज़मींदार लगता हैधूल सना माटी खेलता खुशगवार बचपन । प्रकृति प्रेम तो जैसे इनके रोम-रोम में बसा है। 'बसंत', 'भादों' आदि कविताओं में इनकी कल्पनाएँ पंछी बनकर विचारों के उन्मुक्त आसमान में उड़ाने भरती है। जाड़े की सुनहरी धूप हो या पत्ते की नोंक पर लगी सुंदर ओस की बूँद। हर दृश्य का आभास व स्पर्श साधना जी ने पाठकों को कराया है। बड़े शौक से डालों ने पत्तियाँ नई-नई पहनी, पेड़ नई क़लमें लगने के हसीं भरम लेकर बैठे। प्रकृति का मानवीकरण करते हुए साधना जी ने उसके हर दर्द को, हर रंग को और हर परिवर्तन को अपने काव्य रूपी गुलदस्ते में सजाया है। प्रकृति का हर छोटा से छोटा परिवर्तन भी इनकी पैनी निगाहों से बच नहीं पाया है। मौसम के साथ अठखेलियाँ करते हुए भी समाज को संदेश देना नहीं भूली है। आम आदमी के दर्द का भी उन्हें बखूबी आभास है। 'दंगा' और 'मौकापरस्त' कविताएँ कुछ इसी तरह का संदेश लिए हुए है। समाज के हर वर्ग की रूचि को ध्यान में रखकर साधना जी ने शब्दों को अपनी कविताओं में उकेरा है।
भाषा में यत्र-तत्र उर्दू शब्दों भी किया गया है जो भाषा की सुंदरता में अभिवृद्धि कर रहा है। कविताओं में कहीं-कहीं सरल व साधारण शब्दों को तो कहीं गंभीर भावपूर्ण शब्दों को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया गया है।
शिक्षण व पत्रकारिता के क्षेत्र में अनुभव का रंग इनकी कविताओं में उतर आया है। आशा है, उनके चिंतन की यह यात्रा पाठकों को अच्छी लगे।
पुस्तकें : कार्तिका ,सुमित्र
लेखिका : डॉ . साधना देवेश
प्रकाशन : नर्मदा विश्वनाथ प्रकाशन
मूल्य क्रमश: -125, 150 रु: