Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

फिल्म का सौंदर्यशास्त्र और भारतीय सिनेमा

सिनेमाई वृत्ति रेखांकित करती पुस्तक

Advertiesment
हमें फॉलो करें फिल्म का सौंदर्यशास्त्र और भारतीय सिनेमा
प्रदीप कुमा
ND
सिनेमा का माध्यम क्या है, इसे समझाने के लिए जॉर्ज बर्नार्ड शॉ का यह विचार काफी प्रासंगिक है। उन्होंने सिनेमा का दूरगामी भविष्य रेखांकित करते हुए कहा था - 'देश की चेतना, देश के आदर्श, और आचरण की कसौटी वही होगी जो सिनेमा की होगी।' तो क्या माना जाए कि सिनेमा भी विचार का रूप ले सकता है। शायद कभी नहीं।

कथा-कहानियों में जितना विचारों और भावनाओं को अभिव्यक्त किया जा सकता है, उतनी भी जगह फिल्मों में नहीं बनती। बावजूद इसके अपने छोटे से इतिहास में वैचारिक आलोक में कई कालातीत फिल्में बनी हैं और उसने मानव समुदाय को बड़े पैमाने पर प्रभावित भी किया है।

सिनेमा मानवीय संवेदनाओं को झकझोरने वाला सबसे सशक्त माध्यम है। इस माध्यम की पहुँच और प्रभाव आज किसी न किसी रूप में समाज के अंतिम व्यक्ति तक है।

कमला प्रसाद ने सिनेमा, उसकी सैद्धांतिकी, तकनीक और सौंदर्यशास्त्र पर विश्व के चुनिंदा फिल्म आलोचकों की राय एक साथ संकलित और संपादित कर हिंदी पाठकों के सामने 'फिल्मों के सौंदर्यशास्त्र और भारतीय सिनेमा' नामक संकलन में रखा है। इस संकलन में विश्व की श्रेष्ठतम फिल्मों, फिल्मकारों और कई लेखकों के सिनेमा के बारे में विचार हैं। इन विचारों में सिनेमा के लगभग सभी आयामों की गहरी मीमाँसा शामिल है।

पुस्तक मूल रूप से चार खंड में विभाजित है। पहले खंड फिल्म संरचना और सौंदर्य में विदेशी लेखकों के आलेख हैं। इस खंड में आइंजेनस्टाइन, पुदोविकन, तारकोवस्की, कुरोसावा, चार्ल्स ग्रिफिथ, गोदार, बर्गमैन, सिटिजन कैन, मैकलेरेन, कार्ल डेयर, बिसल राइट, आर्सून वेल्स, बर्ट हंस्ट्रा जैसे सिनमाई दिग्गजों की अमर फिल्मों के माध्यम से पनपे नए सामाजिक मूल्यों की चर्चा शामिल है।

दूसरे खंड में फिल्म को रंगमंच का ही विस्तार बताया गया है। इस खंड के एक आलेख में प्रदीप तिवारी अपने आलेख में नाटकों से सिनेमा की ओर बढ़ते कदम पर रोशनी डालते हैं। यह भारतीय सिनेमा के शुरुआती दिनों के बारे में बताने वाला अध्याय है क्योंकि पचास के दशक के बाद सिनेमा में सामाजिक परिस्थितियों पर आधारित पटकथाओं का चलन बढ़ गया।

हिंदी सिनेमा की विश्व सिनेमा से तुलानात्मक अध्ययन पर केंद्रित है तीसरा खंड हिंदी सिनेमा। खंड की शुरुआत समाजशास्त्री आशीष नंदी के आलेख से हुई है जो मध्यवर्ग और सिनेमा की बीच के आपसी संबंध और अंतर्द्वंद्वों की पड़ताल बारीकी से करते हैं। वे सिनेमा को बहुलोकप्रिय संस्कृति तो बताते ही हैं साथ में उसकी कमियों की तरफ भी इशारा करते हैं।

इसी खंड में फिरोज रंगूनवाला का आलेख बताता है कि बेहतर समाज की रचना के लिए बेहतर सिनेमा भी गढ़ना होगा। मनोरंजन के नाम पर जिस तरह की वाहियात, बेबुनियादी, अनर्थक, असंगत, कमअक्ली बातों का बेहूदा प्रदर्शन होने लगा है, उसे फिरोज बड़ा भटकाव मानते हैं। भारतीय सिनेमा पर एकाग्र सिनेमा में यहाँ 'अछूत कन्या', 'राजा हरिश्चंद्र', 'दो बीघा जमीन' से लेकर 'पाथेर पाँचाली' और बीसवीं शताब्दी की कुछ महत्वपूर्ण फिल्मों की चर्चा शामिल है।

'मेरी फिल्में और जीवन' शीर्षक तहत सत्यजित राय अपनी तमाम चर्चित फिल्मों के निर्माण प्रक्रिया के बारे में बताते हैं। आलेख खासा रोचक और दिलचस्प है। कुल मिलाकर यह सिनेमाई वृत्ति को समझाने के लिहाज से एक उपयोगी पुस्तक है। यह कृति हिंदी में सिनेमा के उस अवकाश को बखूबी भरती है जिसके कारण इस माध्यम को सराहने की स्थितियाँ अनुपस्थित रही हैं।

पुस्तक का नामः फिल्म का सौंदर्यशास्त्र और भारतीय सिनेम
संपादकः कमला प्रसा
प्रकाशकः शिल्पायन प्रकाश
मूल्यः 400 रुप

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi