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बरखा रचाई : सरोकार की तलाश

पुस्तक समीक्षा

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हमें फॉलो करें बरखा रचाई : सरोकार की तलाश
राजीव कुमार
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'बरखा रचाई' असगर वजाहत के उपन्यासत्रयी का दूसरा भाग है, बावजूद इसके इस उपन्यास में कथावस्तु को जिस तरह प्रस्तुत किया गया है, उससे यह उपन्यास खंड अपने-आप में एक मुकम्मल कृति बन जाता है। उपन्यास में नैरेटर साजिद कृषि को व्यवसाय के रूप में अपनाने का निर्णय लेकर अपने गाँव केसरियापुर जाता है, परंतु एक फसल के बाद से दिल्ली के एक नामचीन अखबार का ऑफर मिलता है और पत्रकारिता करने वह दिल्ली आ जाता है।

दिल्ली में पत्रकार के रूप में वह एक उम्र गुजारता है। इस दौरान वह सत्ता की कारगुजारियों को नजदीक से देखता है एवं अपने सरोकार के लिए दिनोदिन स्पेस सिमटता हुआ पाता है। निजी स्तर पर हर भौतिक सुविधा के बावजूद सत्ता का पैटर्न उसे खालीपन एवं विवशता का अहसास कराता है। वह पुनः अपने गाँव लौटने का निर्णय लेता है। उपन्यास में केसरियापुर से केसरियापुर की इस यात्रा के मध्य भारतीय सामाजिक-राजनीतिक बदलाव का पूरा दौर है। इस दृष्टि से यह उपन्यास विगत दशकों के जन-उपेक्षित परिवर्तन एवं विकास का अक्स है।

यह उपन्यास सत्ता तंत्र के हर पेचोखम को सामने लाती है। वह सत्ता से अपराध का गठबंधन हो, औद्योगिक शक्तियों की निर्णायक भूमिका, नौकरशाही में पैरवी-पहचान एवं सामंती मनोवृत्ति या मीडिया में आता बदलाव। साजिद की आदिवासियों पर रिपोर्टिंग तभी तक चलती है जब तक उसकी रिपोर्ट के घेरे में औद्योगिक शक्तियाँ नहीं आती। कैबिनेट सेक्रेटरी की प्रेमिका को साधकर यहाँ राजदूत का ओहदा पाया जाता है।

और पिछड़े समुदाय के रावत को कुलीन नौकरशाही स्वीकार नहीं करती और उसकी इतनी प्रताड़ना होती है कि वह तनाव में आकर दुनिया से कूच कर जाता है। दूसरी ओर नेतापुत्र कमाल बढ़ रहा है, पहुँच वाला अहमद बढ़ रहा है, अपनी पत्नी को मंत्री राजाराम के सामने साकी बनाकर निगम बढ़ रहा है। यह उपन्यास सत्ता की विरूपता को उद्घाटित करता है, वहीं वैकल्पिक राजनीति एवं रणनीति की वर्तमान स्थिति को भी सामने लाती है। कम्युनिस्ट आंदोलन के शिथिल पड़ने की पीड़ा को उपन्यास में बार-बार महसूस किया जा सकता है।

सत्ता केंद्रित गतिविधियों के अतिरिक्त समाज के विभिन्न वर्गों की पीड़ा, उनकी उम्मीदें, उनके सपनों उनकी नियति पर उपन्यासकार की पैनी नजर है। टी.वी. से दम तोड़ती सल्लो, बाहरी लोगों को ऋण वसूलने वाला बैंककर्मी समझकर भागते आदिवासी, बिरादरी के नाम पर बेटी को बलि चढ़ाने को उद्धत अनु के परिवार वाले, राजनीतिक महत्वाकांक्षा के घेरे में पुत्र कमाल का पिता शकील पर घात।

इन सबके बीच कुछ सकारात्मक है तो साजिद का गाँव लौटकर कुछ सार्थक करने का निर्णय। 'बरखा रचाई' सत्ता की गतिविधि को प्रश्नांकित करती एवं सरोकार को तलाशती रचना है। उपन्यास में एक ऐसे समाज के निर्माण की बेचैनी सामने आती है जिसमें सबके लिए जगह हो। सिर्फ शकील सूजा, अहमद के लिए ही नहीं, दूर दराज के लोगों के लिए भी।

पुस्तक समीक्षा : बरखा रचाई
लेखक : असगर वजाहत
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
मूल्य : 350 रुपए

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