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बिछड़े सभी बारी-बारी- 1

पुस्तक अंश

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एक लेखक और फिल्मकार के निजी संबंधों के कई अनछुए प्रसंगों को व्यक्त करती पुस्तक 'बिछड़े सभी बारी-बारी' वाणी प्रकाशन ने हाल में छापी है। पुस्तक का हिंदी अनुवाद सुशील गुप्ता ने किया है। प्रस्तुत है इस पुस्तक का एक रोचक अंश :

मुझे याद है, वह सन 1961 की 1 जनवरी थी। उस दिन सभी लोग स्टूडियो में व्यस्त थे। शुरुआत का दिन! पूजा सुबह ही हो चुकी थी। जिसे कहते हैं, 'महूरत' वह सुबह ही संपन्न हो चुका था। कोई असिस्टेंट मुझे पूजा का प्रसाद थमा गया। जो कहानी मैंने सन 1940 में लिखनी शुरू की थी, जो कहानी मैं पूरे चौदह वर्ष तक लगातार लिखता रहा और जो पुस्तकाकार रूप में सन 1953 में सामने आई, जिस कहानी पर बांग्ला में फिल्म बन चुकी थी, जो कहानी बांग्लाभाषी और हिंदीभाषियों के घर-घर पहुँच चुकी थी, उसी का शुभ महूरत! उसी कहानी का नायक, भूतनाथ मेरी नजरों के सामने साक्षात हाजिर था - यह सब मानो विश्वास के बाहर था। मुझे आज भी याद है कि इस उपन्यास के लिए मुझे अकथनीय निंदा और कल्पनातीत प्रशंसा नसीब हुई थी।

लेकिन यह बात छोड़ें! अचरज से मुँह बाए, मैं गुरुदत्त की तरफ एकटक देखता रहा। जब बांग्ला फिल्म बन रही थी, मैं स्टूडियो की तरफ गया ही नहीं। वैसे वहाँ जाने के लिए गुरुदत्त की तरह किसी ने जोर-जबर्दस्ती भी नहीं की थी लेकिन इस बार संयोग से मैं बंबई आया था और गुरुदत्त मुझे जोर-जबर्दस्ती स्टूडियो में खींच लाया था।

मेरे लिए यह बिल्कुल नई दुनिया थी। विराट हॉल जैसी जगह! अंदर लोगों की भीड़! मुझे एक कुर्सी पर बिठा दिया गया। मैं इत्मीनान से बैठ गया। उपन्यास के पात्र, सुविनय बाबू का घर फिल्माया जा रहा था। सीन में बूढ़े सुविनय बाबू, भूतनाथ, ब्रज राखाल मौजूद थे। इसके अलावा जवा भी वहाँ थीं। जवा की भूमिका में - वहीदा रहमान।

वहीदा ने बंगाली लड़कियों की तरह साड़ी-ब्लाउज पहन रखे थे। साड़ी पहनने का बंगाली ढंग बिल्कुल सही था। दोपहर के वक्त कुछ देर को लंच की छुट्टी! गुरुदत्त के निजी मेकअप-रूम की बगल में ही खाने का कमरा! खाना वहीं परोसा गया। मैं, गुरु, गीता और वहीदा खाने बैठे, गीता को देखकर मुझे अचरज हुआ। इससे पहले गीता को कभी स्टूडियो में नहीं देखा था।

'अरे, आप? आपको स्टूडियो में पहले कभी तो नहीं देखा?' मैंने ही बात छेड़ी।

'आज इस फिल्म की शुरुआत थी इसलिए चली आई,' गीता ने जवाब दिया।

गुरुदत्त ने खाते-खाते ही कहा, 'नहीं, गीता को तो मैं बुलाकर लाया हूँ। वहीदा को बंगाली ढंग की साड़ी पहननी नहीं आती थी इसलिए उसे साड़ी पहनाने के लिए मैं इसे खींच लाया।'

'कैसी लग रही हूँ मैं !' वहीदा ने पूछा।

'बहुत अच्छी लग रही हैं,' मैंने तारीफ की।

'बिल्कुल बंगाली लड़की जैसी दिख रही हूँ?'

'सौ प्रतिशत!'

मुझे कुछेक महीने पहले की बातें याद आने लगीं। इसी वहीदा रहमान को 'जवा' की भूमिका न दी जाए, गीता ने मुझसे अनुरोध किया था। मैं भी ऊहापोह में था। अब कहीं इसी बात को लेकर कहीं कोई गड़बड़ न हो।

लेकिन गीता के चेहरे का भाव देखकर मुझे बेहद अच्छा लगा। वहीदा रहमान और गीता को एक ही मेज पर देखकर मुझे बेहद भला लगा। मैंने गौर किया, दोनों में काफी सद्भाव था। वहीदा रहमान गीता को 'गीताजी' कहकर संबोधित कर रही थीं, गीता भी वहीदा को 'वहीदाजी' कहकर बातें कर रही थी। दोनों को आपस में बातचीत करते देखकर मुझे ऐसा लगा मानो वे दोनों एक ही परिवार की दो बहनें हों।

गीता ने कभी मुझसे कहा था, 'जानते हैं, मैं वहीदा पर बेहद भरोसा करती थी।'

मैंने खुद भी नारी-चरित्र को लेकर ढेरों कहानियाँ, उपन्यास लिखे हैं और नारी-चरित्र बहुतायत से लिखने के लिए, मैं जरा बदनाम भी हूँ कि हो न हो, मैं जरूर अनगिनत औरतों के संपर्क में आया हूँ लेकिन यह सच नहीं है! दरअसल, इंसानी चरित्रों का संपर्क नसीब होते ही मुझे खुशी होती है। चाहे वह औरत हो या मर्द, मनुष्य मात्र मुझे आकर्षित करता है।

जैसे बहुत से लोगों को समंदर, पहाड़, नदी आकर्षित करते हैं, उसी तरह मुझे इंसान मुग्ध करता है। इंसान जितना विचित्र हो, मुझे उतना ही मजा आता है। ऐसा इंसान अगर मिल जाए तो घड़ी के काँटों की तरफ मेरी नजर ही नहीं जाती। उस वक्त मैं सब कुछ भूल जाता हूँ। वह इंसान भले महान न हो, मशहूर न हो, विद्वान भी न हो, मुमकिन है, वह इंसान गरीब, चोर, लंपट, झूठा हो, मैं इंसानों का इंसानी तौर पर ही विचार करता हूँ। इंसान का दोष-पाप, भूलें, गुण, महत्व, नीचता - मुझे इन सबकी जरूरत है। मुझे इन सबमें आनंद आता है।

खाने के बाद, शूटिंग की घंटी बज उठी।

गुरु और वहीदा स्टूडियो में चले गए। मैं और गीता वहीं रह गए।

मैंने पूछा, 'आपको शूटिंग कैसी लग रही है?'

'अच्छी लगी! किसी दिन मैंने ही उन्हें यह फिल्म बनाने को मना किया था।'

'क्यों?'

'क्योंकि 'साहब-बीबी-गुलाम' हमारी ही जिंदगी की कहानी है।'

मैं अचकचा गया।

'यह आप क्या कह रही हैं?'

'हाँ, उनसे भी मैंने यही कहा था,' गीता ने जवाब दिया । 'मैंने उनसे पूछा भी था - आप यह फिल्म क्यों बना रहे हैं? सिर्फ मैं ही नहीं, बहुत-से लोग इस फिल्म के लिए उन्हें मना करते रहे।'

उधर इतनी देर शूटिंग करती हुई वहीदा का जो चेहरा मैंने देखा था, वह सचमुच मेरी जवा थी। वह बंगाली लड़की थी। अब, जिसके बारे में सुन रहा था, वह वहीदा रहमान थी। गैर-बंगाली मुस्लिम महिला! लेकिन मुझे लगा, फिल्म के बाहर भी वह मानो वही बंगाली महिला है। उसने सेट पर जो साड़ी पहन रखी थी, उसके बाद भी वह, वही साड़ी पहने रही। जुबान से भले हिंदी बोल रही हो लेकिन असल में वह चिरकालीन औरत थी। मैंने उन दोनों ही औरतों को देखा था।

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गुरु वहीदा के बारे में बहुत सारी बातें बताता रहा। उसने वहीदा को कैसे अभिनय सिखाया, कैसी-कैसी तकलीफें उठाकर, उसने उसे फिल्मों में उतारा। उन दिनों वहीदा को भला पहचानता कौन था? उसका नाम तक भला कौन जानता था? वह तो एक दिन हैदराबाद में गुरु की नजरों में आ गई और उसके बाद उसने फिल्म जगत में कदम रखा और प्रतिष्ठा-सफलता के शिखर पर आ बैठी।

वह सिर्फ प्रतिष्ठा के शिखर तक ही नहीं पहुँची बल्कि गुरु के पारिवारिक जीवन से भी एकबारगी जुड़ गई थी। जब फिल्म का काम नहीं होता था,वह तब भी स्टूडियो में आती थी, जब फिल्म का काम चल रहा होता था तब तो आती ही थी, आना ही पड़ता था। वह कंपनी की स्थायी आर्टिस्ट थी। फिल्म की जरूरत पर ही वह अपरिहार्य जरूरत बन गई थी। कंपनी को उससे काफी फायदा हुआ था, वहीदा भी उस कंपनी से जुड़कर काफी फायदे में थी। दोनों लोग, दोनों के लिए पारंपरिक जरूरत बन गए थे।

उसके बाद दोनों ही पक्ष एक-दूसरे से मिलते-जुलते रहे। मौके-मौके से एक दूसरे के सुख-दु:ख में भागीदार बनते गए। उस कंपनी में जितनी भी फिल्में निर्मित हुई, वहीदा ही उन फिल्मों की नायिका बनीं। इससे कंपनी के सुनाम में भी चार चाँद लगे और वहीदा की शोहरत भी बढ़ती गई।

देखते-ही देखते गुरुदत्त के पारिवारिक जीवन में किसी अशांति का बीज भी जाने कब बो दिया गया था, इसकी खबर किसी को भी नहीं हुई। जब इसका अहसास हुआ, तब तक उस बीज में अंकुर निकल आया था। सबके अनजाने में अब उसकी जड़ें, उन सबके जीवन में गहरे उतर कर, सब पर असर डाल रही थीं। (क्रमश:)

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