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बिन पानी कहाँ की कुइयाँजान

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दुनिया की एक सबसे बड़ी जरूरत और एक सबसे गर्म मुद्दा, पानी। वो पानी जो जब बहुतायत में मिलता है तो हम उसकी कद्र नहीं करते और जब उसकी तंगी होती है तो हम अपनों के खिलाफ भी लठ उठा लेते हैं। पानी चीज ही ऐसी है। इसी पानी के इर्द-गिर्द ताना-बाना बुनती हैं नासिरा शर्मा, अपने उपन्यास 'कुइयाँजान' में।

कुइयाँजान कहानी है मुनष्य के अलग-अलग चेहरों की। जिन्हें पानी के बहाने एक-दूसरे से जोड़ा गया है। यहाँ परिवार हैं, समाज के विभिन्न तबके हैं और हर समाज की तरह कुछ लोग ऐसे भी हैं जो समाज के बारे में सोचते हैं। कहानी का मुख्य पात्र है रसूखदार मुस्लिम परिवार का एक युवा डॉक्टर, जो लोगों के दर्द और तकलीफ को गोलियों और इंजेक्शन के अलावा भी समझता है। इस काम में उसका साथ देती है उसकी पत्नी। ,

इस परिवार और इससे जुड़ते अलग-अलग पात्रों के जरिए कहानी आगे बढ़ती जाती है। इस बीच डॉक्टर जल संरक्षण तथा ऐसे ही अन्य मुद्दों पर आयोजित राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय परिचर्चाओं तथा सम्मेलनों में भी प्रतिभागी बनता है तथा निश्चय करता है कि उसे इस विषय पर क्या काम करना है।

वह राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में जाकर वहाँ के लोगों की दिक्कतों से आहत होता है और अपने शहर में एक विदेशी सहयोगी के मददगार रवैये से संबल भी पाता है। समाज के अलावा उसके पास पारिवारिक जिम्मेदारियाँ भी हैं जिन्हें उसे पूरा करना है। अपने-आप में डूबता-उबरता वह किस तरह अपने लक्ष्य को निश्चित कर उसकी ओर बढ़ पाता है, यह जानना रोचक है

भर गर्मी में पीने के पानी की तंगी से जूझ रहा शहर और फिर उसके बाद बारिश में जमा गंदगी से पनपी समस्याओं को भुगतता शहर। कुछ प्रतिशत पढ़े-लिखे तबके को छोड़ दें तो भारत में ज्यादातर लोग आज भी हेल्थ और हाईजीन जैसे शब्दों का मतलब भी नहीं जानते। इनमें पढ़े-लिखे लोगों का भी शुमार हो सकता है

ऐसे में निचले तबके से तो उम्मीद भी करना बेकार है। प्रशासनिक व्यवस्थाओं का वही उनींदा आलम और जनता तो अफीम के नशे में है ही, उसका नशा जैसे ही टूटता है, वह चीख-पुकार मचाने पर आमादा हो जाती है और फिर चंद बहानों से बहल जाती है। पानी, पर्यावरण और स्वास्थ्य, मुद्दे सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं लेकिन इनके बारे में कोई भी अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाना चाहता।

सब चाहते हैं कि उनके बदले कोई और आकर इस काम को कर डाले और वे आराम की जिंदगी बसर करते रहें। पानी की तंगी और उससे जूझते जानवर-मनुष्य किसी एक शहर की कहानी नहीं, इसलिए कुइयाँजान इस एक शहर के जरिए सारे देश के हालात बयाँ कर जाती है। नासिरा ने साबित कर दिया कि 'पानी गए ना ऊबरे, मोती, मानुस चून।'
  भर गर्मी में पीने के पानी की तंगी से जूझ रहा शहर और फिर उसके बाद बारिश में जमा गंदगी से पनपी समस्याओं को भुगतता शहर। कुछ प्रतिशत पढ़े-लिखे तबके को छोड़ दें तो भारत में ज्यादातर लोग आज भी हेल्थ और हाईजीन जैसे शब्दों का मतलब भी नहीं जानते...      


दरअसल जल संरक्षण के हमारे प्रयास, पर्यावरण के प्रति हमारी चेतना का 'आम' होना अभी शेष है। जब तक ये हर सामान्य जन की जिम्मेदारी का हिस्सा नहीं बनता, तब तक प्रयास, प्रयास ही रहेंगे, परिणाम नहीं बन पाएँगे। कुइयाँजान का अर्थ है कुआँ जिस का पानी पोषण देता है, जीवन देता है। लेकिन जिसकी सार्थकता को हम बिसराते जा रहे हैं। जब पानी ही नहीं रहेगा तो कुइयाँजान का सूनापन हमारी जिंदगियों को भी खाली कर देगा।

पूरा उपन्यास रोचक अंदाज और सहज तरीके से इस मुद्दे पर आवाज उठाता है, इस आवाज पर अगर हमने अभी गौर नहीं किया तो शायद काफी देर हो जाएगी

पुस्तक- कुइयाँजान
लेखक- नासिरा शर्मा
मूल्य- 400 रु.
प्रकाशक- सामायिक प्रकाशन,
3320-21, जटवाड़ा,
नेताजी सुभाष मार्ग,
दरियागंज, नई दिल्ली

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