'बीच की धूप' 1990 से पहले के भारत में हो रहे सांप्रदायिक दंगे, ऑपरेशन ब्लू स्टार, इंदिरा गाँधी की हत्या, भोपाल त्रासदी से लेकर 'इमरजेंसी' तक की घटनाओं की ऐतिहासिकता का सिलसिलेवार वर्णन है। इतनी सारी घटनाओं, दुर्घटनाओं, अत्याचारों और पत्रकारिता के विभिन्न पक्षों को एक साथ संभालना महीप सिंह जैसे बड़े जीवट और धैर्य के लेखक का काम था, जिसे उन्होंने बड़ी बारीकी, कारीगरी और कुशलता से निभाया है।
इस पूरे उपन्यास में तीन मुख्य मुद्दे, हमारे सामने कथानक के माध्यम से उभरकर आते हैं। पहला है अपराध की दुनिया का वह बेनकाब दृश्य जहाँ बल्ली और रहमत, मुंबई की दादागीरी वाली गुनाह की गलियों में घूमते नजर आते हैं। साथ में है वह समूची प्रक्रिया, जिसके कारण वे अपराधी तो बने, परंतु वैसे आदमखोर नहीं बने जो अंडरवर्ल्ड की क्रूर हत्याओं की साजिश में उलझकर दरिंदे बन जाते हैं।
दूसरा चित्र है आनंद का। संपादकीय वर्ग से जुड़े उस वातावरण का, जिसमें 'ग्लैमर के सहारे मीडिया के लोकपक्ष और विपक्ष के साथ-साथ पत्रकारिता पर पड़ रहे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दवाबों का जिक्र है। कथानक का नायक आनंद और उसके सहयोगी समूचे उग्रवाद से जूझते हुए मानवाधिकारों के लिए आवाज बुलंद करते दिखाई पड़ते हैं।
इस चित्र में लेखक ने बड़ी कुशलता से एक मित्र मंडली कायम की है जो कॉफी हाउस में बैठकर कॉफी की गर्म भाप के साथ उस समय की घटनाओं का ब्यौरा देते हैं और उन्हीं से पूरे कथानक का सेतु-बिंदु जुड़ता है। वही सारी विगत और वर्तमान में घट रही नकारात्मक खबरों को 'न्यूज-वैल्यू' का जामा पहनाते हैं जो 'ग्लैमर' के पन्नों पर छपकर सभी प्रकार की विचारधाराओं से पाठक से अपना एक संवेदनात्मक संबंध जोड़ता है। तीसरा चित्र है सुनंदा का चरित्र। वह, अपनी सृजन बुद्धि और चतुराईपूर्ण सोच से उस 'मीडिया वर्ल्ड' का नरतत्वीय ब्यौरा देती है।
मुझे आनंद का चरित्र एक ऐसी खूँटी जैसा लगता है, जिस पर सभी कुछ टंगा है। सुनंदा चाह कर भी अपने जर्नलिस्ट वर्ल्ड का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकी जिसकी पाठक अपेक्षा कर रहे थे। लेखक ने सुनंदा को या आनंद को वह पैडस्टल नहीं दिए जो आज के पत्रकार धड़ल्ले से हथिया कर पूरे मीडिया पर छाए हुए हैं। सुनंदा और आनंद के बीच के कम से कम एक दो अनुरागात्मक संबंध के दृश्य भी लिखे जाने चाहिए थे जो उनके विचारों की मीमांसा करते।
उपन्यास अपनी एतिहासिक घटनाओं की बदस्तूर रिपोर्टिंग के लिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज जैसा है, जिसमें भारत के राजनैतिक फलक पर घटित महत्वपूर्ण घटनाक्रमों को तारीखों के साथ पेश किया गया है। महीप जी ने बड़ी कुशलता से सारी व्याख्याओं और विवेचनाओं को उसमें तरतीबबार संजोया है। वह पुराना समय बीत गया है और आने वाला समय भी लगातार सामने से गुजर रहा है जिसमें और भी बहुत कुछ घटित हुआ है।
जैसे आज भी हम मुंबई में 26/11 वाली दुर्घटना के निकट खड़े है। मुझे लगता है उसका ब्यौरा उनके नए उपन्यास में हमें मिलेगा। शायद वह सारी हकीकत भी जो आँख से नजर नहीं आती। पता नहीं क्यों मुझे उपन्यास में एक कमी लगी वह है क्लाईमेक्स-एक सनसनाहट भरी चीख-एक सतह को फोड़कर बाहर आता असाधारण तत्व-ऊपर उठने की संभावना वाला चरित्र जिसका अभाव जैसा महसूस होता है।
पुस्तक : बीच की धूप (उपन्यास) लेखक: महीप सिंह प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन मूल्य: 295 रुपए