'वसंत के हत्यारे' ह्रषीकेश सुलभ की कहानियों का संकलन है। इन कहानियों में न केवल समाज के बदलाव की गूँज है बल्कि समाज के विभिन्न सतहों पर विस्फोटित होते विघटन का भी यथार्थ चित्रण है। सीधी सरल नदी की तरह नहीं बहती है ये कहानियाँ। बहाव है पर बीच-बीच में कई धाराएँ टूटकर निकल जाती हैं और फिर सहसा ही फिर किसी धारा के मिलने से जी उठती है।
यही अनिश्चितता इन कहानियों का असली सौंदर्य है। एक-एक दृश्य जैसे साँसें लेता है, हर कंपन के साथ कथा का जीवन आगे बढ़ता है, हर एक चरित्र काले से सफेद रंगों की डोर पर एक कुशल नट की तरह संतुलन बनाए आगे-पीछे सरकता रहता है। बिना किसी भी किनारे को पूरी तरह छुए ठीक वैसे ही जैसे असल जीवन में होता है। जहाँ कभी भी मानव मनोवृत्तियाँ, धोई-पोंछी, अलमारियों में तहाकर सजाई नहीं होतीं, मानव स्वभाव के असल फूल काँटों के संग ही खिलते हैं। इन्हीं फूलों को जो शायद यूं ही गुमनामी में मुरझाकर बिखर जाते, उनको साक्षात सामने लाकर उनसे संप्रेषण का प्रयास है लेखक का यह कथा संग्रह।
सुलभ से गाँव की मिट्टी का रंग छूटा नहीं है। लेखक की भाषा से शायद उस मिट्टी की कहानी, उसी मिट्टी के रंगों और शब्दों के साथ सार्थक हो पाई है। शब्दों के इस्तेमाल के मामले में लेखक खर्चीला बिल्कुल नहीं है। इन कहानियों की नायिकाएँ मॉडर्न, खुले बालों वाली, फैलते शरीर को जबर्दस्ती टाइट जींस और लाँग टाप में समेटती, सुगंधों के लच्छे उड़ाती नायिकाएँ नहीं हैं, अपनी ताकत से वाकिफ हैं। अष्टभुजा लाल जब व्यक्तिगत इतिहास का खंजर श्रीमती कुसुम कुमारी के सीने में घोंपते हैं, तब कुसुम कुमारी भी उनके नाम में छुपे रहस्य की तलवार से प्रति हमला करती है। वहीं लुबना 'खुला' सिर्फ इसी एक शब्द से ऊँची चहारदीवारी वाले हसनपुर के, सात सौ सतासी मकानों के बीच इकलौते पक्की ईटों वाले, पकवाघर की एक-एक ईंट में दरार कर देती है।
'वसंत के हत्यारे' का नायक अपने ही जनाजे का मुआयना करता है और मौत और जीवन के बीच में संदिग्ध दायरे के बीच झूलते हुए न पल्लवित हो सकने वाले, कमला के वसंत पर क्षोभ करता है। लेखक का ढंग स्वयं से संवाद करते आम आदमी का ढंग है। समाप्ति भी कभी-कभी इंगित में ही रहती है। चाहे तो पाठक इंगित चिन्हों से कथा का आशय, लेखक की दृष्टि को समझ ले, या फिर स्वतंत्र दृष्टि रखते हुए कुछ और नजरिया गढ़ ले।
'कुसुम कथा' में तो लेखक ने न केवल एक ही सच्चाई को अलग-अलग चरित्रों के दृष्टिकोण से व्यक्त किया है बल्कि कुसुम बुआ की अपनी जीवन कथा का भी, सच जो कि कभी स्वयं उन्होंने अनुभव किया है और झूठ जो मान-मर्यादा कुल-खानदान की इज्जत बचाने का साधन है, इन दोनों रंगों में रंगा है।
मानसिक, विषमता और जटिलता इतनी कि, जेठूमंडल मुआवजे के लोभ में अपनी ही महतारी को, डाइन कोशी के रूप में देखता है और दूसरी तरफ 'हाँ मेरी बिट्टू' में नायक, अन्नी में ही अपनी बेटी का अक्स पा लेता है। कुल मिलाकर किताब में नपा-तुला, व्यवस्थित, और नियंत्रित कृत्रिम बगीचे का सौंदर्य न होकर, मिट्टी की गंध से सराबोर, हरे-भरे खंबेदार पेड़ों, काँटों पर बैठे आकाश से नजर मिलाते फूलों-पत्तों से लदी घाटियों का जादू है।
पुस्तक : वसंत के हत्यारे लेखिका: ह्रषीकेश सुलभ प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन मूल्य : 160 रुपए