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व्यक्तिगत होते हुए जीवन-राग से परिपूर्ण

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- ओम ठाकुर

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खुद को बाहर लाने की छटपटाहट जब कविता बनती है तो प्रेमलता निझावन के 'मैं इस कगार पर हूँ' संग्रह की-सी रचनाएँ जन्म लेती हैं। जो होती हैं- अपने संवेदन और अपनी बुनावट में एकदम सरल-सीधी, अकृत्रिम और अनलंकृत। निराशा में मन उलाहना दे सकता है, हताशा व्यक्तकर सकता है, निष्क्रिय हो सकता है, किंतु प्रेमलता ऐसे क्षणों में कुछ इस तरह व्यक्त होती हैं- 'जब-जब पीड़ा से सजती आहें/जब सारी जगती/जल-जलकर/मेरा नेह सुखाती है/मैं गा देती हूँ देव।'

दुःख, क्लेश और पीड़ा में गाना, दुःख को रचनात्मक संस्कार में बदल देना नहीं है क्या? दर्द की समग्रता में जो अपना होना पहचानती है, दर्द जिसके लिए मेहर, दहेज, मान और शान है, वह जब यह कहती है कि 'दर्द ही जीवन दान है' तो दर्द अपनी सात्विक अभिव्यक्ति में, क्या बहुत जरूरी और उजला अर्थ नहीं पा जाता है? शायद पीड़ा का भी एक अहं होता है और उसे जीवित रखने की चाह, मनुष्य को विलक्षण तुष्टि देती है। यह चाह मीरा में भी थी, किंतु प्रेमलता निझावन की चाह से एकदम भिन्न और लगभग विपरीत।
खुद को बाहर लाने की छटपटाहट जब कविता बनती है तो प्रेमलता निझावन के 'मैं इस कगार पर हूँ' संग्रह की-सी रचनाएँ जन्म लेती हैं। जो होती हैं- अपने संवेदन और अपनी बुनावट में एकदम सरल-सीधी, अकृत्रिम और अनलंकृत।
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निझावन कहती हैं- 'जो तेरा/नाम लेती हूँ/तो दोजख की/आज के माने/जल जाती हूँ/भुन जाती हूँ/पर रंग नहीं आता/क्योंकि वह आग दोजख की है/तुम/उस दोजख की/आग के/क्या लगते हो।' चर्चा में रहना कौन नहीं चाहता और किसे अच्छा नहीं लगता चर्चा में रहना। चर्चित व्यक्ति स्वयं में ज्यादा जीवंत और सक्रिय होता हैऔर प्रेमलता के लिए तो चर्चा में रहना मरणोपरांत जी उठने से कम नहीं है- 'हम न रहेंगे/तो कोई बात नहीं/चर्चा के बहाने तो होंगे/आने-जाने के/पैमाने भी होंगे/बस फिर/जी उठेंगे हम।' संग्रह की कविताएँ लगभग व्यक्तिगत होकर भी जीवनराग से परिपूर्ण हैं।

अपने समय और परिवेश का दर्द यदि व्यक्तिगत स्वर में भी पाठक तक पहुँचे तो यह रचनाकार की सफलता है। कलात्मकता का अभाव भले ही महसूस हों, किंतु बात की ताकत तो अपना प्रभाव और अर्थ रखती ही है। प्रेमलता का फ्रेंच, उर्दू, अँगरेजी, रूसी, संस्कृत एवं पंजाबी पर अच्छा अधिकार है। साथ ही वे अच्छी चित्रकार, पर्यावरण प्रेमी और संगीत में गहरी पैठ रखती हैं, किंतु कविता में इस सबकी गूँज का नहीं सुनाई देना अखरता है।

* पुस्तक : मैं इस कगार पर हूँ
* कवयित्री : प्रेमलता निझावन
* प्रकाशक : पारुल प्रकाशन, 889/58, त्रिनगर, दिल्ली-35
* मूल्य : 80 रुपए।

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