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सपनों की पाठशाला का सच

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-नीहारिका झा

वी.आर. जोगी और पी.जी. वैद्य के उपन्यास का हिन्दी अनुवाद 'बिगड़े बच्चे सबसे अच्छे' बिल्कुल नया प्रयोग है। 'पेंगुइन बुक्स इण्डिया' प्रकाशन के इस उपन्यास का अनुवाद डॉ नीला माधव बोर्वणकर ने किया है, जो गरवारे महाविद्यालय पुणे में हिन्दी विभाग में वरिष्ठ व्याख्याता हैं। पेशे से लेखिका वेदवती जोगी एजुकेशनल एण्ड डवलपमेंट एवं कम्युनिकेशन में सलाहकार के पद पर कार्यरत है। वहीं उपन्यास के विषय-सलाकार पी.जी.वैद्य लक्ष्मणराव आप्टे प्रशाला एण्ड जूनियर कॉलेज के संस्थापक-प्रधानाध्यापक हैं। सबको मिले समान शिक्षा के सिद्धांत पर आधारित इस उपन्यास के पात्र हमारी शिक्षा प्रणाली को कटघरे में खड़ा करते हैं। चाहे वह रौबदार राजा और दत्तू हों या गणित में कमजोर राधा।

सभी अलग-अलग परिस्थितियों में स्कूल से निकाले हुए किस्मत के मारे छात्र हैं। जिनका एकमात्र सहारा हैं त्रिपाठीजी यानी यूँ कहें उनके प्यारे मास्टरजी। इन किरदारों के माध्यम से लेखिका ने स्कूली शिक्षा के तामझाम और ढकोसलों को उजागार किया है। अंकों के आधार पर बच्चों से किया जाने वाला बर्त्ताव निःसंदेह किसी से छुपा नहीं है। हर स्कूल की यही दास्तान है, ऊँची फीस और अंकों का खेल। यह उपन्यास उस रूढ़िवादी सोच को बदलने का बेहतरीन प्रयास है। शिक्षा और ज्ञान किसी एक की बपौती नहीं होती। यह उपन्यास वैकल्पिक शिक्षा का भी पुरजोर समर्थन करता नजर आता है।

बच्चों, मास्टरजी और नीरा के सपनों के स्कूल यशवंत विद्यालय का खड़ा होना इस बात का सूबत है कि एक छोटी-सी चिंगरी भी भवन को जलाकर राख कर सकती है। विभिन्न घटनाक्रमों के माध्यम से कई सामाजिक बुराइयों पर भी कुठाराघात करने का प्रयास किया गया है। 13 साल की मासूम कम्मू की शादी का रूकना, कालू भगत के झाड़-फूँक के धँधे का चौपट होना उसी दिशा में किया गया प्रयास है। मास्टरजी का विद्यालय में प्रौढ़ शिक्षा का शुरू करवाना, बच्चों द्वारा गाँव में बायोगैस प्लांट का लगवाना ऐसी बुनियादी जरूरते हैं जिनकी ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी दरकार है। अपने-अपने स्कूलों से निकाले गए उन बच्चों के लिए प्रकृति और आस-पास का सामाजिक वातावरण स्कूल था। रतनचंद सेठ की मदद से उनके सपनों का स्कूल यशवंत विद्यालय साकार रूप लेता है। जहाँ उन बच्चों को जिन्हें समाज ने नकारा समझकर दरकिनार कर दिया था, उन्हीं बच्चों ने साबित कर दिया कि प्रतिभा चारदीवारी की मोहताज नहीं होती।

भारतीय संस्कृति की लुप्त हो चुकी गुरूकुल परम्परा को इस उपन्यास के माध्यम से फिर से जीवित करने का प्रयास किया गया है। यह उपन्यास उन लोगों के लिए भी अनुकरणीय है जो अपने बच्चों को केवल अंकों के आधार पर तौलते हैं और जाने-अनजाने में उनके मानसिक विकास का मार्ग अवरूद्ध कर देते हैं। लेखिका ने मास्टरजी और बच्चों के संवाद में जो प्रवाह पैदा किया है, वह प्रशंसनीय है। बच्चों को किताबी कीड़ा बनाने से बेहतर है उन्हें ऐसा इंसान बनाना जिसका ज्ञान वास्तविकता के धरातल पर खड़ा हो। उसे आगे बढ़ने के लिए किसी बैसाखी की जरूरत न पड़े। बच्चों की व्यवहारिकता, ईमानदारी और उनके कठिन परिश्रम की प्रवृत्ति हमें सोचने पर मजबूर करती है कि कहीं-न-कहीं हमारी शिक्षा प्रणाली में सुधार की जरूरत है? शिक्षाविदें को उस पर पुनर्विचार करने पर मजबूर होना पड़ेगा।

उपन्यास : 'बिगड़े बच्चे सबसे अच्छे'
मूल्यः 85 रुपए
प्रकाशकः पेंग्विन बुक्स लि.
मुद्रकः अनुभा प्रिंटर्स, नोयडा

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