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सहज अनुभूतियों के झिलमिलाते रंग

पुस्तक समीक्षा

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कविताओं और गज़लों के संग्रह 'उस पार का सच' के साथ ग्वालियर की डॉ. ऋचा सत्यार्थी ने कविताओं की दुनिया में कदम रखा। चिकित्सा जैसा धुर वैज्ञानिक क्षेत्र और कविता जैसी नितांत भावनात्मक विधा के बीच संतुलन साधती ऋचाजी ने अपने अहसासों को सूक्ष्मता के साथ पकड़कर शब्दों और भावों से सजाया है। यूँ तो वे पहले भी प्रकाशित, प्रशंसित और पुरस्कृत होती रही हैं लेकिन इस संग्रह के साथ अपनी अभिव्यक्ति को और ठोस रूप दे दिया। इस संग्रह में उनकी 25 कविताएँ और 19 ग़ज़लें शामिल हैं।

इन कविताओं में भावनाओं की गहराई है तो कहीं छीज रहे जीवन मूल्यों का सहज दर्द उभरकर आया। इनमें जिम्मेदारी है, दर्द है, उदासी, उल्लास होने के साथ ही जीवन के कई सारे रंग बिखरे पड़े हैं और कई बार प्रकृति खुद इसका निमित्त बनी हैं। इन कविताओं में व्यक्तिगत अनुभूति के माध्यम से कई सामाजिक मसले गूँजे हैं। जैसे कविता 'सौगंध' में कश्मीर की स्थिति पर एक दबी-छुपी आग है तो कहीं देश के प्रति संकल्प का राग भी सुनाई पड़ता है। उसी तरह नॉस्टेल्जिया भी कहीं-कहीं उभरकर नजर आता है।

गुज़रे हुए के प्रति उमड़ता मोह जाहिर हुआ है 'वो बहारों के दिन में'।

'याद फिर आने लगे/एक अरसे बाद
वो सावन, वो बातें/वो चाँदनी रातें!'

फिर से ले जाता है, उस दुनिया में जो बेबाक थी, सहज थी और अपनी भी...।

एक तरफ जहाँ कविताओं में कई रंग उभरे हैं, तो गज़लों के सुर भी मुख़्तलिफ हैं। इसमें भी प्रकृति माध्यम होती नजर आई है। फिर भी गज़लों में मूल स्वर दर्द, याद और उदासी का ही नजर आया। खुद ऋचा के ही शब्दों में:

'बेख़ुदी में जब बात ग़ज़लों से करना आ गया/
ज़िंदगी के कागज़ों में रंग भरना आ गया।'

कवि ने छोटी-छोटी अनुभूतियों को सहज शब्दों के मोतियों में पिरोकर अपनी अभिव्यक्ति को आकार दिया है।


पुस्तक : उस पार का सच
कवयित्री : डॉ. ऋचा सत्यार्थी
प्रकाशक : ज्ञान मंदिर पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, ग्वालियर
कीमत : 150 रु.

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