व्यंग्य एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा आप व्यवस्थाओं के खिलाफ मजेदार तरीके से असरदार मोर्चा खोल सकते हैं। असल में व्यवस्थाओं की बदहाली किसी एक की दुखती रग नहीं है और जब आदमी हर ओर इनसे घिर जाता है तो वह प्रतिक्रिया भी देता है। व्यंग्यकार यही प्रतिक्रिया थोड़े कटाक्ष के साथ देता है जिससे यह मनोरंजक तरीके से पाठक के दिल तक पहुँच जाती है।
अब चाहे वो किसी नेता के भ्रष्टाचार में लिप्त होने का खुलासा हो या फिर जोड़-जुगाड़कर साहित्यकार बने किसी व्यक्ति के 'साहित्यिक ज्ञान' की पोल... व्यंग्य की पैनी धार के लपेटे में सबकुछ आ सकता है। पिलकेंद्र अरोरा का व्यंग्य संकलन 'साहित्य के प्रिंस' ऐसी ही कुछ तस्वीरें पेश करता है। यहाँ लेखक के सपने में माधुरी दीक्षित भी आती हैं, मुख्यमंत्री भी और हरभजन सिंह भी।
ख्वाबों की ये मनचाही कहानियाँ व्यंग्य के रूप में पन्नों पर आकर पाठकों को गुदगुदाती भी हैं और व्यवस्थाओं पर प्रहार करने का भी काम करती हैं। संकलन में चालीस से कुछ ज्यादा व्यंग्य संग्रहीत हैं जो अलग-अलग विषयों को पैने कटाक्ष के साथ प्रस्तुत करते हैं।
इनमें स्वयंभू साहित्यकारों का विश्लेषण है तो जाँच आयोग की कार्यविधि का चरित्र-चित्रण भी है। किसी व्यंग्य में शिक्षा व्यवस्था पर करारी चोट की गई है और बच्चे के स्कूल एडमिशन को महायुद्ध बताते हुए विजय उत्सव का निमंत्रण पत्र लिखा गया है। वहीं एक अन्य व्यंग्य में नेताओं के कुर्सी प्रेम पर कटाक्ष किया गया है। इस व्यंग्य में गीता-सार की तरह नेताओं को संबोधित कर कुर्सी प्रेम का मोह छोड़ने के संदेश कुछ इस तरह दिए गए हैं।
हे कुर्सीकुमार... जन्म-जन्मांतर से ही तेरा कुर्सी से पवित्र प्रेम रहा है। शायद तू नहीं जानता मनुष्य के विकास की पहली अवस्था में, जब तू भी बंदर था, तब वृक्षों पर खूब उछलकूद करता था। ये कुर्सियाँ उन्हीं वृक्षों की लकड़ियों से बनी हैं।
मुख्य व्यंग्य, साहित्य के प्रिंस, में एक कथित 'उपेक्षित' साहित्यकार के रसातल में जाने के इरादे को देखने के लिए जुटी भीड़, इस महत्वपूर्ण घटना का कवरेज करता मीडिया तथा इस घटना पर होती राजनीतिक कवायदों का अच्छा चित्रण किया गया है। यह व्यंग्य वर्तमान व्यवस्था तथा परिदृश्य पर तीखा प्रहार करता है।
पुस्तक- साहित्य के प्रिंस लेखक- पिलकेन्द्र अरोरा प्रकाशक- कल्याणी शिक्षा परिषद्, दरियागंज, नई दिल्ली, 110002 मूल्य- 200 रुपए