कभी किसी असंवेदनशील पुलिस वाले के चरित्र को लेखक ने अपनी कथा में ढाला और समाज के प्रति पुलिस के क्रूर रवैये को उजागर किया तो कभी ' धरमभाई ' कथा के माध्यम से एक मामूली से टेम्पो ड्राईवर को संवेदनशील बनाकर समाज के अच्छे पक्ष पर भी प्रकाश डाला।
'काग भगोड़े' में पुलिस के जनता के प्रति खराब रवैये को उकेरा है और लिखा कि किस तरह पुलिस अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़कर सड़क पर हो रहे अत्याचारों से बेपरवाह तमाशा देखते है। त्रस्त होकर अंत मे नायक कहता है कि- मुझे पता है रिपोर्ट किसकी और कहाँ लिखाना है ?
लेखक को पढ़ने का चस्का था इसलिए संघर्षमय बचपन गुजारते हुए भी कई सारी पुस्तकें पढ़ी। जाहिर है जीवन के इसी हिस्से से संवेदनशीलता आई होगी और उसी का अनुभव उनकी कहानियों में झलकता है, दूसरी तरफ एक असाध्य रोग से जूझते हुए जब वे संवेदनाओं को कागज पर उकेरते है तो आश्चर्य ही नही एक अदभूत उर्जा का भी संचार भी होता है। हम न सिर्फ दुबे जी की लघुकथाओं से प्रेरित होते है उनकी जिंदगी भी हमें प्रेरित करती है।
दुबे जी ने अपनी लेखन शैली में टेम्पू, दसेक मिनिट, साबुन की बट्टी... जैसे शब्दों का उपयोग कर मालवी और स्थानीय ठेठपन का अहसास भी कराया है। भाषा उम्दा है। ऐसा नहीं है कि ये संकलन अपने आप ही अच्छा बन पड़ा है, ये तो लेखक डॉ. सतीश दुबे की सोच, उनके नजरिए का कमाल है कि इतना उम्दा संकलन उन्होंनें प्रस्तुत किया है।
सभी लघुकथाएँ अच्छी है। भाषा प्रभावी है और दृष्टिकोण कमाल का है। आईए... चलते-चलते एक लघुकथा और पढ़ते है और उनकी सोच का अन्दाजा लगाने की कोशिश करते हैं । कहानी का शीर्षक है ' गोबर ' और इसमें लेखक की सोच कुछ यूँ है...
'' सड़क के किनारे पड़े गोबर को उठाकर उन्होंने अपने आँगन में थेपकर उपले का रूप दे दिया। सूखने के गुण से युक्त होने पर उन्होंने उसमें अदभूत ऊर्जा का अनुभव किया।
'किंचित लौं का स्पर्श पाकर देखते ही देखते पहले वह चिंगारी और बाद में आग बन गया।'
समकालीन सौ लघुकथाएँ
लेखक- डॉ. सतीश दुबे
मूल्य- 150/
प्रकाशक- आकाश पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, गाजियाबाद