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कमी हिन्दी में नहीं, हिन्दीभाषियों में है

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-डॉ. वेदप्रताप वैदि
हिन्दी और संस्कृत मिलकर संपूर्ण कम्प्यूटर-विश्व पर राज कर सकती हैं। वे इक्कीसवीं सदी की विश्वभाषा बन सकती हैं। जो भाषा कम से कम पिछले एक हजार साल से करोड़ों-अरबों लोगों द्वारा बोली जा रही है और जिसका उपयोग फिजी से सूरिनाम तक फैले हुए विशाल विश्व में हो रहा है, उस पर शब्दों की निर्धनता का आरोप लगाना शुद्ध अज्ञान का परिचायक है।

यह बात सही है कि उसके पास फ्रांसीसी और अँग्रेजी की तरह सुललित, विविध और मानक कोश नहीं है लेकिन इसके लिए दोषी कौन है? क्या हिन्दी है? बिलकुल नहीं! उसके दोषी हम हिन्दीभाषी हैं।

क्या हिन्दी में कोई ऐसा जन्मजात खोट है कि वह भारत की राजभाषा नहीं बन सकती? क्या कमी है उसमें? क्या उसके बोलने वाले बहुत कम हैं? क्या वह बहुत निर्धन भाषा है? क्या उसकी शब्द संपदा नगण्य है? क्या उसका अपना कोई व्याकरण नहीं है, लिपि नहीं है, इतिहास नहीं है, शास्त्र नहीं है? क्या नहीं है, हिन्दी के पास? हिन्दी के पास वह सब कुछ है, जिसके होने से कोई भी भाषा राष्ट्रभाषा और राजभाषा बनती है बल्कि उसके पास वे गुण भी हैं, जिनके कारण कोई भाषा पर-राष्ट्रभाषा, अंतरराष्ट्रीय भाषा और विश्व भाषा बनती है।

जहाँ तक हिन्दी के बोलने और समझने वालों का प्रश्न है, हिन्दी आज दुनिया की नंबर एक भाषा है। दुनिया की कोई अन्य भाषा हिन्दी का मुकाबला नहीं कर सकती। दुनिया के कुछ ताकतवर देशों ने अपनी प्रचार तोपें यह सिद्ध करने पर भिड़ा रखी हैं कि अँग्रेजी न केवल विश्व की श्रेष्ठतम भाषा है बल्कि सबसे बड़ी भाषा भी है। बड़ी वह है, इसमें शक नहीं लेकिन वह सबसे बड़ी कैसे है?

जो भाषा सिर्फ अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और आधे कनाडा में बोली जाए, उसे दुनिया की सबसे बड़ी भाषा कैसे माना जा सकता है? इन साढ़े चार देशों की जनसंख्या कितनी है? मुश्किल से पचास करोड़। दुनिया के ज्यादातर देशों में आजकल इक्का-दुक्का प्रतिशत अँग्रेजी ज्ञाता भी मिल जाते हैं। इनमें अगर भारत, श्रीलंका, घाना, सिंगापुर जैसे ब्रिटेन के पुराने गुलाम देशों के अँग्रेजीभाषियों की संख्या भी जोड़ लें तो वह भी दस करोड़ से ज्यादा नहीं हो सकती है। वे वास्तव में अँग्रेजीभाषी नहीं हैं। वे केवल मानसिक गुलामी या व्यावसायिक विवशता के कारण अँग्रेजी का इस्तेमाल करते हैं। इतना ही नहीं, जिन साढ़े चार देशों में अँग्रेजी लोकभाषा है, वहाँ भी सभी लोग अँग्रेजी नहीं बोलते।

खुद अँग्रेजी के गढ़ ब्रिटेन में कई ऐसे इलाके हैं, जहाँ अगर आप अँग्रेजी बोलें तो या तो लोग समझेंगे ही नहीं और अगर समझेंगे तो आपको उत्तर नहीं देंगे। अभी-अभी ब्रिटेन की वेल्श, स्कॉटिश और आयरिश भाषाओं ने सदियों से संघर्ष के बाद अपने-अपने क्षेत्रों से अँग्रेजी को अपदस्थ किया है।

इसी प्रकार अमेरिका में बसे लाखों लातिनी लोग हिस्पानी बोलते हैं। उनमें से कई तो अँग्रेजी बिलकुल नहीं समझते। यही हाल जापान, विएतनाम, अफगानिस्तान और चीन से आकर बसे हुए अमेरिकियों का है। ऐसे में अँग्रेजी जब संख्या बल के आधार पर हिन्दी को चुनौती देती है तो उसका दावा हास्यास्पद लगता है।

अकेले भारत में सत्तर करोड़ से ज्यादा लोग हिन्दी बोलते और समझते हैं। पूरे ब्रिटेन में जितने लोग अँग्रेजबोलते हैं, उससे ज्यादा तो अकेले उत्तरप्रदेश में ही हिन्दी बोलते हैं। पूरा पाकिस्तान हिन्दी बोलता है। बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, तिब्बत, म्यांमार, अफगानिस्तान और मध्य एशियाई गणतंत्रों में भी आपको हजारों से लेकर लाखों लोग हिन्दी बोलते और समझते हुए मिल जाएँगे। इसके अलावा फिजी, मॉरिशस, गयाना, सूरिनाम, ट्रिनिडाड जैसे देश तो हिन्दीभाषियों के बसाए हुए ही हैं।

दुनियाभर में फैले हुए लगभग दो करोड़ भारतीय भी हिन्दी ही बोलते हैं। इसके अलावा दुनिया के लगभग डेढ़ सौ विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाती है। दूसरे शब्दों में, हिन्दी समाज की जनसंख्या लगभग एक अरब का आँकड़ा छूती है। ऐसे में उसे संख्या के हिसाब से बलहीन बताना तथ्यों की अनदेखी करना है। सचाई तो यह है कि हिन्दी केवल अँग्रेजी से ही नहीं, चीनी भाषा से भी आगे है।

चीन की 'मंडारिन भाषा' (मानक चीनी) पूरे चीन में नहीं बोली जाती। जो भाषा लोग पेइचिंग में समझते हैं, वह शंघाई में नहीं समझते और जो शंघाई में समझते हैं, वह सियान में नहीं समझते हैं। हर जगह की चीनी अलग-अलग है। चीन की 90 अल्पसंख्यक जातियाँ भी चीनी भाषा नहीं बोलतीं। यह मैं लगभग संपूर्ण चीन की यात्रा करने के बाद कह रहा हूँ। इसके अलावा हिन्दी की तरह चीनी भाषा दर्जनभर देशों में भी नहीं बोली जाती।

उसकी लिपि इतनी कठिन है कि गैर-चीनी उसे आसानी से सीख नहीं पाते जबकि हिन्दी की लिपि सरल और वैज्ञानिक है। इसीलिए वह कई अन्य भाषाओं की भी लिपि है, जैसे संस्कृत, पालि, प्राकृत, मराठी, नेपाली आदि। देवनागरी में जैसा लिखा जाता है, वैसा ही बोला जाता है और जैसा बोला जाता है, वैसा ही लिखा जाता है।

यदि भारत के नेताओं में स्वभाषा का अभिमान और ज्ञान होता तो हिन्दी की लिपि इंडोनेशिया, मलेशिया, म्यांमार तथा अफ्रीका और पश्चिमी एशिया के अनेक देशों की लिपि भी बन जाती। जो विश्व भाषा बनने में सक्षम है, वह हिन्दी आज अपने ही देश में प्रवासिनी बनी हुई है।

हम हिन्दीभाषियों को भी यह पता नहीं कि हिन्दी कितनी संपन्न भाषा है। अँग्रेजी के मोटे-मोटे शब्दकोशों को देखकर हमारे अँग्रेजीदाँ यह धारणा बना लेते हैं कि हिन्दी के पास शब्दों का जबर्दस्त टोटा है। हिन्दी के पास मोटे-मोटे शब्दकोश नहीं हैं, इसका अर्थ यह नहीं कि शब्द नहीं हैं। उसके पास तिजोरियाँ नहीं हैं, इसका मतलब यह नहीं कि माल भी नहीं है। जैसी शब्द-संपदा हिन्दी के पास है, दुनिया की किसी भी आधुनिक भाषा के पास नहीं है। हिन्दी दुनिया की सबसे मालदार भाषाओं में से है। हिन्दी संस्कृत की पुत्री है। सीधी उत्तराधिकारिणी है। दोनों के बीच कोई बहीखाता नहीं है।

हिन्दी जितने चाहे, उतने शब्द संस्कृत से ले सकती है। फारसी, अरबी, पुर्तगाली, फ्रांसीसी और अँग्रेजी से भी ले सकती है और उन्हें पूरी तरह पचा सकती है, पचाती रही है। शब्दों में क्या छुआछूत? अकेली संस्कृत में लगभग दो हजार धातु हैं। एक धातु में दस प्रत्यय, तीन पुरुष, तीन वचन और बीस उपसर्ग आदि लगाकर यदि शब्द बनाना शुरू करें तो लगभग ग्यारह लाख शब्द बनते हैं। एक धातु से 11 लाख तो दो हजार धातुओं से कितने शब्द बन सकते हैं? लाखों नहीं, करोड़ों! यह सिर्फ कहने की ही बात नहीं है। हैदराबाद के एक आर्य समाज में आचार्य आनंदप्रकाश नामक सज्जन यह कार्य पिछले बीसियों वर्षों से चुपचाप कर रहे हैं।

हिन्दी और संस्कृत मिलकर संपूर्ण कम्प्यूटर-विश्व पर राज कर सकती हैं। वे इक्कीसवीं सदी की विश्व भाषा बन सकती हैं। जो भाषा कम से कम पिछले एक हजार साल से करोड़ों-अरबों लोगों द्वारा बोली जा रही है और जिसका उपयोग फिजी से सूरिनाम तक फैले हुए विशाल विश्वमें हो रहा है, उस पर शब्दों की निर्धनता का आरोप लगाना शुद्ध अज्ञान का परिचायक है। यह बात सही है कि उसके पास फ्रांसीसी और अँग्रेजी की तरह सुललित, विविध और मानक कोश नहीं है लेकिन इसके लिए दोषी कौन है? क्या हिन्दी है? बिलकुल नहीं! उसके दोषी हम हिन्दीभाषी हैं।

हिन्दीभाषी अपनी भाषा के प्रति जितने उदासीन हैं, शायद दुनिया में कोई और नहीं है। जिस भाषा को संविधान में भारत संघ की भाषा कहा गया है और राजभाषा का दर्जा दिया गया है, वह होनी चाहिए थी महारानी लेकिन वह बनी हुई है नौकरानी! संविधान निर्माताओं ने हिन्दी को कौन-सा अधिकार नहीं दिया? कौन-सा सम्मान नहीं दिया? लेकिन हिन्दीभाषी अपने नेताओं और नौकरशाहों से कभी पूछते हैं कि वे हिन्दी की अवहेलना क्यों करते हैं?

भारत सरकार के हर कामकाज में पहले हिन्दी होनी चाहिए। जरूरी हो, मजबूरी हो तो अँग्रेजी का भी इस्तेमाल हो सकता है लेकिन असलियत में होता क्या है? भारत सरकार का सारा कामकाज मूल रूप से अँग्रेजी में होता है और हिन्दी में सिर्फ अनुवाद होता है। अगर संवै‍धानिक विवशता न हो तो अनुवाद भी गायब हो जाए। हिन्दी दिखाने के दाँत हैं और अँग्रेजी खाने के दाँत। कई मामलों में तो दाँतों को दिखाना भी जरूरी नहीं समझा जाता।

राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मंत्रियों के कई भाषणों और नीति-वक्तव्यों के हिन्दी अनुवाद उपलब्ध ही नहीं होते। संविधान के इस सरासर उल्लंघन पर सरकार को बरजने वाला अब कोई नहीं है। देश में कोई नेता हो तो यह काम करे। अब नेता कहाँ से लाएँ? नेताओं के नाम पर जो लोग दनदना रहे हैं, वे या तो जनता के विनम्र सेवक हैं या नौकरशाहों की कठपुतलियाँ हैं या फिर थैलीशाहों के दलाल। उनकी क्या मजाल है कि वे जनता को कड़वी गोली दें या नौकरशाहों के कान खींचें या उद्योगपतियों-व्यापारियों से स्वभाषा के प्रयोग का आग्रह करें? वे जनता का नेतृत्व नहीं करते, उसके पीछे-पीछे चलते हैं।

नेता वह है जिसके चिंतन और आचरण का दूसरे अनुकरण करें। कौन-सा दल, कौन-सा नेता, कौन-सा बड़ा आदमी इस समय देश में ऐसा है जिसके आचरण का जन-साधारण अनुकरण करे? कोई नहीं है। इसीलिए सब कोई अपने आचरण को खुद सुधारें। अपने नेता खुद बनें। हम अपने निजी कामकाज में तो शत-प्रतिशत हिन्दी का प्रयोग करें ही, सार्वजनिक कामकाज में भी हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के प्रयोग पर सचमुच जोर देने लगें तो अँग्रेजी के वर्चस्व की जमीन धँसकने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।

जनता नेतृत्व करे तो नेता उसके पिछलग्गू बनने मेंसबसे आगे होंगे। सबसे ज्यादा फुर्ती दिखाएँगे। अँग्रेजी ने सिर्फ हिन्दी का हक नहीं मारा है, उसने समस्त भारतीय भाषाओं को ठेस पहुँचाई है। यदि अँगरेजी को उसका सही ठिकाना दिखाना है तो समस्त भारतीय भाषाओं को एकजुट होना होगा। और समस्त भारतीय भाषाएँ तबतक एकजुट नहीं होंगी जब तक कि हिन्दी वाले खुद नहीं जागेंगे।

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