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राष्ट्रभाषा को उचित स्थान न दिलाना राष्ट्रद्रोह है

डॉ.रामकुमार वर्मा द्वारा 41 वर्ष पूर्व दिया गया वक्तव्य

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भारत जैसे विराट जनतंत्र के लिए यह वास्तव में आश्चर्य का विषय है कि स्वतंत्र होने के बीस वर्ष बाद भी उसकी राष्ट्रभाषा के सम्बन्ध में वाद-विवाद और संघर्ष हो। सम्भवतः इसका कारण यह हो कि भाषा, जो राष्ट्र की आत्मा है, उसे अन्य समस्याओं के समक्ष गौण स्थान देकर उसकी मर्यादापूर्ण प्रतिष्ठा को उपेक्षा की दृष्टि से देखा गया और जब राष्ट्रभाषा के सम्बन्ध में प्रश्न उठा, तो उसे राष्ट्रीय तथा सांस्कृतिक दृष्टि से न देख कर राजनैतिक दृष्टि से देखा गया।

जिस भाँति आज की राजनीति दल-गत संघर्षों में उलझ कर सम्पूर्ण भारत की अखण्डता के सम्बन्ध में प्रश्न-चिह्न लगा रही है, उसी प्रकार भाषा को भी राज्य में बाँट कर उसे प्रतिस्पर्धा, प्रतिद्वन्द्विता के क्षेत्र में लाकर दयनीय बना दिया गया है।

इसका समाधान यदि खोजा जाता है, तो बडी़ सरलता से अँगरेजी की समृ‍द्धता और उसकी अन्तरराष्ट्रीय उपयोगिता का हल सामने रख दिया जाता है। अँगरेजी से हमारा कोई विद्वेष नहीं है, वह संसार की समुन्नत भाषाओं में एक है, किन्तु किसी भी सुन्दरी स्त्री को हम अपनी माता नहीं कह सकते और गति लाने के लिए हम अपने शरीर में घोड़े के पैर नहीं जोड़ सकते।

हम में आत्मविश्वास होना चाहिए और जो शक्तियाँ हमारे व्यक्तित्व और विशाल देश के नागरिक होने की हैसियत से हैं, उनका ही विकास कर परमुखापेक्षी बनने की विवशता में न पड़ें। संसार की अन्य भाषाओं से हम सहायता तो अवश्य ले सकते हैं, किन्तु हम अपनी असमर्थता में उनके प्रति आत्मसमर्पण कर दें, यह किसी प्रकार भी इस प्रगतिशील युग में वाँछनीय नहीं है।

कौन कहता है कि हिन्दी साहित्य समृद्ध नहीं है? किसका वह स्वर है कि उच्च शिक्षा के माध्यम के लिए हिन्दी असमर्थ है? आज बीस वर्ष पहले की बात दोहराई जाती है, किन्तु संविधान में हिन्दी को राजभाषा का पद देने के उपरान्त हिन्दी की जो बहुमुखी प्रगति नेपथ्य में होती रही है, उसे सही ढंग से आँकने का प्रयत्न किसने किया है? विज्ञान, वाणिज्य, अर्थशास्त्र एवं कृषि आदि के सम्बन्ध में दर्जनों प्रामाणिक पुस्तकें देखी जा सकती हैं, किन्तु एक वाक्य में यह कह देना कि हिन्दी असमर्थ है, अपनी अज्ञानता की सूचना देना है।

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प्रायः यह सुना जाता है कि हमें धीरे-धीरे चलना है और राष्ट्रभाषा के सम्बन्ध में जल्दी नहीं करना है, किन्तु बीस वर्ष बीत जाने के बाद भी धीरे-धीरे चलने का क्या अर्थ हो सकता है?

ऐसा लगता है कि प्रश्न को टालने की कोशिश की जा रही है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि अन्य भारतीय भाषाओं के प्रति हमारा सद्भाव है और उनकी उन्नति तथा विकास के हम समर्थक हैं, किन्तु हिन्दी की भारतीय भाषाओं के समानान्तर रखने से न तो हिन्दी ही बढ़ सकेगी न अन्य भाषाएँ ही। हिन्दी को पूर्ण रूप से अँगरेजी का स्थान लेने के लिए किसी विशिष्ट अवधि की स्वीकृति में भी निश्चित नहीं है? ऐसी स्थिति मे भाषा विधेयक प्रकारान्तर से संविधान का समर्थन नहीं करता और इस प्रकार वह हमारे संविधान के विपरीत है।

संविधान की अवज्ञा और उसका अपमान किसी भी स्वतन्त्र देश के नागरिक के लिए मान्य नहीं है, इसलिए संविधान की सम्मान रक्षा हेतु मैं इस राजकीय अलंकरण को सधन्यवाद वापस करता हूँ।

*इस पत्र के चालीस वर्ष बाद भी क्या परिस्थिति भिन्न है? क्या राष्ट्रभाषा को उसका उचित स्थान न दिलाना राष्ट्रद्रोह नहीं?

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