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अंग्रेजियत की बेड़ियों से कब तक बंधी रहेगी हिन्दी?

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राजीव रंजन तिवारी

आज 14 सितंबर यानी हिन्दी दिवस है। इस अवसर पर एक दिवसीय सभाएं, गोष्ठियां, वाद-विवाद आदि होंगे और फिर एक वर्ष तक का इंतजार रहेगा। 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने हिन्दी को भारत की राजभाषा घोषित किया था। हिन्दी कोई त्योहार नहीं है, जिसे नियत समय पर मनाकर स्वांतःसुखाय का आनंद लेकर अगले चक्र के लिए छोड़ दिया जाए।
हिन्दी हमारी भाषा है और भाषा में संवेदनाएं होती हैं, तभी तो हम अपनी संवेदनाओं को सम्प्रेषित कर पाते हैं। हिन्दी स्वतंत्रता के बाद से ही उस पीड़ा को झेलती आई है, जिसे उसके अपनों ने ही दिया है। हिन्दी जब जापान, चीन, फ्रांस, रूस, जर्मनी को विश्व में विकसित होते देखती है, तब कहीं न कहीं उसे पीड़ामिश्रित ईर्ष्या होती है कि काश! वो भी जापानी, चीनी, फ्रेंच, रूसी और जर्मनी भाषाओं की तरह अपने भारतीयों के द्वारा बिना किसी पूर्वाग्रह के बोली जाती। 
 
भारत के न्याय से लेकर हर वैज्ञानिक खोज तक हिन्दी उपयोग की जाती तो सामान्य आदमी खुद से समझ पाता कि न्यायालय ने क्या फैसला सुनाया है या कि भारत भी इन देशों की तरह अपनी सभी वैज्ञानिक उपलब्धियों को आम हिन्दुस्तानी तक पहुंचाकर उनको खोज पाने की सार्थकता सिद्ध कर पाता। 
 
हिन्दी सिर्फ सरकारी कार्यालयों में घुटन के साथ काम करने वाले एक बाबू के पद से अधिक कभी पदोन्नत ही नहीं हो पाती। हिन्दी भी अपने देश के बच्चों के मुख से तोतले रूप में निकलने की चाह रखती है, लेकिन अचानक उसे तब पीड़ा होती है जब बच्चों की जिव्हा और माता-पिता का आग्रह उनसे अंग्रेजी की घिसी-पिटी राइम सुनाने को कहकर हिन्दी को उपेक्षाओं के एक और चादर से ढंक देते हैं। 
 
यह अलग बात है कि हिन्दी फिर उन चादरों से स्वयं को निकालती है और स्वयं को सिद्ध करने की पुरजोर कोशिश में पुनः उतनी ही शक्ति से खुद को फिर क्षीण कर लेती है। हमने हिन्दी को बहुत दु:ख दिए हैं और देते आ रहे हैं। यह हम भारतीयों की आनुवांशिक प्रवृत्ति है कि, उनकी प्रशंसा करते हैं, जो हमारे विरुद्ध होता है।
 
हिन्दी के प्रति ऐसी किसी पर्व-आयोजन की कर्तव्यनिष्ठा दिखाने की जरूरत नहीं। हिन्दी को जो चाहिए कम से कम अब हम उसे दे दें। हिन्दी दिवसों से कुछ सीखकर वास्तव में हिन्दी के लिए हृदय से राजभाषा मानते हुए वो करें, जिसकी हिन्दी अधिकारिणी है। 
स्वयं को आनुवांशिक गुलामी से मुक्त करने का सफल प्रयास ही हिन्दी को उसकी पीड़ा से मुक्ति दिला पाएगा।  ये सारी शूल की तरह अतिसंवेदनशील हिन्दी के हृदय में चुभने वाली कार्यालयीन प्रतियोगिताएं, उनके पुरस्कार मानो हिन्दी को अहसान जताना चाह रहे हों कि देखो संविधान में बहुत सी भाषाएं हैं शुक्र मनाओ हम सिर्फ 14 सितंबर, 1949 को संविधान सभा के हिन्दी को भारत की राजभाषा घोषित करने के निर्णय को पर्व की तरह आयोजित करते आ रहे हैं। 
 
बाकी भाषाओं का तो वे जानें, हिन्दी के लेखकों के साथ बहुत अच्छा बर्ताव नहीं होता। यह महसूस होता है। कहानियों की कोई कमी नहीं है। जल में तैरती, भागती मछलियों की तरह। ठीक वैसे, जैसे जहां जीवन (जल) है वहां कहानियां भी मछलियों की संख्या से कम नहीं। 
 
बताते हैं कि जापान, चीन यहां तक कि कोरिया में भी अपनी ही भाषा में विज्ञान संबंधी लेखन किया जाने लगा था और इसका परिणाम यह हुआ कि इन देशों में व्यापक तकनीकी विकास हुआ, लेकिन भारत में यह काम नहीं हुआ। विज्ञान और तकनीकी लेखन के लिए पिछली आधी सदी से ज्यादा अरसे में हमने अनुवादार्श शब्दकोष तैयार किए और इन्हें सामने रखकर विज्ञान और तकनीकी पुस्तकों के जो अनुवाद किए गए वे इस कदर भयानक और वीभत्स हैं कि इन अनुवादों को पढ़कर कोई उन विषयों के बारे में कुछ सीख नहीं सकता। 
 
शब्दकोषों के आधार पर कुछ पुस्तकें तो ऐसी हैं जिन्हें मूल अंग्रेजी पुस्तक रखे बिना समझा ही नहीं जा सकता। नागरी लिपि और हिन्दी भाषा की आज हालत यह है कि 40-45 करोड़ हिन्दीभाषी होने का दावा किए जाने के बावजूद हिन्दी में कोर्स में लगी किताब छोड़कर, आमतौर पर अब सिर्फ तीन सौ का संस्करण छपता है। 
 
हिन्दी पखवाड़ा मनाने के लिए इस बीच कार्यालयों में जो भीड़ जमा होती है, उससे कभी कोई यह पूछकर देखे कि उनमें से क्या किसी ने साल में कोई एक हिन्दी की किताब खरीदी है? उत्तर में एक भी हाथ नहीं उठेगा।
 
अमेरिका की टाइम पत्रिका ने एक बार एक रिपोर्ट छापी थी जिसमें यह कहा गया था कि अश्वेत अमेरिकियों ने 1965 में डेढ़ करोड़ पुस्तकें खरीदी थीं। हिन्दी में अगर इस तरह पुस्तकें खरीदी जातीं तो हिन्दी के शीर्ष लेखकों को भी आर्थिक सहायता के लिए अपीलें न करनी पड़तीं। 
 
केशनीप्रसाद चौरसिया को तो आत्महत्या ही कर लेनी पड़ी थी, शैलेष मटियानी की मृत्यु आर्थिक दुर्दशा में हुई थी और अमरकांत जैसे शीर्ष कथाकार को अपील करनी पड़ी थीं कि उनके स्वास्थ्य ही नहीं जीवन-यापन के लिए भी सुविधाएं नहीं हैं। यह हालत उन लेखकों की है जिन्होंने सारा जीवन यापन के लिए भी सुविधा नहीं है। यह हालत उन लेखकों की है जिन्होंने सारा जीवन लेखन को समर्पित करके हिन्दी भाषा और साहित्य को श्रेष्ठतम रचनाएं दीं।
 
हिन्दी में सिर्फ उन्हीं लेखकों की आर्थिक स्थिति ठीकठाक है जो कहीं बड़ी तनख्वाह वाली नौकरी करते रहे और सेवानिवृत्त होने के बाद अच्छी पेंशन पा रहे हैं। हिन्दी में पूर्णकालिक लेखक का जीवन खासा ही संघर्षपूर्ण और नारकीय रहा है। हिन्दी के नाम पर गौरवान्वित होने वाले लोगों को आखिर हिन्दीजीवी हिन्दी लेखकों की यह स्थिति कभी याद क्यों नहीं आती? हिन्दी जिनकी मातृभाषा है उनकी संख्या तो बयालीस करोड़ से ज्यादा बताई जा रही है। 
 
ये लोग सालभर में बयालीस हजार किताबें क्यों नहीं खरीदते? क्या फायदा है ऐसी भाषा और उसकी लिपि से जिसके चलते हिन्दी का ही लेखक इस कदर दुर्दशाग्रस्त रहने का मजबूर हो? और अंत में हमें यह भी देखना चाहिए कि देश में आई सभी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने हिन्दी  के लिए रोमन लिपि अपना ली है।
 
कैसी विडंबना है कि आज विद्यालयों में अंग्रेजी भाषा की तोता-रटंत पढ़ाई नर्सरी से ही आरंभ हो जाती है। बड़े-बड़े डिग्रीधारकों और स्नातकों को भी हिन्दी की वर्णमाला और हिन्दी में गणना नहीं आतीं। बच्चे हिन्दी की शब्दावली से पूर्णत: अनभिज्ञ होते जा रहे हैं, उन्हें नाक-कान-गला नहीं, बल्कि नोज-ईयर-थ्रोट बताओ, तब समझते हैं। आप कहीं भी देख लें, 99 फीसदी लोग अंग्रेजी में हस्ताक्षर करते हैं, हिन्दी में नहीं। आज अंग्रेजी पत्रिकाओं की मांग हिन्दी से अधिक है। ऐसे में अमिताभ बच्चान साधुवाद के पात्र हैं कि वह अपने टीवी कार्यक्रम ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में विशुद्ध हिन्दी भाषा का प्रयोग करते हैं। 
 
जाने-माने कमेंटेटर जसदेव सिंह, पूर्व रेडियो उद्घोषक अमीन सयानी और क्रिकेटर नवजोतसिंह सिद्धू की लच्छेदार हिन्दी भी सराहनीय है। हिन्दी दिवस और हिन्दी पखवाड़ा मनाकर रस्म अदायगी तो आसान है, लेकिन जब तक हम हिन्दी बोलने व लिखने में गर्व महसूस नहीं करेंगे, तब तक हिन्दी उपेक्षित होती रहेगी। किसी देश में मातृभाषा की उन्नति वहां की सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति को इंगित करता है। इस दृष्टि से देश में नागरिकों के सौतेले व्यवहार से क्षुब्ध दिन-प्रतिदिन गिरती हिन्दी  की गरिमा से उसके प्रेमियों की आंखें नम हैं। 
 
दुर्भाग्य यह है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक में लोग हिन्दी को हेय दृष्टि से देख रहे हैं, जो उसके लिए शुभ नहीं है। मातृभाषा न सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम होती है, बल्कि देश को एक सूत्र में पिरोने का भी काम करती है। यदि देश में हिन्दी  की यही दुर्दशा रही, तो वह समय दूर नहीं जब हम देश की अखंडता और एकता को टूटते हुए देखेंगे। जब लोग अपनी मर्जी के मालिक होंगे, तो वह समय भी दूर नहीं जब हम भाषायी दृष्टि से भी गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ पाएंगे।
 
यह भाषा न तो पूरी तरह हिन्दी थी और न ही उर्दू, बल्कि दोनों भाषा की समिन्वत एक ऐसी भाषा थी, जो पूरे हिन्दुस्तान को एक साथ जोड़े रखती। दुर्भाग्यवश अंग्रेज के चापलूसों ने ऐसा होने नहीं दिया। देश के भीतर ही विरोधियों ने कुतर्क देकर अपनी मांग को सही ठहराया। बेशक, भारत भाषायी विविधतावाला देश है, लेकिन संविधान सभा द्वारा किसी भाषा को राजभाषा का दर्जा दिया गया है, तो उसका हम सभी को सम्मान करना चाहिए। 
 
प्रतिवर्ष 14 सितंबर को हिन्दी दिवस मात्र कर्मकांड नहीं, बल्कि स्वमूल्यांकन का एक अवसर भी है कि हमारी राजभाषा की उन्नति के लिए हम क्या कर रहे हैं?  अभी हिन्दी  भले ही अंतरराष्ट्रीय फलक पर विभिन्न रूपों में चमक रही हो, बावजूद इसके वह अंगरेजी के मुकाबले संपर्क भाषा नहीं बन पाई है।
 
आज जरूरत इस बात की है कि हम इसकी दुर्दशा पर चिंतन करें। हिन्दी  की सबसे बड़ी समस्या है, उसका सामंती परिवेश, जिससे हिन्दी  निकलना ही नहीं चाहती। उसने अपने लिए एक फंतासी दुनिया रच ली है, जो उनकी नजर में सर्वोत्तम है, सुगम है, सहज है। उसमें परिष्कार की जरूरत नहीं। वह अपने आप में पूर्ण है। हिन्दी  में बदलाव की बात करना अपराध है।

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