मैं हिन्दी हूं। मेरी पहचान इस देश से है, इसकी माटी से है। इसके कण-कण से हैं। क्यों अक्सर अपने ही आंगन में बेइज्जत कर दी जाती हूं। कहने को संविधान के अनुच्छेद 343 में मुझे राजभाषा का दर्जा प्राप्त है। अनुच्छेद 351 के अनुसार संघ का यह कर्तव्य है कि वह मेरा प्रसार बढ़ाएं। पर यह सब मुझे क्यों कहना पड़ रहा है? क्योंकि मैं अब देश के बच्चों के लिए हंसी और उपहास का विषय बन गई हूं...
मुझे अपनी ही संतानों को यह बताना पड़ रहा है कि मैं भारत के 70 प्रतिशत गांवों की अमराइयों में महकती हूं। मैं लोकगीतों की सुरीली तान में गुंजती हूँ। मैं नवसाक्षरों का सुकोमल सहारा हूं। मैं जनसंचार का स्पंदन हूं। मैं कलकल-छलछल करती नदियां की तरह हर आम और खास भारतीय ह्रदय में प्रवाहित होती हूं। मैं मंदिरों की घंटियों, मस्जिदों की अजान, गुरुद्वारे की शबद और चर्च की प्रार्थना की तरह पवित्र हूं। क्योंकि मैं आपकी, आप सबकी-अपनी हिन्दी हूं।
विश्वास करो मेरा कि मैं दिखावे की भाषा नहीं हूं, मैं झगड़ों की भाषा नहीं हूं। मैं संवाद का माध्यम हूं विवाद का नहीं... मैंने अपने अस्तित्व से लेकर आज तक कितनी ही सखी भाषाओं को अपने आंचल से बांध कर हर दिन एक नया रूप धारण किया है। फारसी, अरबी, उर्दू से लेकर 'आधुनिक बाला' अंग्रेजी तक को आत्मीयता से अपनाया है। सखी भाषा का झगड़ा हर थोड़े दिनों में उभरता है। यह मेरे लिए नया नहीं है। कभी महाराष्ट्र तो कभी दक्षिण भारतीय 'बहनों' की संतानों ने मेरे खिलाफ स्वर उठाया, मैंने हर बार शांत और धीर-गंभीर रह कर मामले को सहजता से सुलझाया है।
लेकिन कैसे समझाऊं और किस-किस को समझाऊं? कोई कहता है हिन्दी बोलने वालों को न रहने देंगे, हिन्दी को भी मिटा देंगे... मैं क्या कल की आई हुई कच्ची-पक्की बोली हूं जो मेरा नामोनिशान मिटा दोगे? मैं इस देश के रेशे-रेशे में बुनी हुई, अंश-अंश में रची-बसी ऐसी जीवंत भाषा हूं जिसका रिश्ता सिर्फ जुबान से नहीं दिल की धड़कनों से हैं। मेरे दिल की गहराई का और मेरे अस्तित्व के विस्तार का तुम इतने छोटे मन वाले भला कैसे मूल्यांकन कर पाओगे? इतिहास और संस्कृति का दम भरने वाले छिछोरी बुद्धि के प्रणेता कहां से ला सकेंगे वह गहनता जो अतीत में मेरी महान संतानों में थी।
मैंने तो कभी नहीं कहा कि बस मुझे अपनाओ। बॉलीवुड से लेकर पत्रकारिता तक और विज्ञापन से लेकर राजनीति तक हर एक ने नए शब्द गढ़े, नए शब्द रचें, नई परंपरा, नई शैली का ईजाद किया। मैंने कभी नहीं सोचा कि इनके इस्तेमाल से मुझमें विकार या बिगाड़ आएगा। मैंने खुले दिल से सब भाषा का,भाषा के शब्दों का, शैली और लहजे का स्वागत किया। यह सोचकर कि इससे मेरा ही विकास हो रहा है। मेरे ही कोश में अभिवृद्धि हो रही है। अगर मैंने भी इसी संकीर्ण सोच को पोषित किया होता कि दूसरी भाषा के शब्द नहीं अपनाऊंगी तो भला यहां तक उद्दाम आवेग से इठलाती-बलखाती कैसे पहुंच पाती?
मैंने कभी किसी भाषा को अपना दुश्मन नहीं समझा। किसी भाषा के इस्तेमाल से मुझमें असुरक्षा नहीं पनपी। क्योंकि मैं जानती थी कि मेरे अस्तित्व को किसी से खतरा नहीं है।
मुझे कहां-कहां पर प्रतिबंधित करोगे? पूरा राष्ट्र और महाराष्ट्र तो बहुत दूर की बात है अकेली मुंबई से मुझे निकाल पाना संभव नहीं है। बरसों से भारतीय दर्शकों का मनोरंजन कर रही फिल्म इंडस्ट्री से पूछ कर देख लें कि क्या मेरे बिना उसका अस्तित्व रह सकेगा? कैसे निकालोगे लता के सुरीले कंठ से, गुलजार की चमत्कारिक लेखनी से? अपनी सोच को थोड़ा सा विस्तार दो, मैं आप सबकी हूं। आज बस इतना ही,