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हिन्दी दिवस : कब होगा अपनी भाषा का राज्याभिषेक

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अखिलेश आर्येन्दु
चौदह सितंबर आते ही हमें हिन्दी के साथ हो रहे अंधेरगर्दी याद आने लगती है। 14 सितंबर भारत का राजभाषा हिन्दी दिवस है। 14 सितंबर 1949 को देश के सपूतों ने यह संकल्प लिया था कि अखिल भारतीय राजभाषा हिन्दी होगी और दूसरी क्षेत्रीय भाषाएँ सखा के रूप में सहयोगी बन आगे बढ़ेंगी।

अँगरेजी की अनिवार्यता पूरी तरह खत्म होकर स्वदेशी भाषा के रूप में अखिल भारतीय स्तर पर हिन्दी का प्रयोग हर स्तर पर बेरोकटोक किया जाएगा। इसी के साथ यह भी जरूरी बनाया जाएगा कि राजभाषा हिन्दी में धर्म, अध्यात्म, विज्ञान, गणित, साहित्य का सृजन क्षेत्रीय भाषाओं को साथ में लेते हुए किया जाए, जिससे सहयोगी भाषाओं की प्रगति भी हिन्दी के साथ-साथ होती रहे। 
 
हिन्दी दिवस एक अखिल भारतीय राजभाषा नहीं, राष्ट्रभाषा की अनिवार्यता को महसूस करने का दिन है। यह एक ऐसा अवसर है जिस पर हम सच्चे मन, वचन व कर्म से राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को प्रतिष्ठित करने के लिए संकल्पबद्ध हों। वरना हर साल चौदह सितंबर आता है और हम हिन्दी के साथ हो रही बदसलूकी, बेइज्जती का रोना रोकर सालभर के लिए निज कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं। करोड़ों रुपए के सरकारी धन के जरिए बड़े-बड़े परिसंवाद, सम्मेलन, गोष्ठियों, पखवाड़ों और सप्ताहों का आयोजन कर कोटापूर्ति करने के सरकारी उद्देश्यों में हम भी शामिल हो जाते हैं। ऐसे में हम किस उद्देश्य की पूर्ति कर पाते हैं, यह कहने की जरूरत नहीं है। वास्तव में देखा जाए तो हिन्दी को पीछे ढकेलने और अँगरेजी को बढ़ाने में हम हिन्दी वाले ही बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगे हैं। 
 
पचास बरस के इस लंबे सफर में हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाना तो दूर, राजभाषा के रूप में भी हिन्दी की जो दुर्गति हो रही है, वह किसी से छिपी नहीं है। जब देश गुलाम था, तब हम सोचते थे कि आजादी मिलेगी तो अँगरेजी सत्ता के साथ-साथ अँगरेजी भाषा की गुलामी से भी छुटकारा मिलेगा। हमें सत्ता मिलते ही हम हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित कर अँगरेजी के वर्चस्व को तोड़ डालेंगे, परंतु हुआ उसका उल्टा। पंद्रह वर्षों तक, जब तक कि पूरा देश हिन्दी बोलने, लिखने व समझने न लगे, अँगरेजी का प्रयोग जारी रखना देशहित में माना गया। इस निर्णय का दुष्परिणाम यह हुआ कि जिस हिन्दी का राज्याभिषेक होना था उसे विस्थापित कर दिया गया और जिस अँगरेजी का विस्थापन होना था वह पूर्वापेक्षा और अधिक अधिकार लेकर विराजमान हो गई। 
 
यहीं से शुरू हुई हिन्दी के साथ खिलवाड़ करने की परंपरा और राजनीतिक स्वार्थपूर्तियों का सिलसिला। राजनीतिक जुगलबंदियों और खेमाबंदियों का नया तमाशा हिन्दी विरोध के नाम पर देश में शुरू हो गया। नए तरह के भाषाई आंदोलन चलने शुरू हो गए। उन आंदोलनों ने भारतीय राष्ट्रीयता के समांतर भाषाई अस्मिताओं और भाषाई पहचान के लिए अलगाववाद को जन्म दिया। इस अलगाववाद ने हत्या, मारकाट, बैर-विरोध व राष्ट्रीय स्तर पर नफरत को जन्म दिया। भाषा का प्रश्न, जो जनचेतना से जुड़ा था, वह राजनीति से जुड़ गया। देश में पहली बार भाषाई अलगाववाद के नाम पर बड़े पैमाने पर दंगे उस समय शुरू हुए, जब पंद्रह वर्षों की जो समयावधि हिन्दी राजभाषा बनाने के लिए दी गई थी, वह समाप्त हुई। 1965 में दक्षिण के ज्यादातर राज्य भाषाई आंदोलन में कूद पड़े। उन्हें लगा (जैसा राजनीति के दलालों ने उन्हें पढ़ाया था)कि हिन्दी को राजभाषा बनाकर उनकी रोजी-रोटी छीनी जा रही है। मजबूरन (या जानबूझकर, कहना मुश्किल है) सरकार को यह आश्वासन देना पड़ा कि हिन्दी किसी पर थोपी नहीं जाएगी। परंतु सरकार अँगरेजी की जगह भारतीय भाषाओं की अनिवार्यता को बनाने में भी विफल रही या दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव में उसने इस दिशा में कोई ठोस प्रयास ही नहीं किया। 
 
भाषाई अलगाववाद का फायदा राजनीतिज्ञों के बाद यदि किसी को हुआ तो वह है पूँजीपति वर्ग। यह वर्ग जानता था कि वह विदेशी भाषा के जरिए अपनी पकड़ जहाँ सत्ता पर कायम रख सकता है, वहीं विदेशों में भी अपनी शान-शौकत बड़ी आसानी से जमा लेगा। इस वर्ग ने भाषाई अलगाववाद में अपनी आहूति (धन देकर) शुरू की। परिणामतः भारतीय अस्मिता से जुड़ा यह प्रश्न कि हिन्दी राष्ट्रभाषा बने, पीछे छूट गया और अँगरेजी को एक सुअवसर मिला अपने पैर फैलाने का। 
 
भारत ही दुनिया का मात्र ऐसा देश है, जो अपनी भाषा नहीं बोल सकता। आजाद कहे जाने वाले इस देश में गुलामी के दिनों की भाषा आज भी फल-फूल रही है। गणतंत्र होकर भी भारत जन-गण की भाषा में अपना राजकाज नहीं चला पा रहा है। 
 
वास्तव में पचास वर्षों के इस सफर में हिन्दी के प्रति जो दुर्भावना अँगरेजीदाँ साहबजादों ने पैदा की, उसका यह दुष्परिणाम हुआ कि हिन्दी गवई, गँवार, ग्रामीण और साधारण तबके की भाषा मानी जाने लगी है और अँगरेजी सभ्य, विद्वान, पढ़े-लिखे व पैसे वालों की भाषा। 
 
यदि सरकार हिन्दी को बढ़ावा देना चाहती है तो अँगरेजी की अनिवार्यता खत्म करने के लिए कदम उठाए। संकल्प व दृढ़ इच्छाशक्ति से हिन्दी को सही मायने में राजभाषा व राष्ट्रभाषा बनाने का प्रयास करे। हर साल करोड़ों रुपए फूँक-ताप कर सप्ताह या पखवाड़े भर हिन्दी को बढ़ावा देने के बाद सालभर उसे उपेक्षित रखे, इससे अधिक शर्म और अपमान की बात क्या हो सकती है?

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