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हिन्दी दिवस विशेष : हम भाषा को नहीं बनाते, भाषा हमें बनाती है

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डॉ. छाया मंगल मिश्र

राष्ट्र भाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है। हिन्दी अपनी ताकत से बढ़ेगी। हिन्दी का प्रचार राष्ट्रीयता का प्रचार है। हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाना नहीं है वह तो है ही। हमारे राष्ट्र की अभिव्यक्ति का सरलतम स्त्रोत है। हिन्दी के द्वारा सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है आदि...आदि ... ये हम नहीं बोल रहे ये देश के विद्वान् पुरुषों के कथन हैं जो राष्ट्र भाषा के प्रचार को राष्ट्रीयता का अंग मानते थे। अब केवल काम है। नीतियां हैं...वो भी बेमतलब। 
 
कितना दुखी होंगे वे आज, जहां भी होंगे। क्योकि उनके इन सभी स्वर्णिम वाक्यों को, लोहे की तरह जंग लगे सरियों में हम बदलते देख रहे हैं, बड़े भारी और बोझल मन के दुःख के साथ। कहां गई भाषा के प्रति आस्था, विश्वास। कहां गया मातृभाषा का गौरव और उसकी अभिव्यक्ति? कैसे जाता जा रहा है ये रसातल में, कमतरी का अपराधबोध लिए हुए? कौन जिम्मेदार है इसका? और कैसे बचा पाएंगे अस्मिता हम अपने हिन्दू, हिंदुस्तान की धड़कन हिन्दी को? या फिर चलता रहेगा यह राष्ट्र ऐसे ही आत्माविहीन शव सा हिन्दी की धडकन से विरक्त हो? सोचिए इस विषय को, विचारिए इस संकट को भी....
 
भाषा कोई भी बुरी नहीं। बच्चा वाणी ले कर पैदा होता है, भाषा उसे हम देते हैं वैसे ही जैसे धर्म देते हैं और ये बात कि हिन्दी भी उसी धर्म से जुड़ी हुई है जो हमारे प्रथम धर्म हैं।
 
 हिन्दी का बिगाड़ भारत माता के रूप की लालिमा का बिगाड़ है, उसकी सिन्दूरी आभा का बिगाड़ है, उसके माथे की बिंदी का बिगाड़ है। बिगाड़ तो अंग्रेजों ने भरपूर किया पर उनके बिगाड़ को सम्मान से स्वीकार किया चापलूसों ने। 
 
फ़िल्में, शिक्षा पद्धति, कान्वेंटीकरण से होता सत्यानाश तो हम भुगत ही रहे थे, अब आया है वेब सीरिज का दौर।   साधन जितने आकार में छोटे होते गए, जेब में समाते गए इनके भाषा-बिगाडू रोगाणु-जीवाणु भी उतनी ही सूक्ष्म भेदीकरण शक्ति के साथ मस्तिष्क में समाने लगे हैं। जो थोड़ी बहुत हिन्दी का सतीत्व बचा हुआ था उसका शील-भंग करने में इसने भी कोई कसार नहीं छोड़ी। भले ही कहें कि ये तो हिन्दी में हैं फिर आपको दिक्कत क्यों? तो फिर पहले भाषा का मायने जानें-
 
“गिरा हि संखारजुया वि संसति, अपेसला होइ असाहुवादिणी.”- बृहतकल्पभाष्य
 
अर्थात्- सुसंकृत भाषा भी यदि असभ्यतापूर्वक बोली जाती है तो वह भी जुगुप्सित हो जाती है। 
 
बस यही चीज वर्तमान में आ चुकी है, पहले दबे पांव आती थी अब पूरे प्रमाण-पत्रों के साथ स्वीकार्य हो पूरी तरह अहंकार में चूर बच्चों बच्चों तक पहुंचाई जा रही है। नशीले हानिकारक पदार्थों के साथ। धुंआ-धुंआ होती संकृति के साथ ख़राब जुबान का जहर घोलती ये वेब सीरीजों की बाढ़, शयनकक्ष के कर्मों को सड़कों पर खुले आम करने को प्रोत्साहित करती, भाषा की मर्यादाओं को भंग करने को उकसाती इस बार अपने साथ धरती की घास को भी बहा ले जाएगी जो बड़ा ही अनर्थकारी होगा। ‘जब कोई विजित जाति अपनी भाषा के शब्दों को ठुकराए और विजेता की भाषा पर गर्व करे तो इसे गुलामी का ही चिह्न मानना चाहिए।’
 
‘भाषा की दो खानें हैं, एक किताबों में एक जनता की जुबान पर।’ और ये जुबान भ्रष्ट हो चली है खास करके भाषा के मामले में। ‘भाषा ही संस्कृति का वाहन है और उसका अंग भी।’ और हम दोनों के ही हन्ता बन बैठे हैं। कई आसान सी बुराइयों ने ‘कुनेन’ की भांति काम किया है। ऊपर से मीठा अंदर से कड़वा-जहर। दिल, दिमाग, बुद्धि, शुद्धि, जुबान, भाषा सभी को ख़त्म करने पर आमादा।
 
 बात-बात पर अपशब्दों का प्रयोग, महिलाओं के लिए अश्लील भाषा का बेहिचक प्रयोग, मर्यादा भंग, लिहाज को ठेंगा बताता बड़ों के प्रति अपमानजनक व्यवहार, कुटिलता से भरे नामों की रचना, धर्मग्रंथों के साथ-साथ संस्कृति का मजाक उड़ाना ऐसी कई अनंत बीमारियों के संवाहक ये वेब-सीरिज पीढ़ियों को बिगाड़ने का अपराध कर रहे। 
 
‘भाषा की समृद्धि स्वतंत्रता का बीज है’ पर दुखद तो यह है मेरे देश में कि विदेशी भाषा तो छोड़ हम अपनी भाषा के विषय में भी नहीं जानते। जबकि ‘भाषा मानव-मस्तिष्क की वह शस्त्रशाला है जिसमें अतीत की सफलताओं के जयस्मारक और भावी सफलताओं के लिए अस्त्र-शस्त्र, एक सिक्के के दो पहलुओं की तरह साथ साथ रहते हैं।’ पर हमें सावधान रहना होगा कि हमारा ये गौरवपूर्ण सिक्का जो भारतमाता के स्वर्णिम भाल पर चमचमा रहा है अपनी भाषा हिन्दी के रूप में इसे कोई भी मलीन न करने पाए हम भाषा को नहीं बनाते, भाषा हमें बनाती है। थोड़े से प्रयोजनीय शब्द गढ़ लेना भाषा बनाना नहीं है, सुविधा है। 
 
भाषा बड़ी रहस्यमयी देवी है। यह नई सृष्टि करती है। इतिहास विधाता के किए कराऐ पर वह ऐसा पर्दा डालती है कि कभी-कभी दुनिया ही बदल जाती है। तो इस खतरनाक मायाजाल को पहचानें। इसकी घुसपैठ हमारे देश की नींव को दीमक लगा दे उसके पूर्व ही हिन्दी के मान की रक्षा के पुण्य दायित्व को निभाएं। भाषा में प्रयुक्त एक-एक शब्द, एक-एक स्वराघात कुछ सूचना देते हैं। व्यक्तियों का नाम, कुलों-खानदानों के नाम, पुराने गावों के नाम, जीवंत इतिहास के साक्षी हैं।

हमारे रीति-रस्म, पहनावे, मेले, नाच-पर्व, पर्व-त्योहार-उत्सव सभी तो हमारी इस भाषा की गाथा सुना जाते हैं। आओ...मिल कर रोकें इस दुश्मन को जो हमारी भाषा रूपी गहने की चोरी की नीयत से कई रूप धरे है। यह भाषा ही तो हमारे विचारों का परिधान है। क्योंकि जब कोई भाषा नष्ट होती है तो उस राष्ट्र की कई वंशावलियां भी नष्ट हो जातीं हैं। तो सावधान....नींद से जागें...आपके देश की आत्मा पर प्रहार हो रहा है....धीरे-धीरे...हौले-हौले से पर करारा...

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