जिन्हें हिन्दी की सेवा करना चाहिए थी, वे अब हिन्दी को ही खत्म करने में लगे हैं। हालांकि निम्नलिखित 10 हिन्दी के दोस्त बनकर दुश्मनों जैसा व्यवहार कर रहे हैं। भारत सरकार को चाहिए कि वे हिन्दी एवं भारतीय संस्कृति के संरक्षण के पक्ष में इन दुश्मनों पर लगाम लगाएं, क्योंकि यह देश स्वानुशासन खो चुका है। इस आलेख में भी आपको बहुत-सी जगह अंग्रेजी और फारसी के शब्द मिल जाएंगे, जो कि अब हमारी मजबूरी बन गए हैं, जैसे कि 'मजबूरी' या 'जरूरत' को ही लें।
आज आवश्यकता यह है कि हम अंग्रेजी व अंग्रेजी बोलने वालों को ऊंचा समझना बंद करें और इसे केवल एक विदेशी भाषा की तरह ही सीखें व उतना ही सम्मान दें। अनजाने में राष्ट्रभाषा न बनाएं। यदि आप हिन्दुस्तानी हैं तो आपस में हिन्दी या किसी और भारतीय भाषा में बात करें। वरना हमें पता भी नहीं लगेगा और हम अपनी भाषा अनजाने में भूल जाएंगे। कहते हैं जिस चीज का अभ्यास जितना करो, वो उतनी ही मजबूत होगी और जिसका जितना कम, वो चीज उतनी ही कमजोर होती जाएगी।
1. अखबार : हिन्दी को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है हिन्दी के अखबारों ने। उन्होंने जान-बूझकर अंग्रेजी, अरबी और फारसी के शब्द अखबारों में ठूंसकर उन्हें प्रचलन में ला दिया। उर्दू भी अब पहले जैसी नहीं रही, उसे भी जान-बूझकर अरबी बनाया जा रहा है। नई पीढ़ी के लिए अब वे ही शब्द सबसे महत्वपूर्ण बन गए और यह सब कुछ हुआ है बस कुछ ही सालों में। तथाकथित रूप से पत्रकारिता पढ़कर आए या नहीं आए पत्रकारों ने सब कुछ नष्ट कर दिया। अच्छी हिन्दी की बात करना तो किसी हिन्दी साहित्यकार के बस की ही बात रह गई है। पहले साहित्यकार या हिन्दी का श्रेष्ठ शिक्षक ही पत्रकार बनता था लेकिन अब ऐसा नहीं है।
इन नवागत पत्रकारों को न तो आजादी के आंदोलन का इतिहास मालूम है और न ही संपूर्ण भारत के प्राचीन इतिहास की जानकारी। ये बस अच्छी-खासी अंग्रेजी पढ़कर आए हैं और अंग्रेजी के दम पर ही नौकरी कर रहे हैं। जिस व्यक्ति को इतिहास की अच्छे से जानकारी नहीं है, उसे न तो पत्रकार बनाना चाहिए, न राजनीतिज्ञ और न ही उसे प्रशासनिक स्तर का कोई पद देना चाहिए। आजकल पत्रकार बनना तो बहुत ही आसान है, इस देश में कई हॉकर पत्रकार बन गए हैं। तो क्या भविष्य में पत्रकारिता सबसे घटिया पेशा माना जाएगा? पेशा? हां, पेशा ही तो है पत्रकारिता अब सेवा कहां रहा।
2. टेलीविजन : हिन्दी समाचार चैनल अब ताजा खबर नहीं, ब्रेकिंग न्यूज चलाते हैं। उनकी बहस और उनके समाचारों में अधिकतर अंग्रेजी के शब्द इस्तेमाल होते हैं। उनके विज्ञापनों में भी भरपूर तरीके से अंग्रेजी होती है। अब हिन्दी के अंक तो अखबार और टेलीविजन की सामग्री (कंटेंट) से हट ही गए हैं। दूसरी ओर रियलिटी शो या अन्य पारिवारिक धारावाहिकों में धुआंधार अंग्रेजी बोली जाती है जिसके चलते हमारे सामने बड़ी हो रही पीढ़ी निश्चित ही हिन्दी नहीं सीख पाएगी, क्योंकि व्यक्ति भाषा तो अपने आसपास के माहौल से ही तो सीखता है।
बॉलीवुड और टेलीविजन मिलकर आने वाले कुछ वर्षों में हिन्दी को पूरी तरह से समाप्त कर देंगे। हालांकि आप भले ही यह कहते रहें कि आज भी बॉलीवुड हिन्दी सिनेमा है। आज आपको पता चल रहा है कि हिन्दी कितनी हिंग्लिश हो गई है तो कल भी आपको पता चलेगा कि हम देवनागरी में लिखते जरूर हैं लेकिन वह हिन्दी नहीं है।
3. बॉलीवुड : एक समय था जबकि बॉलीवुड के कारण ही हिन्दी को देश-विदेश में बढ़ावा मिला, लेकिन अब यही बॉलीवुड हिन्दी की हत्या करने में लगा है। अब बॉलीवुड की अधिकतर फिल्मों के नाम हिन्दी में नहीं होते हैं और अधिकतर फिल्मों में हिन्दी नहीं, हिंग्लिश बोली जाती है। अभिनेत्री और अभिनेताओं के साक्षात्कार और उनके संवाद देखकर आपको निश्चित ही दुख होगा यदि आप हिन्दीप्रेमी हैं तो। हिंग्लिश हो चुका बॉलीवुड कब इंग्लिश हो जाएगा, आपको पता भी नहीं चलेगा।
आज बॉलीवुड का इतना व्यापार इसलिए है, क्योंकि वहां हिन्दी फिल्में बनती हैं न कि अंग्रेजी। पर अब यही निर्माता-निर्देशक यह सब जानकर भी अपनी भाषाओं के प्रति अनजान बने हुए हैं और भारतीय भाषाओं के पूर्ण पतन का रास्ता साफ कर रहे हैं। वे रोमन में स्क्रिप्ट लिखवाते हैं और रोमन लिपि में ही संवादों के नोट बनाते हैं।
हालांकि वे हिन्दी का ही सत्यानाश नहीं कर रहे हैं, वे तो भारतीय संस्कृति का भी सत्यानाश कर रहे हैं। अब तो फिल्मों में अभिनेत्रियों को वर्जनाएं तोड़ने के लिए उकसाया जाता है। लड़कियों को बीयर और सिगरेट पीना सिखाया जा रहा है। जब नैतिकता टूटेगी तभी तो नई भाषा और संस्कृति का विकास होगा। बॉलीवुड यह काम अच्छे से कर रहा है। वह नैतिकता की सभी सीमाएं लांघ रहा है। आज आप मेट्रोसिटी या बड़े शहरों के युवाओं के हाल, चाल और ढाल देखिए। यह सब हो रहा है आधुनिक बनने के नाम पर।
4. मोबाइल और इंटरनेट : दुनियाभर में कई भाषा बोलने वाले लोग रहते हैं लेकिन इन सबके लिए इंटरनेट पर इंग्लिश एक साझा भाषा है और ये एकदम अलग किस्म की भाषा के तौर पर उभर रही है। इस इंटरनेट की साझा भाषा के चलते हिन्दी ही नहीं, अन्य कई भाषाएं भी हिंग्लिश होती जा रही हैं। कुछ भाषा विज्ञानी मानते हैं कि आने वाले 10 सालों में अंग्रेजी भाषा इंटरनेट पर राज करेगी लेकिन वो अंग्रेजी भाषा आज की अंग्रेजी से जुदा होगी। हिंग्लिश यानी हिन्दी, पंजाबी, उर्दू और अंग्रेजी के मिश्रण से बनी भाषा, जो भारतीय ऑनलाइन उपभोक्ताओं के बीच काफी आम है।
इंटरनेट दरअसल, रोजमर्रा की जिंदगी में जिस तरह इंटरनेट का इस्तेमाल बढ़ रहा है वो मिश्रित भाषा के फलने-फूलने का जरिया बन गया है, लेकिन यह मिश्रित भाषा उस सेतु की तरह है जिस पर से चलकर संपूर्ण भारत अंग्रेज बन जाएगा। तब उसे यह पता ही नहीं चलेगा कि कब हमसे हमारी भाषा छूट गई।
इस हिंग्लिश के चलते इंटरनेट पर इसी भाषा में सामग्री (कंटेंट) बनाने का दबाव रहता है। उन्हें ज्यादा हिन्दी परोसने की मनाही रहती है। फिर क्या परोसें? हम जो परोसेंगे वही तो वे सीखेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अब जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती या जो अंग्रेजी से कतराते हैं उनके बारे में कंपनियां ये प्रचार करने में लगी हैं कि अंग्रेजी नहीं आने का बहाना अब नहीं चलेगा। खैर...!
हमने हिन्दी को एसएमएस के जरिए रोमन में ढाला जिसके चलते तथाकथित बुद्धिजीवी चेतन भगत कहने लगे कि हिन्दी को देवनागरी नहीं, रोमन में लिखा जाना चाहिए। शशि थरूर भी हिन्दी का विरोध कर चुके हैं। हालांकि ट्विटर और फेसबुक पर इस बयान के पहले से ही रोमन का प्रचलन रहा है।
इंटरनेट पर कभी हिन्दी में स्तरीय और स्थायी महत्व की सामग्री डालने का कम ही प्रयास हुआ है। इंटरनेट और वाट्सऐप को तो हिन्दी में भड़ास निकालने का माध्यम बनाकर छोड़ रखा है। इंटरनेट के प्रारंभिक युग में साहित्य की सोच रखने वाले ब्लॉगरों ने खूब क्लिष्ट और अशिष्ट हिन्दी को परोसा जिसके चलते हिन्दी के प्रति आने वाली युवा पीढ़ी कभी आकर्षित नहीं हो पाई, वह अंग्रेजी को ही महत्व देती रही। ये ब्लॉगर लिखते भी क्या हैं? खुद के अवसाद को भारतभर में प्रचारित कर सिर्फ असंतोष बढ़ाने का ही कार्य करते रहे हैं।
5. स्कूल और कॉलेज : अब 'पाठशाला' या 'विद्यालय' शब्द का इतना प्रचलन नहीं रहा। 'स्कूल' सबसे ज्यादा प्रचलित शब्द है। यह सब मैकाले की करतूत है। उसी ने सबसे पहले संस्कृत की सभी पाठशालाएं बंद करवाई थीं। कॉन्वेंट तो मैकाले के जमाने से है। उसने ही कहा था कि इस देश को तोड़ना है और ईसाई धर्म स्थापित करना है तो सबसे पहले यहां की भाषा को समाप्त करो। उसके ही कार्य को आज अंग्रेजी स्कूल के लोग अच्छी तरह आगे बढ़ा रहे हैं। भारत के सरकारी और प्राइवेट स्कूलों पर एक शोध कर लीजिए, आपको हकीकत का पता लग जाएगा।
आज देश के सरकारी विद्यालयों की दशा देखकर दुख होता है। ग्रामीण क्षेत्र में शिक्षक से ज्यादा छात्र पढ़े- लिखे हैं। ठेके पर शिक्षक रखे गए हैं, उनमें से कुछ तो पीकर बैठे रहते हैं। कुछ तम्बाकू घिसते रहते हैं और कुछ तो कई-कई दिनों तक नदारद रहते हैं। बस तनख्वाह लेने के लिए ही नौकरी कर रहे हैं। शिक्षा का तो कोई ढांचा है ही नहीं। यहां बच्चों को शिक्षा देने से ज्यादा जरूरत तो शिक्षकों को शिक्षा देने की है। यदि ठीक-ठीक शिक्षा नहीं होगी तो भाषा और संस्कृति भी नहीं होगी।
6. बाजारवाद : शॉपिंग मॉल, तमाम दुकानों के होर्डिंग और लगभग सभी प्रॉडक्ट से हिन्दी को हटा दिया गया है। पाश्चात्य जैसा दिखने की होड़ के चलते अब अंग्रेजी में बड़े-बड़े होर्डिंग लगाए जाते हैं। त्योहारों के बाजार में भी हिन्दी को अब रोमन कर दिया गया है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने पहले खूब हिन्दी में विज्ञापन छपवाए या प्रसारित करवाए, क्योंकि तब लोग इतनी अंग्रेजी नहीं जानते थे जितनी कि आज। बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मकसद इसके पीछे हिन्दी का प्रेम नहीं बल्कि आम आदमी तक अपने उत्पादों को पहुंचाना था, लेकिन आज हिन्दी में अधिकतर अंग्रेजी मिली हुई है इसीलिए अब कुछ विज्ञापन सीधे-सीधे अंग्रेजी में ही दिए जाते हैं।
अब आप जानते ही हैं कि बाजारवाद ने देश के 3 सबसे बड़े त्योहार बना दिए हैं- पहला क्रिसमस, दूसरा वेलेंटाइन-डे और तीसरा न्यू ईयर। पिछले कुछ वर्षों में हिन्दी के बाजार को खत्म करने की जो साजिश रची गई, उससे कोई भी अनभिज्ञ नहीं है। देशी और विदेशी कंपनियों ने मिलकर हिन्दी को बाजार से हटाने का कार्य प्रारंभ कर दिया है इसीलिए आजकल अधिकतर साहित्यकार 'बाजारवाद' को गाली देते मिल जाएंगे।
7. अंग्रेजी के समर्थक : इस देश में बहुत से लोग ऐसे हैं, जो अंग्रेजी के समर्थक हैं। उन्होंने ही अंग्रेजी को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से इस देश में बढ़ावा दिया। उन्हें कुछ लोग मैकाले या अंग्रेजों की संतान कहते हैं। लेकिन ऐसे कहने वाले लोग ही अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं और अंग्रेजी की ट्यूशन भी लगवाते हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि अंग्रेजी को अब मजबूरी बना दिया गया है। उसके बगैर रोजगार नहीं मिलेगा, व्यक्ति की प्रगति बाधित हो जाएगी और उसमें हीनता का बोध होगा।
खासतौर पर बहुत ज्यादा पढ़े-लिखे, साहित्यकार, बुद्धिजीवी, इंजीनियर, वैज्ञानिक, शिक्षाविद, अभिनेता, पत्रकार, सरकारी एवं राजकीय कार्यकर्मी व उद्योगपति आदि सभी जब अपनी किसी सभा या समारोह में जब कहीं इकट्ठे होते हैं तो न मालूम क्यों उनके भीतर अंग्रेजी-प्रेम 'जाग्रत' हो जाता है। वे एक-दूसरे पर अंग्रेजी झाड़ते हुए नजर आते हैं। सचमुच अब अंग्रेजी हमारे हिन्दी जानने वाले भाइयों या गरीबों को नीचा साबित करने या दिखाने का माध्यम भी बन गई है।
8. टेक्नोलॉजी : आपके टेलीविजन, रिमोट, प्रेशर कुकर, फ्रिज, कंप्यूटर, बाइक, कार आदि सभी ऑटो और इलेक्ट्रॉनिक सामान पर क्या हिन्दी लिखी होती है। आप चीन में जाइए सभी सामान पर उनकी भाषा में लिखा होता है। पश्चिम ने तकनीक के अनुसार अपनी भाषा का विकास किया। भारत ने ऐसा करने में कोई खास रुचि नहीं दिखाई। अब जैसे मोबाइल और वीडियो को ही लें। इसे हिन्दी में क्या कहेंगे? ऐसे हजारों शब्द हैं, जो तकनीक के साथ जन्मे। हमारे यहां का भाषा विभाग, भाषा परिषद या भाषा एवं प्रौद्योगिकी संस्थान क्या करता है? संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय क्या करता है? जो लोग यह तावा करते हैं कि तकनीक के कारण हिन्दी का विकास हुआ है उनसे कहना चाहता हूं कि यह विकास एक छलावा है। हिन्दी के कंधे पर बैठकर अंग्रेजी का ही विकास होगा।
दूसरी बात, पश्चिम ने अपनी भाषा को तकनीक के अनुसार ढाला नहीं, भाषा के साथ छेड़छाड़ किए बगैर भाषा के अनुसार तकनीक को ढाला। भारत ने ऐसा नहीं किया, उसने भाषा को तकनीक के अनुसार ढाल लिया अर्थात तकनीक के सामने भाषा को झुकने पर मजबूर कर दिया जिसके चलते भाषा में बहुत-सा बदलाव हुआ। कभी चंद्रबिंदु हटाया तो कभी लगाया। अब तो कुछ अक्षर तकनीक के चलते हटा दिए गए, जैसे ङ, ञ् और हलंत वाले कुछ शब्द। 'श्रृ' लिखने में दिक्कत होती है तो 'श्र' लिखकर ही काम चला लेते हैं। अभी तक हिन्दी का कोई ढंग का टाइपराइटर या की-बोर्ड विकसित नहीं हुआ। अंग्रेजी के अनुसार चलता है हिन्दी का की-बोर्ड। अभी भी हजारों तरह के फोन्ट अभी भी प्रचलन में हैं।
तीसरी बात, चीन, कोरिया, जापान इत्यादि देशों में कम्प्यूटर तो आया लेकिन ऐसा कम्प्यूटर, जो कि अपनी भाषा में काम करने में सक्षम हो। इससे समस्त देशवासियों को समान रूप से लाभ पहुंचा। हमारे देश में जान-बूझकर उल्टी गंगा चलाई जाती है। यहां यदि आप कुछ नई चीज सीखना चाहें तो पहले आपको अंग्रेजी सीखने की आवश्यकता पड़ेगी। अंग्रेजी सीखो तभी तकनीक सीख पाओगे, सॉफ्टवेयर या हार्डवेयर इंजीनियर बन पाओगे। कितनी विडंबना है कि हमें हर नई चीज सीखने के लिए अंग्रेजी पर निर्भर रहना पड़ता है। अब तो अंग्रेजी ने हमारी मानसिकता भी बदल दी है।
9. प्रांतवादी सोच : दूसरे प्रांत के लोगों को हिन्दी से कोई दिक्कत नहीं है, क्योंकि हिन्दी किसी प्रांत की भाषा नहीं है यह सारे देश भी भाषा है, जो सभी देशवासियों ने विकसित की है। जिन्हें आप हिन्दी प्रदेश कहते हैं उनमें मारवाड़ी, मेवाती, मालवी, निमाड़ी, अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी, हरियाणवी, ब्रज, कन्नौजी, बुंदेली, भोजपुरी, मगही, पहाड़ी, कुमाऊंनी, गढ़वाली आदि भाषाएं बोली जाती हैं।
प्रांतवाद की राजनीति करने वालों ने ही हिन्दी का विरोध खड़ा किया, जो कि इस देश के लिए घातक सिद्ध हुआ। अहिन्दी प्रांत के कुछ मुट्ठीभर लोग जो राजनीति कर रहे हैं, दरअसल वे उस नींव को हिला रहे हैं जिस पर सभी टिके हुए हैं। हिन्दी बचेगी तो दूसरी भारतीय भाषाएं भी बचेंगी। हिन्दी मरेगी तो असमिया, तमिल, मराठी और बंगाली भी देर-सबेर 100 फीसदी मारी जाएंगी।
10. केंद्र और राज्य सरकारें : केंद्र और राज्य सरकारों के अधीन सभी विभागों के अधिकतर कार्य अंग्रेजी में होने लगे हैं, जैसे पत्रों का आदान-प्रदान, सर्कुलर निकालना, आदेश पारित करना, महत्वपूर्ण जानकारी या सूचना अंग्रेजी में देना।
पिछले 68 सालों से सरकार के सभी संकल्प, सामान्य आदेश, नियम, अधिसूचनाएं, प्रशासनिक तथा अन्य रिपोर्टें, प्रेस विज्ञप्तियां, संसद के किसी एक या दोनों सदनों के समक्ष रखी जाने वाली प्रशासनिक तथा अन्य रिपोर्टें, सरकारी कामकाज, संविदाएं, करार, अनुज्ञप्तियां, अनुज्ञा पत्र, टेंडर नोटिस और टेंडर फॉर्म के साथ सभी सरकारी फॉर्म, मुहरें, नामपट्ट और पत्र शीर्ष आदि सभी अंग्रेजी में होते आए हैं।
स्वतंत्रता के बाद जिन लोगों के हाथ में सत्ता आई, उन अंग्रेजी पिट्ठुओं, हमारे नीति-निर्णायकों, अभिजात्य एवं पढ़े-लिखे वर्ग के लोगों ने अंग्रेजी को हर मुख्य विभाग की कार्यकारी भाषा बना दिया था।
हालांकि नरेन्द्र मोदी की सरकार आने के बाद कम से कम यह तो किया गया है कि अब हर जानकारी हिन्दी में दी जाती है और इंटरनेट पर अंग्रेजी के साथ सरकारी वेबसाइट्स और पोर्टल पर हिन्दी में भी जानकारी उपलब्ध है। यहां यह कहना उचित होगा कि यदि केंद्र और राज्य की सरकारें हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं की उपेक्षा करती हैं तो वे भाषा की दुश्मन ही मानी जाएंगी। करें विचार...