भारत में अपनी भाषा की दुर्दशा के लिए सबसे पहले तो हमारा भाषाई दृष्टिकोण जिम्मेदार है जिसके तहत हमने अंग्रेजी को एक संभ्रांत वर्ग की भाषा बना रखा है।
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हम अंग्रेजी के प्रति दुर्भावना न रखें, पर अपनी राष्ट्रभाषा को उसका उचित सम्मान तो दें जिसकी वह हकदार हैं।
जवाहरलाल नेहरू ने 40 साल पहले यह बात कही थी मैं अंग्रेजी का इसलिए विरोधी हूं क्योंकि अंग्रेजी जाननेवाला व्यक्ति अपने को दूसरों से बड़ा समझने लगता है और उसकी दूसरी क्लास-सी बन जाती है। यही एलीट क्लास होती है।
बहुत से परिवारों में बच्चे अपने मां बाप से अंग्रेजी में बात करते हैं और नौकर या आया से हिन्दी में क्योंकि उन्हें यह लगता है कि यह उसी कामगार तबके की भाषा है।
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इसका एक दूसरा अहम कारण यह भी है कि बच्चों को नर्सरी स्कूल में भेजने से पहले भी यह जरूरी हो जाता है कि इंटरव्यू में पूछे गए अंग्रेजी सवालों का वे सही उत्तर दे सकें, एकाध नर्सरी राइम्स सुना सकें। माता पिता उन्हें इस इंटरव्यू के लिए तैयार करने में अपनी सारी ऊर्जा खपा डालते हैं।
बच्चे बोलना सीखते ही अंग्रेजी के अल्फाबेट्स का रट्टा मारकर और वन टू टेन की गिनती दोहराने लगता है (हिन्दी में गिनती तो आजकल कॉलेज छात्र छात्राओं को भी नहीं आती। हिन्दी भाषा सीखने वाले एक रूसी या जापानी छात्र को जरूर आती होगी)
लोअर के.जी. में पहुंचते ही बच्चा तीन-चार साल की उम्र में ए बी सी डी पढ़ना शुरू कर देता है जबकि हिन्दी का क ख ग उन्हें दूसरी कक्षा से ही सिखाया जाता है, जब उन्हें यह अखरने लगता है कि यह एक अतिरिक्त भाषा भी उन्हें सीखनी पड़ रही हैं।
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आवश्यकता इसकी अधिक है कि प्रारंभिक कक्षाओं से ही पहले उन्हें हिन्दी का अक्षर ज्ञान कराया जाए, बाद में अंग्रेजी का ताकि जो प्राथमिकता वे अंग्रेजी को देते हैं वह हिन्दी को दें।
तर्क यह दिया जाता है कि हिन्दी तो अपनी मातृभाषा है, वह तो बच्चा सीख ही जाएगा, उसकी अंग्रेजी मजबूत होनी चाहिए। आज इस तर्क को उलटने की आवश्यकता है - अंग्रेजी तो वह सीखेगा ही क्योंकि वह चारों ओर से अंग्रेजी माहौल में ही पल-बढ़ रहा है, अपनी भाषा कब सीखेगा?