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नवोदित कवि और संपादक की उलझन

विष्णु नागर

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पिछले करीब सात सालों से मेरे अनेक कामों में से एक छोटा-सा काम कविताएँ छापना भी रहा है। इस कारण कुछ दिलचस्प अनुभव हुए हैं। बहुत से एकदम नवोदित, कवियों-कवयित्रियों से इस बीच आमना-सामना हुआ है। इनमें से कई से मिलकर यह अहसास तीव्र हुआ है कि हमारे हिंदी प्रदेशों में कविता लिखना बाएँ हाथ का खेल समझा जाता है। लोग इधर लिखते हैं और उधर लिखे की स्याही सूखने से पहले उसके प्रकाशन की जुगत में भिड़ जाते हैं।

इन 'कवियों' को लगता है कि कविता लिखना वे माँ के पेट से सीखकर आए हैं, इसलिए उन्हें किसी भी किस्म की तैयारी या अध्ययन आदि की कोई जरूरत नहीं है। इनकी नजर में कविता दरअसल मात्र आत्माभिव्यक्ति है और 'आत्माभिव्यक्ति' के लिए भला भाषा लिखना आने के अलावा और जरूरत भी क्या है?

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चलो यहाँ तक बात फिर भी कुछ हद तक समझ में आती है मगर फिर उसे दूसरे भी पढ़ें, इसकी आतुरता भी क्यों होनी चाहिए? और अगर इसकी आकुलता किसी में है (और अक्सर सबमें होती है) तो कवि लेखक को लिखने का भी तो कुछ कौशल तो आना चाहिए वरना कोई पढ़ने की तकलीफ क्यों करेगा? सड़क पर मुफ्त में और फुर्सत के समय लोग तमाशा भी तब तक नहीं देखते, जब तक कि उसमें कुछ आकर्षण, कुछ दिलचस्प न हो।

मैं उन्हें अक्सर असफल ढंग से समझाने की कोशिश करता रहा हूँ कि दुनिया का कोई भी काम सीखना पड़ता है, सिवाय माँ का दूध पीने, रोने, हँसने, नित्यकर्म करने जैसे कुछ कामों को छोड़कर। आप लिखना शुरू करने से पहले वर्णमाला सीखते हैं और इसके लिए भी काफी कोशिश करनी पड़ती है, आप बार-बार गलती करते हैं, तब जाकर कहीं अक्षर लिखना, संयुक्ताक्षर लिखना, उन्हें पढ़ना, ठीक मात्राएँ लगाना और सही वाक्य रचना करना आता है। इससे पहले कलम पकड़ना तक हम बचपन में शिक्षक, माता-पिता आदि की मदद से सीखते हैं।

इसी तरह चलना भी हमें कोशिश करके ही सीखना पड़ता है और इस सीखने के दौरान हम बचपन में कई बार गिरते हैं, चोट खाते हैं। साईकिल चलाना, कपड़े पहनना, जूते पहनना भी अपने आप नहीं आ जाता। तो अगर मान लिया जाए कि कविता सिर्फ छंद रचना का नाम है तो भी छंद का अभ्यास करना तो आना ही चाहिए। और जो मानते हैं कि आजकल कविता में छंद इत्यादि की अनिवार्य नहीं है -और वे सही मानते हैं-तो भी किसी चीज की तो जरूरत होती ही है वरना क्यों छंद का बंधन न होने के बावजूद हर कवि निराला,मुक्तिबोध आदि नहीं हो जाता? इसलिए इतना तो मानिए कि कविता लिखना है तो अन्य विषयों के साथ कविताएँ पढ़नी भी होंगी।

और एक कवि की नहीं पचासों कवियों की कविताएँ पढ़नी होंगी। तभी तो कुछ-कुछ समझ में आएगा कि कविता आखिर होती क्या है और क्या नहीं होती है! बाकी आप अभ्यास से, जीवन के पर्यवेक्षण से सीखेंगे।

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बहरहाल मेरी समझाइश का कोई खास असर होता दिखता नहीं। ऐसे नवोदित कवि कहीं और 'ट्राय' मारते हैं और वसुंधरा चूँकि विपुला है तो कहीं-न-कहीं, कोई-न-कोई इन्हें 'सहृदय' भी मिल ही जाता है, जो भले ही उनसे पैसे लेकर मगर इनकी कविता छाप देता है। छात्र-जीवन से लेकर अब तक कभी-कभी ऐसे पत्र मेरे पास भी आते रहे हैं कि इतने रुपए दीजिए और फलाँ कविता-संकलन में अपनी कविता को छपा हुआ देखिए और अपने लिखे को पहली बार छपा हुआ देखने का तो अलग ही रोमांच होता है!

संपादक नामक प्राणी का ऐसे कवियों से रोज नहीं तो हफ्ते-दस दिन में सामना होता ही है। अभी एक कवयित्रीजी का फोन था कि आपने तो इस बार भी मेरी कविता पसंद नहीं की, इस बार तो मैंने कम पंक्तियों की कविता ही भेजी थी। यह समझाना उन्हें मुश्किल था कि बहनजी, सवाल सिर्फ लंबाई-छोटाई का नहीं है, सवाल उन पंक्तियों के कविता होने का है और अगर आपकी दिलचस्पी वाकई कविता लिखने में है तो कृपया कविताएँ गंभीरता से पढ़िए भी तो! लेकिन कविताएँ पढ़ने की बात जब भी मैंने किसी नवोदित कवि से कही है तो अक्सर उसने यह नहीं कहा है कि पढूँगा बल्कि एक गहरी निःश्वास छोड़ी है कि ये क्या फालतू का काम बता दिया आपने!

अगर आपको नहीं छापना है तो मत छापिए मगर फालतू का ये काम तो हमें मत बताइए! और कोई काम नहीं है क्या हमारे पास, कि कविता लिखने के लिए भी हमें कविताएँ पढ़नी होंगी? पढ़कर ही लिखना होता तो क्या हम कविता लिखते? और जब हम बिना पढ़े ही कविता लिख लेते हैं तो फिर पढ़ें क्यों? पागल कुत्ते ने काटा है क्या हमें?

सच बात यह है कि पूरे हिंदीभाषी समाज में पढ़ना दरअसल बहुत कम लोग पसंद करते हैं। यह हमारे अध्यापन के तौर-तरीके की कमी है या क्या है कि छात्र-जीवन से ही पढ़ने में अक्सर अरुचि होती है। ऐसे में वयस्क होने पर ज्यादातर लोग जैसे-तैसे अखबार पलट लेते हैं, यही क्या उनकी कम कृपा मानी जाए? इसलिए हमारे महत्वाकांक्षी युवा साथी भी अक्सर नहीं पढ़ते।

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यहाँ तक कि जिस पत्र-पत्रिका में कविता भेजते हैं, मैंने कई बार पाया है कि उसे भी वे नहीं पढ़ते। बस उन्हें इतना पता होता है कि ऐसी कोई पत्र-पत्रिका है, जहाँ कविताएँ छपती हैं। और मान लो आपकी पत्र-पत्रिका में छपी कोई कविता उन्होंने पढ़ भी ली तो यही कहेंगे कि सर, इसी तरह की कविताएँ तो आप छापते हैं, फिर मेरी क्यों नहीं छापते? मेरी कविता उससे किसी भी मायने में कम नहीं है। अब ऐसे आत्ममुग्ध, उत्साही युवाओं को समझाना क्या आसान है? बहरहाल, मैं उनसे इतना ही कह पाता हूँ कि भाई साहब या बहनजी आपके दिल में भाव उठते हैं तो उन्हें जरूर लिखिए। लिखने पर न कोई प्रतिबंध है, न हो सकता है। फिर इच्छा हो तो लिखकर अपने मित्रों-सुहृदों को भी सुना दीजिए, शायद इस लिहाज में वे सुन लेंगे कि आपका उनसे कोई व्यक्तिगत रिश्ता है लेकिन दूसरे आपको पढ़ें, इसका कोई कारण तो होना चाहिए?

वैसे सच यह भी है कि पत्र-पत्रिकाओं में छपी कविता या कविताएँ कितने लोग पढ़ते हैं? शायद एक या दो प्रतिशत ऐसे पाठक होते होंगे लेकिन जितने भी पाठक पढ़ते हैं वे इस आशा में पढ़ते हैं कि उन्हें जीवन के किसी नए अनुभव या किस‍ी नए कविता-कौशल का पता चलेगा। जो कुछ नहीं पढ़ते मगर सिर्फ कविता लिखते हैं और समझते हैं कि उन्होंने बड़ा भारी किला फतह कर लिया है, उनके पास कहने के लिए दरअसल कुछ होता नहीं है। भले ही वे भ्रम में रहते हैं कि उन्होंने दिल की गहराइयों से बड़े सरल-सादा शब्दों में बहुत बड़ी बा‍त कह दी है, जिसे जो पढ़ेगा, वही सराहेगा।

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