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नॉन फिक्शन पुस्तकें मचा रही हैं धूम

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- कीर्तिशेखर

विश्व प्रसिद्ध नॉन फिक्शन किताबों के अनुवाद हिन्दी पाठकों के बीच धड़ल्ले से बिक रहे हैं और पढ़े भी जा रहे हैं। इन ट्रेंड के तेजी से लोकप्रिय होने के बाद यह समझ भारतीय नॉन फिक्शन लेखकों को भी आने लगी है। यही कारण है कि तमाम विषयों की नॉन फिक्शन किताबें अब कथा-कहानी की आकर्षक चाशनी में बिकती हैं और पढ़ी जाती हैं।

पिछले कुछ सालों में नॉन फिक्शन या गैर किस्से-कहानियों वाले विषयों की किताबें किस्से-कहानियों के विषयों वाली किताबों से ज्यादा बिकी हैं, लेकिन इन गैर कथा विषयों में पाठकों को लगातार कहानियों का फ्लेवर मिल रहा है। शायद इनकी बिक्री का एक बड़ा कारण भी यही है। मतलब यह कि रीडिंग परिदृश्य से फिक्शन भले गायब हो गया हो, लेकिन फिक्शन फ्लेवर का विस्तार हो गया है।

योरप में नॉन फिक्शन के अंदर फिक्शन का चलन काफी पुराना है। एल्विन टॉफ्लर की ट्रायो सीरिज वाली किताबें फ्यूचर शॉक, पॉवर शिफ्ट और थर्डवेब जिसने पढ़ी है या स्टीफन हॉकिंग की ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम से जो गुजरा है, वह जानता है कि कठिन से कठिन और रुखे से रुखे विषय को कैसे आकर्षक और सरल बताया जा सकता है।
  विश्व प्रसिद्ध नॉन फिक्शन किताबों के अनुवाद हिन्दी पाठकों के बीच धड़ल्ले से बिक रहे हैं। इन ट्रेंड के तेजी से लोकप्रिय होने के बाद यह समझ भारतीय लेखकों को भी आने लगी है। यही कारण है कि तमाम विषयों की नॉन फिक्शन किताबें आकर्षक चाशनी में बिकती हैं।      


जी हाँ, इसका एक ही तरीका है कि अपनी बात किसी कहानी में कहें, मगर हिन्दुस्तान में अभी एक दशक पहले तक बुद्धिजीवी वर्ग अपनी बातें कथा-कहानी शैली में कहने की बजाय अधिकतम गूढ़ अंदाज में कहने का आदी रहा है और नतीजा यह होता रहा कि हिन्दी में बिकने वाली ज्यादातर किताबें साहित्यकारों की काल्पनिक कृतियाँ ही रहीं।

लेकिन अब तेजी से जमाना बदल रहा है। विश्व प्रसिद्ध नॉन फिक्शन किताबों के अनुवाद हिन्दी पाठकों के बीच धड़ल्ले से बिक रहे हैं और पढ़े भी जा रहे हैं। इन ट्रेंड के तेजी से लोकप्रिय होने के बाद यह समझ भारतीय नॉन फिक्शन लेखकों को भी आने लगी है। यही कारण है कि तमाम विषयों की नॉन फिक्शन किताबें अब कथा-कहानी की आकर्षक चाशनी में बिकती हैं और पढ़ी जाती हैं। यह सिर्फ भारतीय भाषाओं में ही नहीं हो रहा है। अँगरेजी में तो खासकर यह चलन झंडा बरदार की भूमिका निभा रहा है। विलियम डेलरिम्पल की द लास्ट मुगल की पहले हफ्ते ही हजारों कॉपियाँ बिक जाती हैं तो इसके पीछे इसी शैली और इसी टेस्ट का योगदान है। पवन के. वर्मा की द ग्रेट मिडिल क्लास, रामचंद्र गुहा की इंडिया ऑफ्टर गाँधी किताबें अगर जबर्दस्त रुचि के साथ पढ़ीं व खरीदी जाती हैं तो इसमें एक बड़ा हाथ रीडिंग हैबिट के बदले हुए मिजाज और नॉन फिक्शन की शैली में आए बदलाव का है।

हिन्दुस्तान जहाँ किसी किताब की 10 हजार कॉपियाँ बिक जाएँ तो वह बेस्टसेलर में मान लिया जाता है। ऐसे में इतिहास की किताबों का इस लेखन में बिकना पाठकों की बदली हुई अभिरुचि का प्रतीकहै। रामचंद्र गुहा की पुस्तक 'इंडिया ऑफ्टर गाँधी', पामेला माउंटबेटन की 'इंडिया रिमेम्बर्ड' तथा मारिया मिश्रा की 'विष्णूज क्राउडेड टेम्पल' भी इसी श्रेणी में आती हैं।

याद कीजिए, अब के पहले कब आपने इतिहास को एक चाव से पढ़ने और जब तक किताब खत्म न हो जाए, किताब न बंद करने के बारे में सुना था, लेकिन अब ऐसा हो रहा है। मधुकर उपाध्याय की 1857 के गदर पर लिखी गई ऐसी ही किताब है, जिसे आप पढ़ना शुरू करेंगे तो जब तक खत्म नहीं हो जाएगी, बंद करने का मन नहीं होगा, लेकिन यह किताब इतिहास पर है। यह किताब 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का आकलन करती है।

अपने फुटनोट्स और टिप्पणियों के साथ, लेकिन ट्रीटमेंट बिलकुल औपन्यासिक है। नॉन फिक्शन किताबें ही नहीं आज की राजनीतिक पत्रिकाओं को उठाकर पढ़िए। पाकिस्तान पर इमरजेंसी और इराक में अल कायदा का दबदबा अब ये महज सूचनाएँ नहीं हैं। इन सूचनाओं के देने का ढंग बदल गया है। अब सूचनाएँ अपने आपके पढ़ाए जाने के पूरे औपन्यासिक पैकेज के साथ आती हैं।

  मधुकर उपाध्याय की 1857 के गदर पर लिखी गई ऐसी ही किताब है, जिसे आप पढ़ना शुरू करेंगे तो जब तक खत्म नहीं हो जाएगी, बंद करने का मन नहीं होगा, लेकिन यह किताब इतिहास पर है। यह किताब 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का आकलन करती है।      
अरुंधति राय जब नर्मदा पर लिखती हैं तो वह किसी इंटेलेक्चुअल का लेख नहीं होता वह उस पूरी कला का निचोड़ होता है जिस कला को लोग उनकी द गॉड ऑफ स्माल थिंग्स से जानते हैं। टीवी चैनलों में दिखाई जाने वाली कोई फीचर स्टोरी देख लीजिए। उसे जब तक एक कथा के ढाँचे में नहीं बाँधा जाता, उसमें दर्शक रुचि नहीं लेते। जब 'क्लेश ऑफ सिविलाइजेशन' जैसी पुस्तक आई तो प्रकाशकों को कभी उम्मीद नहीं रही होगी कि दुनिया को इतनी बारीकी से विश्लेषित करने वाली यह किताब बेस्टसेलर का दर्जा हासिल करेगी। लेकिन ऐसा ही हुआ। क्यों? इसलिए कि किताब की शैली भारी-भरकम ढंग से नहीं थी।

उसमें एक कथा सृजक का पुट भी था। जब हैटिंग्टन लिखते हैं- मोरक्को से लेकर कश्मीर तक का अर्द्धचंद्राकार वृत्त दुनिया के लिए वैचारिक और धार्मिक टकराव के खौफ की नई कहानियाँ गढ़ रहा हैतो वे बोझिल भाषा में यह नहीं बता रहे हैं, बल्कि वे इसी बात को इस चित्रात्मक शैली में बता रहे होते हैं कि आपकी आँखों के सामने अपने इर्द-गिर्द के फुटेज भविष्य की एक खौफनाक फिल्म के रूप में घूम जाती है। आज की अखबारी रिपोर्टों में भी पाठकों को बाँधने का कथात्मक जादू है। आज के नॉन फिक्शन का यही कमाल है।

पिछले कुछ सालों में नॉन फिक्शन बिकने का एक बड़ा कारण यह भी रहा है कि ज्ञान और सरोकार की दुनिया बढ़ी है और इस दुनिया का मुकाबला बिना दुनिया को जाने नहीं किया जा सकता। यही वजह है कि तमाम विजुअल क्रांति के बावजूद खासकर छात्र वर्ग में रीडरशिप बढ़ी है और चूँकि व्यवहार दुनिया की हकीकत फिक्शन की बजाय नॉन फिक्शन में दुनिया के सामने आती रही है, इस वजह से भी पिछले कुछ सालों में नॉन फिक्शन किताबों की बिक्री में इजाफा हुआ है।

कम्प्यूटर, मैनेजमेंट, मीडिया, वित्त, सिनेमा इन तमाम विषयों की किताबें पिछले कुछ सालों में खूब बिकना शुरू हुई हैं, जिसके पीछे दो कारण है- एक तो लोगों की रुचि और समझ का दायरा बढ़ा है तो दूसरा कारण यह है कि अब इन तमाम विषयों को बिना जाने-समझे काम नहीं चल सकता। छात्रों के लिए तो खासतौर पर अब किसी भी दौर से कहीं ज्यादा प्रतिस्पर्धी समय आ गया है। इसलिए बेहतर करियर के लिए अब वे उन तमाम विषयों को पढ़ने के लिए बाध्य हैं, जो समकालीन ज्ञान की जरूरतों को पूरा करते हैं। इसलिए भी नॉन फिक्शन का क्रेज बढ़ा है।

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