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फूल ‍खिले हैं गुलशन-गुलशन

कितने फूल खिले हैं हिंदी कविता में

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प्रयाग शुक्ल
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हिंदी कविता में जब भी फूलों की याद या बात होती है, माखनलाल चतुर्वेदी की कविता 'पुष्प की अभिलाषा' सबसे ऊपर आ जाती है। उसे पीढ़ियों ने पढ़ा है और कंठस्थ भी किया है। आपको भी वह कविता इस पंक्तियों को पढ़ते हुए पूरी याद आ गई होगी या हो सकता है एकाध पंक्ति इधर-उधर हो रही हो स्मृति में सो, उसे फिर से प्रस्तुत कर रहा हूँ-'चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ/ चाह नहीं, प्रेमी माला में, बिंध प्यारी को ललचाऊँ/ चाह नहीं, सम्राटों के शव/ पर हे हरि, डाला जाऊँ/ चाह नहीं देवों के सिर पर/ चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ/ मुझे तोड़ लेना बनमाली/ उस पथ पर देना तुम फेंक/ मातृभूमि पर शीश चढ़ाने/ जिस पथ जावें वीर अनेक।' इसी तरह और भी कविताएँ हैं, अपनी-अपनी पसंद की, जो एक के बाद एक याद आती रह सकती हैं।

मसलन, सुभद्राकुमारी चौहान की, 'यह मुरझाया हुआ फूल है/ इसका हृदय दुखाना मत/ स्वयं बिखरने वाली इसकी पंखुड़ियाँ बिखराना मत।' और अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की वह कविता, 'फूल और काँटा' जो किशोर दिनों में कितनी-कितनी बार पढ़ते-सुनाते थे, और जो आज भी साथ है- 'हैं जनम लेते जगत में एक ही/ एक ही पौधा उन्हें है पालता/ रात में उन पर चमकता चाँद भी/ एक ही सी चाँदनी है डालता/ मेह उन पर है बरसता एक-सा/ एक-सी उन पर हवाएँ हैं बहीं/ पर, सदा ही यह दिखाता है हमें/ ढंग उनके एक-से होते नहीं।'

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वास्तव में हिंदी कविता का कानन विभिन्न प्रकार के कुसुमों से भरा है- एक जमाने में और आज भी उसमें पुष्प लताएँ कुछ कम नहीं हैं पर इसमें सच्चाई है कि 'उस जमाने' में किसी भी कवि का काव्य-संसार कुसुम प्रसंगों के बिना पूरा भी नहीं होता था। सो, भारतेंदु हरिश्चंद्र, श्रीधर पाठक, जयशंकर प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी, मुकुटधर पांडेय, जानकी वल्लभ शास्त्री, दिनकर हों या अज्ञेय, नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर, बच्चन, गिरिजाकुमार माथुर, भवानी प्रसाद मिश्र वहाँ कविता में बहुतेरे फूल प्रसंग हैं।

आप प्रत्येक की वाटिका में जाएँ तो वहाँ न जाने कितनी प्रकार की फूल-छवियाँ आपको मिलेंगी, न जाने कितने प्रकार की शब्द-मालाओं में सजी। जब से मैं हिंदी कविता में फूलों संबंधी कविताओं के एक संचयन पर स्वेच्छा से काम कर रहा हूँ, तब से इनकी मनोहारी और कसक भरी छवियों की गिरफ्त में रहता हूँ। और जहाँ कुसुम हैं उनमें से पाँच-सात सौ तो मैं चुन चुका हूँ। वहाँ भ्रमर, तितली आदि भी होंगे ही।

सो, श्रीधर पाठक ने 'भ्रमर गीत' शीर्षक से एक कविता ही लिखी। और राय देवीप्रसाद पूर्ण की 'सुंदर फुलवारी' की ओर नजर डालिए तो वहाँ कई छवियाँ मिलती हैं। रामेश्वरी देवी चकोरी ने 'प्रभात' में लिखा-'पुष्प के अधर प्रकंपित हुए, भरी है तीखी सौरभ-सुरा/ पँखुड़ियों को प्याली में ढाल, पी रही अलि-बाला आतुरा।'

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और बहुत-बहुत पहले, खड़ी बोली के 'आदि' काल में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने 'फूल सिंगार' शीर्षक कविता की रचना की जो 'हरिश्चंद्र चंद्रिका, मोहन चंद्रिका' में सन्‌ 1 880 में प्रकाशित हुई। जिसकी पहली पंक्ति है- 'सखियन आज नवल दुलहिन को फूल सिंगार बनायो हों।' कभी-कभी लगता है किसी एक भाषा के काव्य संसार को लेकर कोई काम करने चलिए और वह काम विषय केंद्रित से, तो बीसियों काव्य स्वर तो सुनाई पड़ते ही हैं, यह भी दिखाई पड़ता है कि काव्य भाषा कितने रूपों में ढली और बदली है।

सो, जब मैंने हिंदी की नदी संबंधी कविताओं का एक संचयन 'कविता नदी' नाम से संपादित किया था तो भी यही लगा था कि नदी विषय के साथ विभिन्न दौरों में जो काव्य प्रवाह मिलता है, वह कुछ वैसा ही है जैसा कि किसी नदी की लंबी यात्रा का होता है। और अब जब फूलों संबंधी कविताओं को खोज रहा हूँ तो वास्तव में विभिन्न कालों में भाँति-भाँति के कुसुम खिले हुए मिल रहे हैं, और उन्हें पाने/ पहचानने का अपना एक विशेष आनंद है।

महादेवी जी ने लिखा है कि 'पिता जी ने हिंदी पढ़ने के लिए 'सरस्वती' पत्रिका मंगवाना आरंभ किया था जिसमें दद्दा मैथिलीशरण की खड़ी बोली की कविताएँ प्रकाशित होती थीं। उन्हीं का अनुकरण कर मैंने एक तुकबंदी की भी। तब मेरी अवस्था 11 वर्ष की रही होगी। इसके साथ मेरे लेखन का तुतला उपक्रम समाप्त हो गया और पंडित जी से अलंकार पिंगल आदि का विधिवत प्रशिक्षण प्राप्त करते हुए मैंने ब्रज भाषा में समस्या पूर्ति करना तथा स्वतंत्र रूप से भी कविता लिखना आरंभ किया।'

और तब फूल पर जो कविता उन्होंने लिखी वह इस प्रकार हैः 'बांधे मयूख की डोरिन से किशलय के हिंडोरन में नित झूलिहौं/ शीतल मंद समीर तुम्हें दुलराइहै।

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जयशंकर प्रसाद का तो एक संग्रह ही- आरंभिक- 'कानन कुसुम' नाम से है 'दलित कुमुदिनी' और 'सरोज' जैसी कविताएँ इसमें संकलित हैं। दरअसल फूलों के विविध रूप, एक कवि के हृदय पर किस तरह 'आघात' करते रहे हैं, इसे 'अज्ञेय' ने 'धावे' शीर्षक कविता में बहुत अच्छी तरह पहचाना/ पहचनवाया - 'पहाड़ी की ढाल पर/ लाल फूला है/ बुरूस ललकारता,/ हर पगडंडी के किनारे/ कली खिली है/ अनार की/ और यहाँ/ अपने ही आँगन में/ अनजान/ मुस्करा रही है यह/ कचनार/ दिल तो दिया-दिलाया एक ही विधाता ने/ धावे मगर/ उस पर बोले हजार।'

यहाँ तक पहुँचकर मुझे लग रहा है कि यह लेख तो सहज रूप से छात्र जीवन के किसी ऐसे लेख की तरह भी ढला है, जब कहा गया हो कि "हिंदी कविता में फूल" विषय पर एक निबंध लिखो। पर क्या हर्ज है, अगर इस तरह भी हम हिंदी कविता के कई कवियों और कविताओं की याद कर, और दिला सकें इस विस्मृति युग में। और एक फर्क भी तो मैं महसूस कर रहा हूँ, छात्र जीवन में हम जिनती काव्य पंक्तियों से गुजर पाते हैं, उससे न जाने कितनी गुना पंक्तियों से अब तक मैं गुजर चुका हूँ। सो, तब के किसी निबंध से इस निबंध का फर्क पाठक महसूस कर सकते हैं।

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