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रोमन लिपि से हिन्दी की हत्या की साजिश

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, सोमवार, 8 सितम्बर 2014 (13:42 IST)
प्रिय दर्शन
 
इन दिनों हिन्दी  को देवनागरी की जगह रोमन लिपि में लिखने के सुझाव खूब दिख रहे हैं। जिस तरह ये सुझाव दिख रहे हैं उसी तरह वह रोमन हिन्दी दिख रही है जो एसएमएस, ई-मेल, हिन्दी  के टीवी चैनलों और कुछ विज्ञापनों में जगह बना रही है। दरअसल, हिन्दी  को रोमन में लिखने का तर्क भी यही बताया जा रहा है- जब बिना किसी प्रयत्न के रोमन में हिन्दी चल पड़ी है और बाजार और तकनीक की मजबूरियों में हम उसे अपना रहे हैं तो इसे और आगे क्यों न बढ़ाया जाए। इस तर्क के साथ यह प्रलोभन भी जुड़ा है कि ऐसा करने से हमारी हिन्दी  कहीं ज्यादा तेजी से फैलेगी, उसे वह प्रभु वर्ग भी समझ पाएगा जो इन दिनों विकास की दशा और दिशा तय कर रहा है।

 


तर्क यहीं खत्म नहीं होते, वे अपने लिए इतिहास से संदर्भ भी जुटा रहे हैं-एक तुर्की का, जहाँ कमाल अतातुर्क ने रातों-रात लिपि बदल डाली और तुर्की को क्रांति के रास्ते पर डाल दिया। दूसरा उन पुरानी बहसों का जो आजादी से पहले और बाद इस बहुभाषी देश की भाषा और लिपि को लेकर चल रही थी। सुनीति कुमार चार्टजी  जैसे विद्वानों को उद्धृत किया जा रहा है जिनका सुझाव यही था कि भारतीय भाषाओं को रोमन में लिखा जाए।
 
सवाल है, ये पुराने तर्क लोगों को अब क्यों याद आ रहे हैं? क्या लिपि और भाषा का रिश्ता इतना सीधा-सरल होता है जितना बताया जा रहा है? क्या तुर्की को रोमन में लिखने से भाषा की, और इसकी वजह से विचार की प्रकृति नहीं बदली होगी? क्या लिपियों के मरने से भाषाएँ नहीं मरती रही हैं? 
 
लेकिन मेरी चिंता यह नहीं है कि देवनागरी खत्म हो जाएगी तो हिन्दी  बचेगी या नहीं। मेरी चिंता यह है कि वह किस रूप में बचेगी और किनके बीच बचेगी? भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं होती, और अभिव्यक्ति भी बस उतनी नहीं होती जो बाजारों, विज्ञापनों और एसएमएस-ई-मेल की दुनिया में दिखाई दे रही है। भाषा और अभिव्यक्ति की कई परतें होती हैं और इन परतों का लिपि से गहरा संबंध है। शब्द की ताकत सिर्फ वाचिक नहीं, लिखित रूप में भी होती है। कई बार एक बोला हुआ शब्द जो भाव व्यक्त नहीं करता वह उसका लिखा हुआ रूप करता है। लिखित भाषा का अपना एक संप्रेषण होता है जिसे मौखिक भाषा संभव नहीं कर सकती। अगर निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’ या जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ पूरी की पूरी रोमन में लिख दी जाए तब भी वह अपने प्रभाव में वही कविता रह जाएगी, इसमें संदेह है। और रोमन में लिखते हुए कोई प्रसाद या निराला ‘कामायनी’ या ‘राम की शक्तिपूजा’ लिख पाएगा, यह ज्यादा संदिग्ध है। 
 
दरअसल, हिन्दी को रोमन में लिखने के जो वकील बाजार की मर्जी और जरूरत के हिसाब से लिपि को बदलने की दलील दे रहे हैं वे भूल रहे हैं कि बाजार को भाषा से नहीं, अपने कारोबार से मतलब है। भाषा जितनी छिछली, सरल और इकहरी होती जाएगी वह उसके उतने ही काम आएगी। या फिर शब्दों की अपनी स्मृति जितनी कम होगी, उनमें विज्ञापनबाज चमक उतनी ही पैदा की जा सकेगी। ‘ठंडा मतलब कोका-कोला’ लिखने वाला बाजार ठंडे को एक नया अर्थ नहीं दे रहा, इस शब्द को उसके मूल अर्थ से वंचित कर रहा है, बल्कि उसके कई संभव अर्थ उससे छीन ले रहा है। रोमन में हिन्दी  लिखने वाली टीवी और फिल्मों की दुनिया असल में किसी तकनीकी मजबूरी में नहीं, अपने अंग्रेजीदां विशेषाधिकार के तहत हिन्दी  का यह दुरुपयोग कर पा रही है। यह नई प्रवृत्ति हिन्दी  गीतों और संवादों का ही नहीं, हिन्दी  फिल्मों का वर्ग भी बदल दे रही है। यह अनायास नहीं है कि बटला हाउस से आजमगढ़ तक भारतीय मुसलमान का जो वास्तविक अकेलापन है उससे जुड़ी कोई फिल्म बनाने की जगह हिन्दी  के फिल्मकारों को अमेरिका में नाइन इलेवन के बाद बदले हुए माहौल में मुसलमानों का अकेलापन नजर आ रहा है जो ‘न्यूयॉर्क’ या ‘माई नेम इज ख़ान’ जैसी फिल्मों में दिख रहा है। यह वर्ग जब भारतीय आतंकवाद पर फिल्म बनाता है तो ‘वेडनेसडे’ जैसी फिल्म बनाता है जिसमें आतंक के चेहरे को उसकी स्टीरियोटाइप समझ से आगे देखने की कोशिश नहीं होती। 
 
दरअसल, महानगरों में रह रहा और अपनी ग्लोबल हैसियत पर इतरा रहा जो अमीरों का भारत है, उसी को रोमन में हिन्दी  की जरूरत है। क्योंकि यह रोमन हिन्दी  उसके कंप्यूटर पर पहले से चली आ रही चैट को आसान बनाती है, उसकी सोशल नेटवर्किंग साइट पर उसके मेलजोल को सहज करती है और उसे एक छोटे-से उस अंग्रेजीदां तबके के करीब लाती है जो अन्यथा देवनागरी लिपि को पढ़ने का अभ्यास खो बैठा है। 
 
चीनियों की लिपि कहीं ज्यादा जटिल और चुनौती भरी है। लेकिन चीनियों का दर्प इतना बड़ा है कि न उन्हें अपनी बोली बदलने की जरूरत महसूस हो रही है और न ही लिपि। चीनी लोग अंग्रेजी सीख भी रहे हैं तो बस कारोबार के लिए, सरोकार के लिए नहीं रोमन में हिन्दी  लिखकर इस प्रभुवर्ग से जुड़ने की लालसा इस तबके में इतनी गहरी है कि वह इसके दूसरे पक्ष को देखने को तैयार नहीं है। जो भाषिक साम्राज्यवाद हिन्दी  और भारतीय भाषाओं में काम कर रहे लोगों को नई तरह की वंचना का शिकार बना रहा है वह रोमनीकृत हिन्दी  से कुछ और मजबूत होगा क्योंकि जो करोड़ों-करोड़ लोग देवनागरी में लिखने-पढ़ने के आदी हैं, वे अचानक अपने आपको एक नई और अजनबी लिखित भाषा के सामने पाएँगे। यह उनके पूरे भाषिक विन्यास पर एक नई चोट होगी जो उन्हें और कमजोर और कातर छोड़ जाएगी। उनकी नव उपनिवेशी दासता कुछ और गाढ़ी होगी जो अभी ही हमारे तंत्र में एक तरह का परायापन झेल रही है। 
 
हिन्दी  का और ज्यादा बुरा हाल होगा। हिन्दी  में लिखा-पढ़ा जा रहा पूरा साहित्य, हिन्दी  की पत्र-पत्रिकाएँ- सब जैसे एक नए असमंजस के दौर में दाखिल हो जाएँगे। ठीक है कि अखबारों में विज्ञापन की तरह यह रोमनीकृत हिन्दी  दिख रही है, लेकिन फिलहाल इसका इस्तेमाल नमक या ज्यादा से ज्यादा मसाले की तरह हो रहा है। वह पूरा भोजन हो जाएगी तो अरुचिकर और अपच्य दोनों हो जाएगी। क्योंकि तब एक ऐसी याँत्रिक हिन्दी  सामने होगी जिसका सुगठित-सुपठित रूप गायब हो जाएगा। एक सुसंगत, सुव्यवस्थित और पूर्ण विकसित भाषा के रूप में अभी दुनिया भर की भाषाओं को टक्कर दे सकने वाली हिन्दी  अपने लिपिबद्ध रूप में मानकीकरण की एक गैरजरूरी और बहुत गंभीर समस्या से जूझ रही होगी और अचानक वह अशक्त, अपाहिज और अंग्रेजी के मानकों पर निर्भर एक लाचार भाषा दिखने लगेगी। फिर इस लाचार भाषा को जबर्दस्ती खींचने की जगह दफन कर देने का खाता-पीता तर्क सामने आएगा जो अंतत: अंग्रेजी को मातृभाषा और राष्ट्रभाषा के रूप में अपना लेने की वकालत करेगा। 
 
यह भय न नकली है न अतिशयोक्तिपूर्ण। अभी ही भारत में अपनी बढ़ रही अपरिहार्यता पर इतरा रही अंग्रेजी जनसंख्या से जुड़े आंकड़ों को गलत रोशनी में पेश कर देश की दूसरी सबसे बड़ी भाषा होने का दावा कर रही है। इस देश में महज 2।3 लाख लोग ऐसे हैं जो अंग्रेजी को अपनी पहली भाषा बताते हैं। करोड़ों हिन्दी भाषी ऐसे हैं जो दूसरी भाषा के रूप में अंग्रेजी का नाम लेते हैं। इन हिन्दी भाषियों को अपने खाने में खींचने और जोड़ने में लगी अंग्रेजी, हिन्दी भाषी समाज, साहित्य, कला और संस्कृति के प्रति अपने विद्वेषी सौतेलेपन को छुपाने की भी कोशिश नहीं करती। 
 
इस सौतेली अंग्रेजी के ड्राइंगरूम या बेडरूम में रोमन हिन्दी  बस दासी या सेविका की तरह ही दाखिल होगी। कुछ उसी तरह जिस तरह सुदूर छत्तीसगढ़ और झारखंड और बंगाल से चलीं गरीब गृहस्थनें- माँएँ और पत्नियाँ -दिल्ली आकर कामवाली की नई संज्ञा और पहचान हासिल करती हैं और किसी संपन्न मालकिन की उदारता के प्रति कृतज्ञ भाव से काम करती रहती हैं।
 
सवाल है, क्या रोमन हिन्दी  भारत के विकास को कुछ गति या समग्रता देगी? यह आत्महीन दृष्टि अगर अमेरिका और यूरोप से अपनी निगाहें मोड़ चीन की तरफ देख सके तो उसे कहीं ज्यादा सही निष्कर्ष सुलभ होंगे। चीनियों की लिपि कहीं ज्यादा जटिल और चुनौती भरी है। लेकिन चीनियों का दर्प इतना बड़ा है कि न उन्हें अपनी बोली बदलने की जरूरत महसूस हो रही है और न ही लिपि। चीनी लोग अंग्रेजी सीख भी रहे हैं तो बस कारोबार के लिए, सरोकार के लिए नहीं। कुछ उसी तरह, जैसे कुछ अंग्रेज और अमेरिकी लोग हिन्दी  सीख रहे हैं या माइक्रोसॉफ्ट अपने विंडोज में हिन्दी  के फौंट डाल रहा है। जापानियों और रूसियों की भी तरक्की के अभिमान का एक पक्ष यह है कि उन्होंने अपनी भाषा में काम किया है। 
 
लेकिन 200 साल की ब्रिटिश दासता का असर हो या 20 साल के अमेरिकी नवसाम्राज्यवाद का आतंक- भारत अचानक अपना सब-कुछ छोड़ ब्रिटेन और अमेरिका की तरह होने को बेताब है। जो-जो चीजें इसकी राह में आ रही हैं उन्हें वह छोड़ता जा रहा है। देवनागरी लिपि को छोड़ने की वकालत इसी बेताबी का हिस्सा है। सवाल है, इस बेताबी के आखिरी नतीजे क्या होंगे? रोमन में हिन्दी  को बरतने का चलन दरअसल हिन्दी  को उसी तरह बांट देगा जैसे भारत बंटा हुआ है। एक रोमन हिन्दी  होगी जो अंग्रेजीदां प्रभुवर्ग की सेवा करेगी और एक देवनागरी हिन्दी होगी जिसमें करोड़ों लोगों के जख्म अपनी जुबान खोजेंगे। और यह सिर्फ भाषा की खाई नहीं साबित होगी, यह भारत और इंडिया नाम के दो बिल्कुल अलग-अलग बन रहे देशों के फासले को कुछ और बढ़ाएगी। दरअसल, यह इंडिया की हिन्दी है जो भारत की हिन्दी  से पीछा छुड़ाना चाहती है और देवनागरी के धूल भरे समाज से अलग होकर अपने लिए रोमन का वातानुकूलित कक्ष चाहती है। 
 
हिन्दी  या देवनागरी को ऐतिहासिक तौर पर बचना या खत्म होना होगा तो वह बचेगी या खत्म हो जाएगी। इतिहास बहुत निर्मम होता है और उसकी गति चौंकाने वाली होती है। लेकिन इस मोड़ पर जो लोग हिन्दी  को रोमन में बरतने का आग्रह कर रहे हैं वे किन ऐतिहासिक शक्तियों के साथ अपनी पहचान जोड़ना चाहते हैं, यह बिल्कुल स्पष्ट है।        
 
लिपि की समस्या सिर्फ हिन्दी  के ही साथ नहीं है अपितु उर्दू के साथ भी ये समस्या एक लंबे अर्से से जुड़ी हुई है..।  असगर वजाहत जैसै लोग उर्दू को देवनागरी लिपि में परिवर्तित कर देने की बात करती हैं..।  अगर वास्तव में रेमन लिपि हो जाने से तुर्की भाषा समृद्ध हो गई होती तो ये एक अच्छी बात होती लेकिन हुआ इसका बिल्कुल उल्टा है..।  मुस्तफा कमाल पाशा ने खलीफा से जातिगत दुश्मनी निकालने के लिये न सिर्फ धर्म की धज्जियाँ  बिखेर दीं बल्कि तुर्की के इतिहास, सभ्यता और संसकृति को भी मिट्टी में मिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी..।  अगर लिपि परिवर्तित करने से तुर्की भाषा का उत्थान होता तो आज तुर्की को युरोपीय संढ के सामने 81 वर्षों से घुटने टेके रहने की जरूरत नहीं पड़ती। तुर्की आज भी यूरोप का बीमार कहलाता है..।  हिन्दी  न सिर्फ एक भाषा है बल्कि ये भारतीय संसकृति और सभ्यता की अमूल धरोहर है ..।  भाषा लिपि परिवर्तन होने से सिर्फ मरती ही है जीवित नहीं होती..।  बाजार वाद के गुलामों को ये सत्य स्वीकरने में हिचकिचाहट हो रही है..। । 
 
दरअसल यह इंडिया की हिन्दी  है जो भारत की हिन्दी  से पीछा छुड़ाना चाहती है और देवनागरी के धूल भरे समाज से अलग होकर अपने लिए रोमन का वातानुकूलित कक्ष चाहती है। 
 
 
(लेखक एनडीटीवी से जुड़े हैं) 
साभार-तहलका हिन्दी से 
 

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