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साहित्य की चुनौती और लेखक

हमारी सामाजिक रचनात्मकता का शोषण तो नहीं हो रहा?

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जीवनसिंह ठाकुर
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साहित्य के सामने हमेशा चुनौतियाँ रही हैं, कहने को तो वह 'समाज का दर्पण है' लेकिन साहित्य, दर्पण के पीछे उसको भी देखता है, जो जड़ों के भी पार तक जाता है। पूरी परंपरा और जीवन की सहजता को लेकर साहित्य की चिंताएँ होती हैं। वहीं जीवन को क्लिष्ट बनाने, उसे कठिन और त्रासद बनाने वाली स्थितियों को कलम के चाकू से चीरते हुए चेहरों को बेनकाब करता है।

जबड़ों में छुपे हुए सभ्यता के उन तीखे दाँतों को देखता है, जो मुस्कुराहट की आड़ में खून के लिए बेताब होते हैं। कल्पना करें वेदव्यास जैसे लेखक ने एकलव्य के बारे में न लिखा होता तो क्या हम जान पाते कि एकलव्य का अँगूठा कटवा लिया गया था?

वेदव्यास क्या नहीं जानते थे कि अँगूठे का प्रसंग लिखकर वे गुरु द्रोण और कौरव सत्ता के कारनामों को उजागर कर रहे हैं? हालाँकि द्रोण और वेदव्यास इन्द्रप्रस्थ की सत्ता के अधीन थे। उस सत्ता के लिए उनकी प्रतिबद्धता स्पष्ट थी, लेकिन लेखक वेदव्यास ने सत्ता को निरंतर बेनकाब किया है। लेखक का कहने का अंदाज होता है, लेकिन वह कहता सच है। लेखक वेदव्यास यूँ तो लिखने से रहे कि एकलव्य के साथ अत्याचार हुआ है।

बड़े ही सांस्कृतिक तरीके से मान्य सभ्यता के मूल्यों की आड़ में उसे पंगु बनाने का षड्यंत्र किया गया था। वेदव्यास की लेखकीय पीड़ा थी। उन्होंने उस प्रसंग को पूरे सांस्कृतिक तरीके से इतना जीवंत लिखा कि हजारों बरस बाद भी हम पीड़ा और तकलीफ बखूबी महसूसते हैं। हर युग में कवि ने, कहानीकार ने, उपन्यासकार ने या प्रवचनकारों ने अपने दायित्व को बखूबी निभाया है।

महाराज दुष्यंत द्वारा शकुंतला से विवाह की बात ही भूल जाना, राजाओं के इस शगल को युगदृष्टा कवि कालिदास ने तत्कालीन मान्य परंपराओं, साहित्यिक मानदंडों का पालन करते हुए भी पूरा विद्रोही रूप अख्तियार किया था। शकुंतला को भूल जाने की बात को पूरे सांस्कृतिक अंदाज में कवि ने लिखा है। हमें बेहद रचनात्मक तरीके से 'स्त्री की स्थिति' उसकी पीड़ा का सूत्र थमाया है। क्या कालिदास ने सत्ता के स्वेच्छाचार को बेनकाब करते हुए शकुंतला तथा उसके बेटे के रूप में जनता के समक्ष एक चुनौती नहीं पेश की थी?

मध्यकाल में कालिदास की पीड़ा का सूत्र तुलसीदास थाम लेते हैं। तत्कालीन सत्ता, जो कई मायनों में विदेशी और विपरीत सभ्यता वाली थी। धर्म, अर्थ, समाज को गंभीर चुनौतियाँ थीं। पौराणिक कथा को इस संक्रमणकाल में सृजन की भूमि बनाते हैं।

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कृत विधि सृजी नारी जगमाही ।पराधीन सपने हूँ सुख नाहीं॥ पराधीन को तो सपने में भी सुख नहीं। तुलसी सीधे-सीधे राजनीति तथा समाज को चुनौती नहीं दे सकते थे, लेकिन जनव्यापी कथा में 'गुलामी' के अभिशाप और नारी की अति दारुण स्थिति को आँख में अँगुली डालकर दिखाते हैं। लेखक तत्कालीन समय की चुनौतियों से रूबरू होता हुआ अतीत की परंपराओं, मूल्यों को, संस्कृति की ताकत को परखता हुआ भविष्य की संभावनाओं के पखेरुओं को नील गगन में देखता है। वह यह दृष्टि पाठक को, प्रवचनकार को बारीकी से थमाता है। जो नारों की कर्कशता में नहीं, बेहद महीनता से सभ्यता का ताना-बाना बुनता है।

मीरा का दर्द, रैदास की पीड़ा, सूर की तकलीफ, तुलसी, कबीर, नानक की तड़प, तुकाराम, नामदेव, बहिणाबाई की बेचैनी युग के सांस्कृतिक दस्तावेज बनकर सामने आते हैं तो वे तत्कालीन जमीन की तपन और वर्तमान के काँटों को उसकी 'उर्वरकता' से परिचित कराती है। आखिर क्या कारण है कि आधुनिक गाँधी किसी नए विचारक का आप्तवाक्य न लेकर 'नरसी मेहता' का 'वैष्णव जन' लेते हैं।

आम्बेडकर पूरी दुनिया में घूमकर आधुनिक शिक्षा पाकर भी अंततः ढाई हजार वर्ष पूर्व के 'बुद्ध' के वाक्यों में समाज का बदलाव देखते हैं। कवि बुल्लेशाह, शायर गालिब से मीर तकी मीर और जोश मलीहाबादी तक लेखकीय दायित्व और मूल्यों को थामने, उसकी परवरिश करके समाज को देने वाली पूरी परंपरा रही है।

रवीन्द्र और नजरुल इस्लाम अध्यात्म और भौतिक स्वरूप से गहरा सामाजिक सरोकार पेश करते हैं। तिरुवल्लुवर से सुब्रमण्यम भारती तक लेखक के चुनौतीपूर्ण आचरण और सृजन की संभावनाएँ जीवित रखते हैं। किसी साहित्य का लेखन वह किसी भी विधा का हो, जब रचा जाता है तो वह सिर्फ कुछ पन्नों पर लिखी इबारत मात्र नहीं होती। वह समाज के निर्माण का उसे निरंतर मुक्त करते हुए सृजनात्मक मूल्यों का भी निर्माण होता है।

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आज का दौर व्यापक चुनौतियों वाला है। स्वतंत्रता के पूर्व राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जिस जकड़बंदी से समाज को मुक्त कर रहे थे, अध्यात्म में विवेकानंद कर रहे थे। बंकिम, रवीन्द्र, नजरुल लेखन में, ठीक इसी के आसपास प्रेमचंद, प्रसाद, निराला रच रहे थे। प्रेमचंद की 'कफन' और राजा राममोहन राय का सती प्रथा का विरोध दोनों ही समान रूप से स्त्री के खिलाफ पूरी सभ्यता के जबड़ों में खूनी दाँतों की खोज कर उसे उखाड़ने के चेतन अभियान थे।

आज के दौर में चतुर्दिक चुनौतियाँ लेखन के सामने हैं। इस दौर ने बेहद चालाकी से भारत की चर्चित 'पत्रिकाएँ बंद कराईं। ये पत्रिकाएँ जनता में जनमूल्यों, शालीन अभिरुचियों के साथ सामाजिक ताने-बाने में निहित इंसान विरोधी, स्त्री विरोधी, दलित विरोधी 'सर्किट' को समझाती थीं। चेतना के स्तर पर पाठक को मजबूत बनाती थीं। इस दौर के लेखकों ने पूरी निष्ठा से अपने दायित्व को निभाया था।

राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, कामतानाथ, राही मासूम रजा से कवियों में दुष्यंत कुमार से नईम तक इसके बाद की समांतर और बाद तक साहित्य में गंभीर लेखन हुआ है, लेकिन जनसंवाद छीजता गया है। यह बेहद गंभीर मामला था। इस पर काफी बहस हुई, लेकिन उन मुद्दों पर 'चश्मपोशी' की गई, जो साहित्य और जनता के बीच दीवारों के निर्माण में जुटे थे? कंटीली बागड़ लगा रहे थे। आज सर्वाधिक चिंता यह है कि परिवारों में विश्वास, आपसी प्रेम, लगाव कम हो रहा है। सामाजिक जिंदगी इससे भरती जा रही है। मजहबी जुनून, साम्प्रदायिकता का उभार, सौहार्द में गहरी कमी, आक्रामकता का बढ़ता स्तर, ये चुनौतियाँ विकराल हो रही हैं।

दुःखद स्थिति यह है कि साहित्य में यह चुनौती दर्ज तो हो रही है, लेकिन संगठित रूप से लेखकवृंद संगठनों के रूप में बयान जारी करता है। आश्चर्य यह है कि वोटपरस्त राजनीतिक दलों को ध्यान में रखकर साम्प्रदायिकता को कोसा जाता है। पार्टी के चुनाव घोषणा पत्रों को ध्यान में रखकर लेखक संगठन साम्प्रदायिकता की निंदा या विरोध करेंगे तो रचनाओं में तत्कालीन चुनौतियों का उल्लेख तो नजर आएगा, लेकिन इसकी बुनियाद, ठेठ इंसान होकर सामाजिक मूल्य नहीं उभरेगा। ऐसे में पाठक में एक अतृप्तता और गहरी खीज उभरती है। वह लेखक को भी शगलकर्ता की श्रेणी में डाल देता है।

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साहित्य ने सामाजिक मूल्यों को विकसित करने में सदियाँ लगाई हैं। इन मूल्यों के लिए गंभीर और जवाबदार लेखन संभावनाएँ जगाता है। यह बात पर्याप्त सुकून देती है कि साहित्य चुप नहीं है। कई जगह बेहद प्रभावी लेखन हो रहा है। वे ठेठ सामाजिक, ठेठ इंसान के संदर्भ में बेहतरीन रचनाएँ दे रहे हैं। लेखक को संगठन के दावों, चुनाव घोषणा-पत्रों की गंभीर जाँच करना होगी। कहीं बतौर लेखक हम अपनी सामाजिक रचनात्मकता का शोषण तो नहीं करवा रहे हैं?

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