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सुप्त समाज में लुप्त होती स्त्रियाँ

प्रीति चंदा

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स्त्रियों पर बढ़ता अत्याचार हमारे समाचार माध्यमों का एक आम हिस्सा हो गया है, लेकिन यह जानकारी लोगों को कम ही है कि जितनी स्त्रियाँ बलात्कार, दहेज और अन्य मानसिक व शारीरिक अत्याचारों से सताई जाती हैं, उनसे कई सौ गुना ज्यादा तो जन्म लेने से पहले ही मार दी जाती हैं। वाणी और विचार में स्त्री को देवी का दर्जा देने वाले किंतु व्यवहार में स्त्री के प्रति हर स्तर पर घोर भेदभाव बरतने और उस पर अमानुषिक अत्याचार करने वाले हमारे समाज की आधुनिक तकनीक के सहारे की जाने वाली यह चरम बर्बरता है।

देश में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की लगातार कम होती संख्या के कारण पैदा हो रही कई किस्म की सामाजिक विकृतियों के बीच भारत सरकार ने स्वीकार किया है कि वर्ष 2001 से 2005 के दौरान प्रतिदिन करीब 1800 से 1900 तक कन्या भ्रूण हत्याएँ हुई हैं। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2001-05 के दौरान प्रतिवर्ष लगभग 6,82,000 कन्या भ्रूण हत्या हुई हैं। यह तो सरकारी आँकड़ा है जो इतना भयानक है, लेकिन वास्तविक तस्वीर तो इससे भी कहीं ज्यादा भयावह हो सकती है।

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फौरी तौर पर तो लगता है कि लड़की को जन्म लेने से पहले मार दिए जाने का यह सिलसिला हाल के समय की ताजा परिघटना है, लेकिन हकीकत में बर्बरता का यह सिलसिला बहुत पुराना है। हम बहुत ज्यादा पीछे न जाएँ और बीती शताब्दी के शुरुआती आँकड़ों पर ही गौर करें तो पाएँगे कि जब हमारा समाज आज की तुलना में ज्यादा साक्षर नहीं था, सामाजिक रूढ़ियों और अंधविश्वासों की जकड़न भी आज के मुकाबले कहीं ज्यादा मजबूत थी और तकनीकी के स्तर पर भी हम काफी पिछड़े हुए थे, तब लिंग अनुपात में असंतुलन आज जितना नहीं था।

वर्ष 1901 में हुई जनगणना में प्रति हजार पुरुषों पर 972 स्त्रियाँ थीं। घटते-घटते 1991 तक यह संख्या सबसे कम यानी 927 पर पहुँच गई, जो अपने आप में एक गंभीर और चिंताजनक आँकड़ा था। शायद इसी के बाद सरकार की आँखें खुलीं और उसने कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ थोड़ी सख्ती दिखाई, जिसका नतीजा निकला कि 2001 की जनगणना में यह आँकड़ा 933 पर पहुँचा, लेकिन यह भी कोई संतोषजनक स्थिति नहीं कही जा सकती है।

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इसी सिलसिले में एक और चौंका देने वाला तथ्य यह है कि देश के ग्रामीण इलाकों में प्रति हजार लड़कों में लड़कियों की संख्या शहरी क्षेत्र से अधिक है। यानी देश के ग्रामीण इलाकों में प्रति हजार लड़कों पर 939 लड़कियाँ हैं और शहरी क्षेत्र में यही संख्या मात्र 894 है। इससे साफ जाहिर है कि गाँवों में कन्या भ्रूण हत्या का प्रचलन या तो नहीं है या फिर कम है। जबकि शहरों में रहने वाले तथाकथित पढ़ा-लिखा और खाया-अघाया तबका इस घिनौने कार्य में आगे हैं। ऐसे में कैसे कहा और माना जा सकता है कि शिक्षा लोगों को समझदार बनाती है।

एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक 1981 में 0-6 साल के बच्चों का लिंग अनुपात 1000-962 था जो 1991 में घटकर 1000-945 और 2001 में 1000-927 रह गया। इस गिरावट का जिम्मेदार देश के कुछ भागों में व्यापक पैमाने पर हुई कन्या भ्रूण हत्याओं को जाता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि 1995 में बने जन्म पूर्व नैदानिक अधिनियम (प्री नेटन डायग्नोस्टिक एक्ट, 1995 ) के मुताबिक बच्चे के जन्म से पूर्व उसके लिंग का पता लगाना गैर कानूनी है। लेकिन व्यापक पैमाने पर इस कानून का उल्लंघन होता है।

कितनी अजीब विडंबना है कि जहाँ हमारे देश में जानवरों की हत्या को लेकर तो दंगे और खून खराबा शुरू हो जाता है, वहीं मानव भ्रूण हत्या को सिर्फ एक आर्थिक और सामाजिक मजबूरी मान लिया जाता है। स्त्रियों का महत्व और सम्मान हमारे आज के समाज में क्या एक जानवर से भी कम हो गया है?

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